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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2532
कुण्डलपुर -बड़े बाबा
के प्राचीन मन्दिर की
अन्य जिनप्रतिमाएँ यथावत् सुरक्षित चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, वि.सं. 2063
अप्रैल, मई, जून, 2006
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आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे
कल्पवृक्ष से अर्थ क्या? कामधेनु भी व्यर्थ। चिन्तामणि को भूल अब, सन्मति मिले समर्थ॥
२ तीर उतारो, तार दो, त्राता! तारक वीर। तत्त्व-तन्त्र हो तथ्य हो, देव देवतरु धीर॥
दृष्टि मिली पर कब बनूँ, द्रष्टा सब का धाम। सृष्टि मिली पर कब बनें, स्रष्टा निज का राम॥
११ गुण ही गुण, पर में सदा, खोनँ निज में दाग। दाग मिटे बिन गुण कहाँ, तामस मिटते राग।
१२ सुनें वचन कटु पर कहाँ, श्रमणों को व्यवधान। मस्त चाल से गज चले, रहें भोंकते श्वान ॥
३
पूज्यपाद गुरुपाद में, प्रणाम हो सौभाग्य। पाप ताप संताप घट, और बढ़े वैराग्य॥
भाररहित मुझ, भारती! कर दो सहित सुभाल। कौन सँभाले माँ बिना, ओ माँ! यह है बाल॥
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सर्वोदय इस शतक का, मात्र रहा उद्देश्य। देश तथा परदेश भी, बने समुन्नत देश॥
पंक नहीं पंकज बनूँ, मुक्ता बनूँ न सीप। दीप बनूँ जलता रहूँ, प्रभु-पद-पद्म-समीप॥
मत डर, मत डर मरण से, मरण मोक्ष-सोपान। मत डर, मत डर चरण से, चरण मोक्षसुख-पान ।।
१४ सागर का जल क्षार क्यों, सरिता मीठी सार। बिन श्रम संग्रह अरुचि है, रुचिकर श्रम उपकार॥
१५ देख सामने चल अरे, दीख रहे अवधूत। पीछे मुड़कर देखता, उसको दिखता भूत॥
१६ पद पंखों को साफ कर, मक्खी उड़ती बाद। सर्व-संग तज ध्यान में, डूबो तुम आबाद।
१७ अँधेर कब दिनकर तले, दिया तले वह होत। दुखी अधूरे हम सभी, प्रभु पूरे सुख-स्रोत ॥
प्रमाण का आकार ना, प्रमाण में आकार। प्रकाश का आकार ना, प्रकाश में आकार ॥
एक नजर तो मोहिनी, जिससे निखिल अशान्त। एक नजर तो डाल दो, प्रभु! अब सब हों शान्त ॥
९ भास्वत मुख का दरस हो, शाश्वत सुख की आस। दासक-दुख का नाश हो, पूरी हो अभिलाष॥
१८
यथा दुग्ध में घृत तथा, रहता तिल में तैल। तन में शिव है, ज्ञात हो, अनादि का यह मेल॥
"सर्वोदयशतक" से साभार
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रजि. नं.UPHIN/2006/16750
अप्रैल, मई, जून 2006
मासिक जिनभाषित
वर्ष 5, अङ्क.15
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
अन्तस्तत्त्व
पृष्ठ
कार्यालय , ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल-462 039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत. प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी
(आर.के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.)
आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे
आ.पृ. 2 • वृषभनाथस्तवन, अजितनाथ स्तुति
आ.पृ. 3
: मुनि श्री योगसागर जी • मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ
आ.पृ. 4 अन्तस्तत्त्व • सम्पादकीय : कुण्डलपुर-घटनाक्रम • लेख • कुण्डलपुर में बड़े बाबा और छोटे बाबा
: मुनि श्री समतासागर जी • कुण्डलपुर-स्पष्टीकरण : पं. मूलचन्द लुहाड़िया • कुण्डलपुर का करिश्मा : नजीर/ओमप्रकाश • पुरावैभव के सच्चे रक्षक : डॉ. स्नेहरानी जैन • कुण्डलपुर के बड़े बाबा का मूलस्थान.....
