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वृषभनाथ - स्तवन (द्रुतविलम्बित छन्द)
१
वृषभदेव जिनेश्वर पूज्य हैं, कर रहे गुन गान सुरेन्द्र हैं। मुकुट तो पद पंकज में रहा, विषय को तजने मन हो रहा ॥
२
वृषभदेव हमें तुम तार दो, पतित हूँ तुम पावन देव हो। युग युगान्तर से भ्रमता रहा, इसलिए तव पाद सु आ गया ॥
३ अमर लोक सदा तब पाद में, स्तवन-वन्दन-कीर्तन में रमें। चरण में नतमस्तक हैं सदा, यह सुवर्ण घड़ी मिलती कदा ॥
४
त्रिजग-पंकज को तुम सूर्य हो, अमृत-धर्म पयोधर-आप हो । प्रभु निरंजन ज्ञान सुधामयी, वह सुगन्ध शरीर निरामयी ॥
५
गरल-पाप-निवारक आप हैं, जगत के हित चिन्तक आप हैं। प्रथम तीर्थ-प्रवर्तक आप हैं, परम-ब्रह्म-निवासक आप हैं ॥
६ सलिल उज्ज्वल शीतल पान से, तपनता मिटती अति शीघ्र ही । इस प्रकार जिनेश्वर भारती, भाविक की भव ताप निवारती ॥
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● मुनि श्री योगसागर जी
अजितनाथ-स्तवन
(द्रुतविलम्बित छन्द)
१
अजितनाथ अजेय बलाढ्य ये, भव अनन्त भवाब्धि सुखा दिये। प्रबल मोह पिशाच हरा दिये, कृतकृतार्थ हुआ नर जन्म ये ॥
२
कनकवर्ण मनोहर रूप से, उदित बाल दिवाकर से लसे। जगत में अति सुन्दर कौन है, अमर लज्जित शीश झुका रहे ॥
३
सकल वैभव औ परिवार से, तज दिया ममता त्रय योग से। सघन कानन में तप को लिये, मन तरंग विलीन सदा हुये ॥
४
तव मुखाकृति स्वयमेव ही, अभय का वरदान मिले सही । इसलिए तव पाद-सरोज में, सकल जीव तजें चिर वैर को ॥ ५
नयन से उर में आ बसे, हृदय मन्दिर उज्ज्वल भवा से। सफल भक्त हुआ तव भक्ति से, सतत भक्ति करें तव नाम से ॥
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प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन
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