Book Title: Jinabhashita 2006 04 05 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 42
________________ सके और न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सके, अथवा न | और 63 ऋद्धियों से सम्पन्न कहे गये हैं। तीर्थंकर प्रभु तो द्रव्य के गुण बिखरकर पृथक्-पृथक् हो सकें और जिसके | दिव्यध्वनि के कारण अर्थकर्ता कहे गये हैं और ये सभी निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में तथा उसके गुणों में समय समय | गणधर द्वादशांगरूप ग्रन्थ कर्ता कहे गये है। ऐसा नहीं है प्रति षट् गुण हानि वृद्धि होती रहे उसे, अगुरुलघु गुण | कि केवल मुख्य गणधर ही तीर्थंकर भगवान् की वाणी को । कहते हैं । अगुरुलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के | झेलते हों। ये सभी गणधर समान रूप से तीर्थंकर भगवान् अगोचर है, केवल आगम-प्रमाणगम्य है। यह द्रव्य का | की वाणी को अपनी ऋद्धियों के द्वारा ग्रहण करते हैं और सामान्य गुण है और प्रत्येक द्रव्य में पाया जाता है। । विस्तरित भी करते हैं। श्री उत्तरपुराण पर्व 60 श्लोक नं. 2. अगुरुलघुनामकर्म - श्री सर्वार्थसिद्धि 8/11 में | 37 में भगवान् अनंतनाथ के जीवनचरित्र में इस प्रकार इस प्रकार कहा है - 'यस्योदयादयःपिण्डवत् गुरुत्वान्नाधः | कहा हैपतति न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्ध्वं गच्छति तद्गुरुलघुनाम।अर्थ "जयाख्यमुख्यपंचाशद्गणभृवृंहितात्मवाक्" - जिसके उदय से लोहे के पिण्ड के समान गुरु होने से न अर्थ - भ. अनन्तनाथ के सभी जयदि पचास तो नीचे गिरता है और न रुई के समान लघु होने से ऊपर | गणधरों के द्वारा उनकी दिव्यध्वनि का विस्तार होता था। जाता है।' यह कर्म पुद्गलविपाकी है, इस कारण से प्रश्नकर्ता : पं. अनुराग शास्त्री मडावरा । इसका विपाक शरीर में प्राप्त होता है अर्थात् इस कर्म से जिज्ञासा : निश्चय-व्यवहार-सम्यग्दर्शन एक शरीरविषयक अगुरुपना एवं अलघुपना होता है, जिसके साथ होते हैं या आगे पीछे ? कारण ही जीव अपने शरीर को उठाकर अन्यत्र जाने व समाधान : व्यवहारसम्यग्दर्शन साधन है व निश्चय इच्छित स्थान पर रुकने में सर्वत्र समर्थ होता है। सम्यग्दर्शन साध्य है। अत: व्यवहारसम्यग्दर्शन पहले होता 3. गोत्र कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला है व निश्चय सम्यग्दर्शन वाद में। कुछ आगमप्रमाण इस अगुरुलघुत्व गुण श्री पद्मनन्दिपंचविंशतिका के अनुसार | प्रकार हैं - 1. वृहद्रव्यसंग्रह गाथा 41 की टोका में इस इस गुण से सिद्धों को, गोत्र कर्म का नाश होने से, उच्च | प्रकार कहा है - "अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चय गोत्र व नीचगोत्र इन दोनों से रहितपना युगपत् प्राप्त होता सम्यक्त्वं किमर्थं व्याख्यातमिति चेदव्यवहारसम्यक्त्वेन है। इससे आचरणकृत महत्व यानि उच्चगोत्रपना तथा निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकतुच्छत्व यानि नीचगोत्रपने का अभाव एक साथ पाया भावज्ञापनार्थमिति।" अर्थ - यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्व जाता है। यह संसारी अवस्था में गोत्रकर्म के उदय के के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया कारण वैभाविक अवस्था में रहता है और मुक्तजीवों में | जाता है ? व्यवहारसम्यक्त्व से निश्चयसम्यक्त्व सिद्ध स्वाभाविक अवस्था में पाया जाता है। किया जाता है, इस साध्यसाधकभाव को बतलाने के लिये __ इस प्रकार उपर्युत्त अगुरुलघु नामक दो गुण भिन्न । किया गया है। हैं और अगुरुलघुनामकर्म भिन्न है। यह भी जानने योग्य 2. श्री पंचास्तिकाय गाथा 107 की टीका में आचार्य है कि उपर्युक्त अगुरुलघु नामक स्वाभाविक गुण का | जयसेन ने कहा है - "इदं तु नवपदार्थविषयभूतं सांसारिक अवस्था में वैभाविक परिणमन ही पाया जाता व्यवहारसम्यक्त्वं । किं विशिष्टम् । शुद्धजीवास्तिकाय रुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य छद्मावस्थायामात्महै। (राजवर्तिक 8/11/12) विषयस्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परया बीजम्। अर्थ - यह जो जिज्ञासा : क्या तीर्थकर भगवान् की वाणी मुख्य नव पदार्थ का विषयभूत व्यवहार सम्यक्त्व है, वह शुद्ध गणधर ही झेलते हैं? तो फिर अन्य गणधरों का क्या कार्य जीवास्तिकाय की रुचिरूप जो निश्चयसम्यक्त्व है, उसका तथा छद्मस्थ अवस्था में आत्मविषयक स्वसंवेदनज्ञान का ) समाधान : सभी गणधर ऋद्धियों की अपेक्षा समान परम्परा से बीज है।" होते हैं। ये सभी सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता अर्थात् श्रुतकेवली 40/ अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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