: ब्र. अमरचन्द्र जैन • बडे बाबा की प्रतिमा का संस्थापन : सुरेश जैन आई.ए.एस. जातिमद सम्यक्त्व का बाधक
: स्व. बाबू सूरजभान जी वकील • उद्दिष्ट-मीमांसा : पं. छोटेलाल बरैया • जैन परम्परा में वर्षावास : डॉ. फूलचन्द्र जैन 'प्रेमी' • क्या साकांक्ष पूजा मिथ्यात्व है ? : एक विवेचन
: पं. सुनीलकुमार शस्त्री • श्री शान्तिनाथ दि. जैन अतिशय क्षेत्र बजरंगढ़ • जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाड़ा • कविताएँ
• भील भोली भावना के गीत गाते : मनोज जैन मधुर • आचार्यश्री विद्यासागर-पूजनम् : मुनि श्री प्रणम्यसागर जी . सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम् : डॉ. कुसुम पटोरिया समाचार
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श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी,
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लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा
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सम्पादकीय
कुंडलपुर - घटना क्रम
कुंडलपुर तीर्थ में नव निर्माणाधीन विशाल भव्य मंदिर के गर्भ गृह में बड़े बाबा की मूर्ति विराजमान हो गई। विरोधी लोग तो मूर्ति का स्थानांतरण लगभग असंभव ही मान रहे थे अथवा स्थानांतरण के प्रयास में किसी दुर्घटना अथवा मूर्ति की क्षति की संभावना से स्वयं को एवं जन साधारण को भयाक्रांत बना रहे थे। दूसरी ओर समर्थकों में से भी अनेकों के हृदय के किसी कोने में मूर्ति स्थानांतरण के कार्य की दुस्हता का विचार कर कभी- कभी शंका की लहरें उठती थीं । किन्तु बड़े बाबा की मूर्ति के अतिशय एवं छोटे बाबा के मार्गदर्शन के प्रति अनन्य श्रद्धा के प्रकाश में ऐसी दुर्बल शंकाओं की तमोमय रेखाएँ लुप्त हो जाती थी ।
मूर्ति-स्थानांतरण में अनेक बाधाएँ उपस्थित किये जाने के निष्फल प्रयास किए गए, किंतु अंत में जन-जन की भावनाओं की, सत्य की, श्रद्धा की एवं धर्म की विजय हुई और बड़े बाबा की मूर्ति पुराने अपर्याप्त जर्जर अँधेरे स्थान से स्थानांतरित हो नवनिर्माणाधीन उपयुक्त स्थान पर आ विराजित हुई। यह बात सर्व मान्य है कि मूर्ति के स्थानांतरण का कार्य असंभव नहीं, तो अत्यंत कठिन अवश्य था। फिर इतनी सहजता से यह कार्य कैसे सम्पन्न हो सका। मैं तो कहता हूँ कि यदि बड़े बाबा स्वयं स्थानांतरित होना नहीं चाहते, तो कोई भी शक्ति उनको स्थानांतरित नहीं कर पाती, जैसा कि पूर्व में हुआ था । अतः बड़े बाबा की मूर्ति के इस सहज, सफल एवं निर्विघ्न स्थानांतरण में बड़े बाबा की स्वयं की मर्जी ही सबसे बड़ा कारण रही, यह सुनिश्चित है । फिर बड़े बाबा की मर्जी के आगे उनको नए स्थान पर लानेवाले कौन और उसका विरोध करने वाले कौन ? अब तो हम सबको बड़े बाबा की मर्जी का समादर करना चाहिए और सभी को मिलकर बड़े बाबा की मर्जी को स्वीकार कर उनके चरणों में नतमस्तक हो जाना चाहिए। बड़े बाबा की मर्जी जानने के लिए हमें बड़े बाबा से ही पता लगाना चाहिए। बड़े बाबा के समक्ष खड़े होकर एकाग्रता से उनके दर्शन कीजिए। हम पायेंगे कि नीचे अँधेरे से ऊपर प्रकाश में आने पर बड़े बाबा की सौम्यता, सुंदरता, ऊर्जा एवं प्रभावकता में अनेक गुणी वृद्धि हो गई है। यही तो सिद्ध करती है कि बड़े बाबा की स्वयं की मर्जी नए स्थान पर आने की थी। बड़े बाबा की मर्जी के साथ-साथ जन-जन की भावनाएँ एवं तरसती आँखें भी बड़े बाबा को इस नूतन विशाल मंदिर के गर्भगृह में लाने का कारण रही हैं। आज बड़े बाबा के भव्य दर्शन इस नवीन भव्य मंदिर में भव्यता के साथ पाकर जन-जन अपने अतिशय पुण्य के उदय का अनुभव कर रहा है और वीतराग प्रभु के दर्शन से उत्पन्न भावों की विशेष विशुद्धि से विशेष पुण्यबंध के साथ कर्मों की संवर- निर्जरा भी कर रहा है।
