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5. ऐलोरा-स्थित जैन गुफाओं में भ. बाहुबली की । के स्थानों में पाये जाने वाले असंख्यात त्रस जीवों का घात कई प्रतिमाएँ हैं, जो आठवीं-नौंवी शताब्दी की मानी जाती | होता है।
प्रश्नकर्ता : पं. वसन्तकुमार जी सिवाड़ 6. हमचा में 898 ईसवी में राजा विक्रम सान्तर ने | जिज्ञासा : क्या भ महावीर के मोक्ष जाने के बाद एक विशाल 'बाहुबली वसदि'बनवाई थी, जिसकी अब | हुए पाँच श्रुतकेवली उसी भव से मोक्ष गये थे, या अन्य केवल चौकी ही शेष रह गई है और बाहुबलि की जीर्ण 5 | भव से? फुट ऊँची प्रतिमा अब कुन्दकुन्द विद्यापीठ भवन में रखी
समाधान : श्रुतकेवली उनको कहते हैं, जो सम्पूर्ण हुई है। इस मूर्ति पर भी जटाएँ प्रदर्शित हैं, किन्तु लताएँ
श्रुत के अर्थात् अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट के सम्पूर्ण ज्ञाता केवल पैरों तक ही उत्कीर्ण हैं।
होते हैं। जबकि केवली वे कहलाते हैं, जिनको केवलज्ञान 7. कर्नाटक के गोलकुंडा के खजाना-बिल्डिंगसंग्रहालय में भी 1.73 मीटर ऊँची काले वेसाल्ट पाषाण की
प्राप्त हो गया होता है। जो केवली होते हैं, वे तो चार मूर्ति है, जो दसवीं शताब्दी की कही जाती है।
अघातिया कर्मों को नष्ट करके उसी भव से नियम से मोक्ष 8. जनागढ संग्रहालय मे एक मर्ति प्रदर्शित की गई | प्राप्त करते हैं, परन्तु श्रुतकेवलियों के उसी भव से मोक्ष है, जो नौवीं शताब्दी की कही जाती है।
प्राप्त करने का नियम नहीं है। श्रतकेवलियों को उसी भव 8. खजुराहो में पार्श्वनाथ मंदिर की बाहरी दक्षिणी | से भी मोक्ष हो सकता है अथवा वे कुछ ही भव में मोक्ष दीवाल पर भी भ. बाहुबली की मूर्ति उत्कीर्ण है, जो दसवीं | प्राप्त कर सकते हैं। श्रुतकेवलियों के लिये श्री धवला पु.शताब्दी की है।
| 9 पृ.-69 से 71 के अनुसार लिखा है कि उनको मिथ्यात्व 10. लखनऊ संग्रहालय में भ. बाहुबली की मूर्ति | में गमन होने का अभाव है, अर्थात् उनका सम्यक्त्व शेष है, जिसका मस्तक और चरण खण्डित है, यह भी 10 वीं | संसारकाल में कभी भी नहीं छूटता है। शताब्दी की है।
यहाँ विशेष यह भी है कि पंचमकाल में उत्पन्न ___11. इसके अलावा महोबा, देवगढ़, श्रवण गिरि | जीवों को, उसी भव में मोक्ष प्राप्त होने का निषेध है। अतः आदि में भ. बाहुबली की कई मूर्तियाँ हैं, जो लगभग 10 वीं |
इस कारण से भी भ. महावीर के बाद होनेवाले पाँचों शताब्दी की हैं।
श्रुतकेवलियों को, पंचमकाल में उत्पन्न होने के कारण इस प्रकार भ. बाहुबलि की चढ़ी हुई बेलवाली |
उसी भव से मोक्ष होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। विशिष्ट शैली की मूर्तियों के निर्माण की परम्परा ईसा की । चौथी शताब्दी से माननी चाहिए।
जिज्ञासा : अगुरुलघुत्व तो जीव का स्वाभाविक प्रश्नकर्ता : कामता प्रसाद जैन, मुजफ्फरनगर।
गुण कहा गया है। फिर इसे नामकर्म के भेद में क्यों गिना जिज्ञासा : सक्ष्मजीव न तो किसी से मरते हैं और | गया ह। न किसी को मारते हैं, फिर कामसेवन मे हिंसा क्यों?
समाधान : आगम में अगुरुलघुत्व शब्द का प्रयोग समाधान : कामसेवन में सूक्ष्मजीवों की हिंसा | तीन स्थानों पर किया गया है - 1. अगुरुलघुत्व सामान्य नहीं होती, बल्कि बादर त्रस जीवों की हिंसा होती है। ये त्रस | गुण 2. अगुरुलघुनामकर्म 3. गोत्रकर्म के क्षय से उत्पन्न जीव आँखों से दिखाई नहीं पड़ते, इस दृष्टि से इनको सूक्ष्म | होनेवाला अगुरुलघुत्व गुण । ये तीनों भिन्न-भिन्न परिभाषा कहा है। सूक्ष्म जीवों का कोई आधार नहीं होता, अतः | वाले हैं, जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - किसी भी वस्तु या पदार्थ में पाये जाने वाले जीव बादर ही | 1. अगुरुल सामान्यगुण - आलापपद्धति में इसका होते हैं। आलू की सब्जी बनाने में भी बादर निगोदिया जीवों | लक्षण इस प्रकार कहा है 'अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम्। का ही घात होता है। बिजली का पंखा चलाने पर भी बादर
सूक्ष्मावाग्गोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या वायुकायिक जीवों का तथा अन्य बादर जीवों का ही घात | अगुरुलघुगुणाः।' अर्थ - अगुरुलघुभाव अगुरुलघुपन है। होता है। हिंसा बादर जीवों की ही होती है, सूक्ष्म जीवों की | अर्थात जिस गुण के निमित्त से द्रव्य का द्रव्यपना सदा नहीं। कामसेवन में, रज-वीर्य में पाये जाने वाले तथा सेवन
बना रहे, अर्थात् द्रव्य का कोई गुण न तो अन्य गुणरूप हो
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 39
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