फिर भी कुछ लोगों के मन में कुछ प्रश्न उठते हैं। आइए हम उन पर भी विचार कर लें ।
एक बात तो यह की जाती है कि जिनमंदिर में से मूल नायक भगवान् की प्रतिमा को स्थनांतरित नहीं किया जाना चाहिए। इस प्रश्न के समर्थन में प्रश्न कर्ता के पास कोई आगमप्रमाण नहीं है। उत्तर में हमारा प्रतिप्रश्न है कि यदि कोई मंदिर जर्जर होकर ध्वस्त हो जाय, यदि कोई बाढ़ क्षेत्र में आ जावे, यदि कोई क्षेत्र निर्जन एवं असुरक्षित हो जाये, यदि किसी छोटे अपर्याप्त क्षेत्र के स्थान पर विशाल भव्य मंदिर का निर्माण करा दिया जाये, तो हमें मूलनायक भगवान को स्थानांतरित करना चाहिए या नहीं ? मुझे विश्वास है कि प्रश्नकर्ता का उत्तर स्थानांतरण के समर्थन में होगा । इतिहास
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पृष्ठों में अंकित अनेक उदाहरण आवश्यक होने पर स्थानांतरण का पुरजोर समर्थन कर रहे हैं। स्वयं बड़े बाबा पूर्व में किसी अन्य स्थान पर स्थानांतरित हुए थे । पाकिस्तान बनने पर मुल्तान शहर के जिनमंदिर की मूलनायकसहित सभी मूर्तियाँ जयपुर लाकर स्थापित की गई थीं। श्रीमहावीर जी अतिशयक्षेत्र में मूलनायकमूर्ति ऊपर की मंजिल का निर्माण होने पर नीचे से ऊपर स्थानांतरित की गई आदि ।
दूसरा प्रश्न यह उठाया जाता है कि धार्मिक क्षेत्र में राजाज्ञा का उल्लंघन न तो श्रावकों को ही करना चाहिए और न उसका समर्थन दिगम्बर मुनिराजों को करना चाहिए। उत्तर में निवेदन है कि वस्तुतः नवीन मंदिर निर्माण के विरुद्ध अभी जारी की गई राजाज्ञा अविधिसम्मत है। कुंडलपुर तीर्थक्षेत्र के मंदिर केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के नियंत्रण में कभी नहीं लिए गए हैं। प्रारंभ से ही सभी मंदिरों की देखभाल जैन समाज की कमेटी ही करती आ रही है ।
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मंदिरमूर्तियों का निर्माण एवं रखरखाव जैनसमाज द्वारा ही किया जाता रहा है। अतः केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग को मंदिरनिर्माण को रोकने के आदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसा अविधि-सम्मत निम्न अधिकारियों का आदेश राजाज्ञा की परिभाषा में नही आता और न्यायालय में चुनौती दिए जाने योग्य है।
निश्चय ही प्रश्नकर्ता के मन में यह शंका तथ्यों की जानकारी नहीं होने के कारण अथवा पक्षाग्रह के कारण उत्पन्न हुई है। जैनसंस्कृति-रक्षा-मंच जयपुर ने पुरातत्त्व विभाग को कुंडलपुर क्षेत्र कमेटी द्वारा राजाज्ञा उल्लंघन करने की शिकायत की है। आश्चर्य की बात तो यह है कि रक्षा मंच के स्वयंभू पदाधिकारियों में से किसी ने भी कभी कुंडलपुर आकर वस्तुस्थिति की जानकारी लेने का कष्ट नहीं किया और न संबंधित पत्रावलियों का अवलोकन किया। दूसरे शिकायतकर्ता सुपरिचित विद्वान् श्री नीरज जैन हैं। उन्होंने लगभग तीन चार वर्ष पूर्व दमोह की बैठक में प्रकटतः बडे बाबा की प्राचीन मर्ति की सरक्षा के लिए नवीन भूकंपरोधी मंदिर के निर्माण एवं उसके वहाँ स्थानांतरण की योजना को स्वीकार कर इसके क्रियान्वयन में सहयोग करने का वचन दिया था। किंतु लोग कहते हैं कि समय के साथ लाभदृष्टि के परिवर्तन के साथ इनके सिद्धान्त भी परिवर्तित होते रहते हैं। इनकी माया ये ही जानें । मैं यह बताना आवश्यक समझता हूँ कि फरवरी, 2001 में कुंडलपुर में उपस्थित लक्षाधिक दि. जैन समुदाय के समर्थन के साथ दि. समाज की प्रतिनिधि संस्थाएँ श्री अखिल भारतवर्षीय दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी तथा दि. जैन विद्वत्परिषद ने सर्वसम्मति से नवीन भूकंपरोधी विशाल मंदिरनिर्माण एवं बड़े बाबा की मूर्ति को उसमें स्थानांतरण के समर्थन में प्रस्ताव पारित किए थे।
संबंधित पत्रावलियों से यह स्पष्टतः सिद्ध है कि कुंडलपुर के दि. जैन मंदिरों को कभी भी राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारक घोषित नहीं किया गया। प्रारंभ से मंदिरों का प्रबंध, निर्माण, देखरेख, जीर्णोद्धार पूरी तरह जैनसमाज द्वारा गठित क्षेत्र कमेटी के द्वारा होता रहा है। भूकंपों के झटकों से बड़े बाबा के मंदिर में दरारें उत्पन्न हुईं और बड़े बाबा की मूल्यवान् मूर्ति एक ओर तीन इंच झुककर टेढ़ी हो गई। तब क्षेत्र कमेटी एवं सम्पूर्ण समाज ने मिलकर भूवैज्ञानिकों की राय के अनुसार बड़े बाबा की मूर्ति की दीर्घकालीन सुरक्षा के लिए भूकंपरोधी नवीन मंदिर के निर्माण की योजना बनाई। 1988 से ही पहाड़ी पर मंदिरनिर्माण के लिए भूमि को समतल कर सम्पूर्ण भूमि को सीमेंट ग्राउटिंग द्वारा भूकंपरोधी बनाया गया। इस कार्य का समय-समय पर केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के अधिकारियों के साथ-साथ प्रांतीय सरकार के पदाधिकारी एवं समाज के वरिष्ठ व्यक्तियों द्वारा निरीक्षण किया गया और कार्य की अनुमोदना की गई। एकाधिक बार प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री महोदय ने सार्वजनिकरूप से मंदिरनिर्माण की प्रशंसा करते हुए उसमें राज्य सरकार के सहयोग का आश्वासन भी दिया। हमारे समझने या कहने से नहीं, बल्कि केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग की स्वयं की निरीक्षण टिप्पणी से भी यह सिद्ध होता है कि मंदिर 80 प्रतिशत जीर्णशीर्ण हो गया है और खतरनाक स्थिति में था। हमें अत्यंत आश्चर्य भी है और खेद भी कि पुरातत्त्वस्मारकों की सुरक्षा का नैतिक उत्तरदायित्व अपने कंधों पर ढोने वाला पुरातत्त्वविभाग यह सब देखकर भी आँख मूंद कर सोया रहा, उदासीन बना रहा और संभवतः उस घड़ी की प्रतीक्षा करता रहा, जब वह जीर्णशीर्ण मंदिर ध्वस्त होकर महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक सम्पत्ति बड़े बाबा की मूर्ति को क्षति पहुँचा दे। यह कैसी दर्दभरी त्रासदी है कि गत वर्षों से मंदिर की जीर्णशीर्ण स्थिति की जानकारी होते हुए भी केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग ने अपने कर्तव्य एवं नैतिक उत्तरदायित्व की घोर अनदेखी करते हुए बड़े बाबा की पूर्ति की सुरक्षा की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया ओर दूसरी और जब मूर्ति की सुरक्षा हेतु जैनसमाज और क्षेत्र कमेटी द्वारा आवश्यक प्रयास किए जा रहे हैं, तब एकाएक कतिपय अधार्मिक एवं असामाजिक तत्त्वों के संकेतों पर दुर्भावनावश उनमें बाधक बनते हुए माननीय उच्च न्यायालय में अनधिकृतरूप से प्रादेशिक सरकार एवं तीर्थ क्षेत्र कमेटी के विरुद्ध याचिका प्रस्तुत कर दी है। वस्तुतः केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग का यह कृत्य 'उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे' की कहावत को चरितार्थ कर रहा है। इस याचिका पर माननीय न्यायालय ने तथ्यों की जानकारी के अभाव में अभी अंतरिम रूप से यथास्थिति के निर्देश जारी किए हैं। तथापि इस प्रकरण में देश के सम्पूर्ण दि.जैन समाज को संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए एवं अपनी धार्मिक आराधनाओं की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना चाहिए। यह याचिका वस्तुतः दि. जैन समाज की अस्मिता एवं धार्मिक स्वतंत्रता पर सरकार द्वारा किया गया सीधा प्रहार है.। हम पुरातत्त्व विभाग को
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यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि बड़े बाबा की मूर्ति उनके लिए तो मात्र ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तु है, किंतु देश की सम्पूर्ण दि. जैन समाज के लिए प्राणों से भी अधिक मूल्यवान् धार्मिक श्रद्धा की केन्द्रभूत निधि है। पुरातत्त्व विभाग ने पहले भी मूर्ति की सुरक्षा की चिंता नहीं की है और आज भी न्यायालय से यथास्थिति प्राप्त कर मूर्ति को पुनः असुरक्षित स्थिति में पहुँचा दिया है, जो अनुत्तरदायित्वपूर्ण होने के साथ-साथ असंवैधानिक भी है। हम केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग के अधिकारियों और केन्द्रीय सरकार से निवेदन करते हैं कि हमें हमारी धार्मिक एवं आध्यात्मिक आस्था की प्रतीक इस प्राचीन मूर्ति को सुरक्षित करने में बाधक न बनें, अन्यथा देश का संपूर्ण दि. जैन समाज आंदोलन करने के लिए बाध्य होगा।
तीर्थक्षेत्रों की सुरक्षा के प्रकरण में हमारे अपनों में से ही कुछ व्यक्ति यदि व्यक्तिगत कुंठाओं अथवा पक्षाग्रहों के आधार पर आपसी विचारविनिमय का सहयोगात्मक मार्ग छोड़कर दि. जैन समाज के व्यापक हितों के विरुद्ध संघर्षात्मक मार्ग अपनायेंगे, तो यह हमारा दुर्भाग्य ही होगा। काश! हम यह समझ पायें कि धर्म की अप्रभावना का अथवा धर्मायतनों के विकास में बाधा डालने का छोटा सा कार्य भी आग की चिनगारी की भाँति हमारे लिये भारी हानि का कारण सिद्ध होगा।
___ यह प्रसंग हमें यह प्रेरणा देता है कि देश की सम्पूर्ण दि. जैन समाज को अपने तीर्थक्षेत्रों एवं धर्मायतनों की सुरक्षा के संबंध में गंभीर विचार करना चाहिए। इस प्रजातांत्रिक शासन के युग में संगठित और अनुशासित समाज को ही सम्मानपूर्वक जीने और अपने अधिकारों की सुरक्षा करने का अधिकार है। इस न्यायिक प्रकरण का निर्णय दि. जैन समाज के अस्तित्व एवं अस्मिता के संबंध में दूरगामी प्रभाव डालने वाला होगा।
मूलचंद लुहाड़िया
भील भोली भावना के गीत गाते वनवासियों की ओर से मुनि श्री चिन्मय सागर जी को समर्पित
मनोज जैन 'मधुर'
मुंदित हो, ठुमके लगाकर, गाँव का, हर पाँव नाचा। भक्ति की, इस भावना का, हर नयन ने, भाव बाँचा, विविध वर्णी पुष्प चरणों में चढ़ाते। भील-भोली, भावना के गीत गाते।
त्यागते, आहार-आमिष देख मूरत त्याग की। भावना भाते-शरण में, बैठकर वैराग की। मुनिश्री की, चरण-धूली, सिर लगाते, भील-भोली भावना के गीत गाते
३ बस्तियाँ शापित अहिल्या की तरह पथ हेरतीं। मुक्ति पाने भवभ्रमण से मुनिश्री को टेरतीं। उपदेश गौतम का मुनी इनको सुनाते। भील-भोली भावना के गीत-गाते।
इंदिरा कालोनी, भोपाल
4/ अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
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कुंडलपुर के बड़े बाबा और छोटे बाबा
| था।
मुनि श्री समतासागर जी म.प्र. के दमोह जिले से लगभग 35 किमी दूर ।
झर झर बहता झरना पटेरा ग्राम के निकट कुण्डलाकार पहाड़ी में अवस्थित सिद्धक्षेत्र
कहता चल चल चलना कुण्डलपुर अपनी प्राचीनता, पवित्रता और अतिशयता के
उस सत्ता से मिलना लिए प्रसिद्ध है। दिगम्बर जैनमंदिरों की मनोज्ञता, सुरम्य
पुनि पुनि पड़े न चलना पर्वतमाला एवं अंतिम केवली श्रीधरस्वामी की मुक्तिस्थली
पुराने जीर्णशीर्ण छोटे मन्दिर से बड़े बाबा को नए होने से इस क्षेत्र की ख्याति दूर-दूर तक है। इस क्षेत्र के 64
| विशाल मन्दिर में स्थानांतरित करने की आवश्यकता विभिन्न जिनमंदिरों में सबसे प्राचीन मंदिर प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ
| पहलुओं से लगभग स्पष्ट हो चुकी है। सन् 2001 फरवरी भगवान का है। इन्हें ही बडे बाबा के नाम से जाना जाता है।
माह में सम्पन्न हए पंचकल्याणक, गजरथ और महामस्तकापद्मासन मुद्रा में यह प्रतिमा 15 फीट ऊँची और 11 फीट | भिषेक महोत्सव में देशप्रदेश के जन-प्रतिनिधि, समाज के चौड़ी है। बड़े बाबा का मंदिर लगभग ईसा की छठी सदी में | मूर्धन्य विद्वान्, प्रसिद्ध उद्योगपति एवं लाखों श्रद्धालु श्रावकों पहली बार बना। प्रतिमा के बारे में अनुमान है कि लगभग | ने मंदिर-नवनिर्माण पर अपना समर्थन और सहयोग दिया 1500 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। मन्दिर की दीवारें बनती और | मिटती रहीं, किंतु बड़े बाबा आज भी यथावत् बने हुए हैं। 'नई दुनिया' के स्थानीय संपादक, पत्रकार मन्दिर की बाह्य दीवारें ही नहीं सम्हालना हैं, बल्कि अंदर | | ओमप्रकाश जी ने दि. 28/2/06 को 'कुण्डलपुर का करिश्मा' स्थित प्रभु की प्रतिमा का संरक्षण ही असली पुरातत्त्व की |
| शीर्षक से लिखे लेख में पुरातत्त्व की खामियों और श्रद्धालुओं रक्षा है। सो, समय समय पर प्रतिमा की सुरक्षा के लिए |
| की मजबूरियों के जो बिन्दु उजागर किये, वे वास्तव में मंदिर का जीर्णोद्धार कार्य होता रहा। बड़े बाबा की कृपा से
चिन्तनीय हैं। यह एकदम कड़वा सच है, जिसे स्वीकारना अपना खोया हआ राज्य पन: पाने पर ईसवी सन 1657 में | ही होगा कि पुरातत्त्व की वस्तुओं में और धर्मश्रद्धालुओं के पन्ना नरेश महाराजा छत्रसाल ने इस मंदिर के जीर्णोद्धार में पूजास्थलों में बड़ा अन्तर है। पुरातत्त्व-संरक्षित किसी महल सहयोग देकर प्रतिष्ठाकार्य सम्पन्न कराया। स्वयं कार्यक्रम
या किले की दीवार गिर जाए, तो हिंदुस्तान का नागरिक में सम्मिलित होकर मंदिर के लिए सोने-चाँदी के चँवर, छत्र आँसू नहीं बहाएगा, उपवास नहीं करेगा, जबकि किसी भी और पूजा के बर्तन भेंट स्वरूप दिए। इसी समय कुण्डलपुर
धर्मावलंबियों के मंदिर, मूर्ति या पूजास्थलों में कुछ भी क्षति के मनोहारी तालाब 'वर्धमान सागर' तथा सीढ़ियों का होती है, तो उसकी सारी पीड़ा वह श्रद्धालु समाज भोगता है। निर्माण भी हुआ।
17 जनवरी 06 मंगलवार के शुभ दिन अपराह्न ___ सन् 1976 की बात । कटनी में ग्रीष्मकालीन प्रवास
बेला में बड़े बाबा जैसे ही नए मंदिर के भव्य सिंहासन पर के बाद गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी संघसहित प्रथम विराजमान हुए, आकाशमण्डल सहित समूचा कुण्डलपुर बार कुण्डलपुरजी क्षेत्र के दर्शनार्थ पधारे। क्षेत्र की वंदना
तीर्थ जय-जयकार के नारों से गूंज उठा। भावभीने इस की, बड़े बाबा के दर्शन किए और फिर वहाँ पर चातुर्मास
वातावरण में गुरुवर आचार्यश्री की आँखों से खुशी के आँसू स्थापित कर लिया। आचार्यश्री के चुम्बकीय व्यक्तित्व के बह निकले। मूर्ति उठने के पहले चेहरे पर झलकती चिन्ता बारे में कहा जाता है कि जो उन्हें एक बार देखता है, वह
और मूर्ति उठने के बाद प्रसन्न आत्म-विश्वास से भरे उन्हीं का हो जाता है। किन्तु यहाँ कुछ ऐसा हुआ कि बड़े
आभामण्डल द्वारा आचार्यश्री ने बिना कहे ही सब कुछ कह बाबा के दर्शन कर आचार्यश्री उन्हीं के हो गये। क्षेत्र की दिया। कार्य की सानन्द सम्पन्नता के बाद शिष्य-श्रद्धालओं प्राकृतिक छटा में गहन चिन्तनमनन और स्वाध्याय-साधना
ने पूछ ही लिया गुरुवर से कि "आचार्यश्री ! जब मूर्ति उठ चलती रही। वर्षाकाल में पर्वतराज से वर्धमानसागर की
रही थी, तो आप इतने सीरियस से क्यों थे?" आचार्यश्री का ओर बहते हुए झरनों को आचार्य श्री ने कुछ इस तरह
उत्तर था - "क्या बताएँ सबकी नजरें मुझ पर लगी थीं और निरूपित किया -
मेरी नजरें बड़े बाबा पर लगी थीं।" पुनः पूछ लिया कि
- अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित /5
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"जब मूर्ति उठ गई, तो आँखों से इतने आँसू क्यों बह | आचार्यश्री ही जानते हैं । दैविक शक्तियों को सिद्धि अनुभूति निकले?" आचार्य श्री का उत्तर था- "मैं सोच रहा था, बड़े | इसलिये भी होती है कि जब औरंगजेब ने मूर्तिभंजन के बाबा मेरे साथ हैं कि नहीं। पर जैसे ही प्रतिमा उठी तो ऐसा | लिए बड़े बाबा के चरणों में घन प्रहार किया, तो चरणों से लगा कि हाँ ! बड़े बाबा मेरे साथ है। बस इसी सुखद | दुग्ध की धारा निकली और एक साथ हजारों मधुमक्खियों ने अनुभूति में ही.............
आक्रमण कर मूर्तिभंजकों को भगा दिया। वहीं दैवी शक्तियाँ 20 वर्ष का युवा सरदार एक बहुत बड़ी क्रेन को प्रतिमा-स्थानांतरण के समय नागयुगल के रूप में प्रगट तो हैण्डिल कर रहा था। मूर्ति उठाने में वह काफी प्रयासरत था, | हुईं, पर गुरुवर की उत्कृष्ट तप:साधना और पुण्य प्रभावना पर मूर्ति उठ नहीं रही थी। वह निराश सा आचार्यश्री के पास | से अपार जनसमुदाय में भी किसी को किंचित् भी बाधा नहीं आशीर्वाद लेने आया। गुरुवर ने अपना आशीर्वाद देते हुए | हुई। वे शक्तियाँ बड़े बाबा की प्रतिमा के साथ आज भी हैं। उसे प्रोत्साहित किया। साथ ही साथ कुछ संकेत-निर्देश भी यक्षरक्षित, अतिशयकारी प्रतिमा का चुम्बकीय दिया। उस बेटे सरदार को बात समझते देर न लगी और | आकर्षण बुन्देलखण्ड ही नहीं, समूचे हिन्दुस्तान को अपनी उसने मन में कुछ ध्यान कर पुनः गुरुवर का आशीर्वाद | ओर खींचे हुए है। मूर्तिभंजक औरंगजेब जैसे क्रूर आततायी लिया। सरदार ड्रायवर सीट पर बैठा और ज्यों ही क्रेन | को भी सद्बुद्धि बड़े बाबा के चरणों में मिली। मैं चाहता हूँ संचालित की, कि मूर्ति एकदम फूल की तरह उठकर | उन्हें भी सद्बुद्धि मिले, जो बड़े बाबा की प्रतिमा में प्रभु की निर्माणाधीन नए मंदिर की ओर बढ़ गई। रहस्य केवल | भगवत्ता नहीं, केवल पुरातत्त्व ही देख रहे हैं। स्वयं सिद्ध इतना था कि युवा सरदार अपने घरेलू संस्कारों में शाकाहारी | साधक गुरुवर, न कंकर से लघु, न शंकर से गुरु, वरन् हम नहीं था। अतः ज्यों ही उसने मांसाहार-त्याग का संकल्प | जैसे हजारों लाखों अदना अकिञ्चन किंकरों के चलते फिरते लिया, उसके ब्रेन और क्रेन एकदम काम कर उठे। सच ही | प्रभु तीर्थंकर हैं। चरणों में विनम्र भक्ति-अर्घ अर्पित करते है, अहिंसा के देवता की मूर्ति अहिंसक आचरणवान् से ही | हुए केवल इतना ही भाव प्रगट करना चाहता हूँ कि सुना है आगे बढ़ सकती है।
अपने अर्थराज्य की रक्षा के लिए बुन्देलखण्ड में एक महारानी जिस दिन बड़े बाबा संघसहित गरुवर और हजारों- लक्ष्मीबाई और एक महाराजा छत्रसाल हुए, किन्तु बुन्देलखण्ड हजार श्रद्धालुओं की साक्षी में नवीन वेदिका पर विराजमान | के बड़े बाबा और छोटे बाबा के धर्म-साम्राज्य के रक्षण और हुए, उस दिन गोंदिया (महाराष्ट्र) में आदिनाथ भगवान के | संवर्धन के लिए लाखों श्रद्धालु लक्ष्मीबाइयाँ और लाखों जन्मकल्याणक का उत्सव चल रहा था
श्रेष्ठि श्रावक छत्रसाल तन-मन-धन से संकल्पित/समर्पित "ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं बडे बाबा अहँ नमः"का मंत्रोच्चारण कर | हैं। गुरुवर की छत्रछाया में हुए इस कार्य में समर्पित क्षेत्र रही थी। आचार्य श्री आदेश/आशीर्वाद से भले ही हम दोनों | कमेटी, युवा कार्यकर्ता, समूचा समाज और त्यागीव्रती ही (मुनि श्री समतासागर जी एवं ऐलक श्री निश्चयसागर जी) सही मायने में संस्कृति-संरक्षक हैं। धार्मिक तीर्थस्थलों की ब्र. विनय भैया सहित गोंदिया पंचकल्याणक में थे, पर मन | ऐसी सांस्कृतिक धरोहरों को सम्हालने के लिए “आपरेशन तो प्रतिक्षण बडे बाबा और छोटे बाबा के चरणों में लगा हुआ मोक्ष" जैसे नेक, श्रेष्ठ और समसामयिक कार्य के लिए था। इस शताब्दी का पहला अतिशय, पहला चमत्कार छोटे शासन, प्रशासन और कानूननिर्माता, कानूनविद् सहायकबाबा, बड़े बाबा को युगपत् नमस्कार । यह पवित्र कार्य कैसे | सहयोगी बनें। इसी शुभभावना के साथ बडे बाबा और छोटे सम्पन्न हुआ यह रहस्य सिर्फ स्वयं बड़े बाबा या छोटे बाबा | बाबा के चरणों में शत-शत प्रणाम।
___ मुनि श्री प्रमाण सागर जी के नित्य दर्शन एवं प्रवचन आचार्य श्री विद्यासागर जी के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री प्रमाण सागर जी महाराज के प्रवचन एवं आशीर्वचन आस्था चेनल पर अब 7 मई 2006 से प्रतिदिन सांय 6.00 बजे देखिये सुनिये और धर्म लाभ लीजिये।
सन्तोष कुमार जैन सेठी
डायरेक्टर - आस्था चेनल 10, प्रिंसेस स्ट्रीट, दूसरी मंजिल, कलकत्ता-1471
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कुंडलपुर-स्पष्टीकरण
- पं. मूलचंद लुहाड़िया 30 मार्च के 'जैन गजट' में स्वतन्त्र विचारक श्री | के झटकों के कारण दरारें उत्पन्न हो गई थी और बड़े बाबा श्रीकांत चवरे, उन्हास नगर का एक प्रश्नपरक पत्र "कुंडलपुर की मूर्ति 3 इंच एक ओर नीचे झुक गई थी। मूर्ति की सुरक्षा में जो हुआ क्या यह उचित है" प्रकाशित हुआ। जैनधर्म के लिए बाहर निकाले जाने पर दीवार और छत को तोड़ा
और जैन धर्मायतनों पर दूरगामी प्रभाव डालनेवाली घटनाओं जाना अनिवार्य था और संभवत: मंदिर की शेष रही दीवारें पर खुली निष्पक्ष चर्चा के अभाव में सामूहिक नीति निर्धारित दरारें बढ़ जाने से गिर गईं। श्रद्धालुओं को किसी भी स्थिति नहीं हो पाती और मत विभिन्नताएँ जन्म लेकर समाज को | में मूर्ति की सुरक्षा करनी थी और वह की गई। कमजोर बना देती हैं।
____3. आप किन दिगम्बर जैन आचार्य के बारे में कह श्री चवरे जी ने चर्चा के द्वार खोले हैं। यह स्वागत रहे हैं, स्पष्ट करना चाहिए। मूर्ति की सुरक्षा करने के लिए योग्य पहल है। वस्तुस्थिति की पूरी जानकारी के अभाव में दीवार तोड़कर मूर्ति को बाहर निकालने के लिए छेनी तो प्रायः हमारे मन में अनेक गलतफहमियाँ घर कर लेने की चलानी ही पड़ेगी। पर यह छेनी सुरक्षा के लिए चलाई गई संभावना बनी रहती है। इसके अतिरिक्त सही जानकारी के श्रद्धालुओं की छेनी है। आतंकवादियों की क्षति पहुचाने के बाद भी कभी कभी पक्षपात का भूत हमें अपनी पूर्व मिथ्या | लिए चलाई गई छेनी नहीं है। आपरेशन के लिए डाक्टर धारणाओं से मुक्त नहीं होने देता। तथापि यदि हम अपनी | | द्वारा छुरी का प्रयोग डाकू द्वारा लूटने मारने के लिए किए गए शंकाओं को नि:संकोच सार्वजनिक रूप से प्रकट करें और | छुरी के प्रयोग, का अंतर जान लीजिए। समाधान आमंत्रित कर उस पर विचार करने की परंपरा 4. मेरे विचार से कुंडलपुर क्षेत्र कमेटी ने यह डाल सकें, तो हम अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक | कभी नहीं कहा कि नए मंदिर में नई मूर्ति विराजमान होगी संगठन को बनाए रख सकेंगे। आइए हम चवरे जी के प्रश्नों | और बड़े बाबा की मूर्ति यथास्थान बनी रहेगी। ऐसे निराधार पर नीचे विचार करें
भ्रमपूर्ण समाचार प्रचारित नहीं किए जाने चाहिए। यह तो ___1. साधारणतया व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति की दृष्टि से | सर्वविदित है कि नए भूकंपरोधी मंदिर का निर्माण भूगर्भवेत्ता प्रमादवश राजाज्ञा का उल्लंघन करने की प्रेरणा वीतराग जैन | विशेषज्ञों की राय के अनुसार केवल बड़े बाबा की मूर्ति की आचार्य नहीं देते हैं। किंतु यदि सर्वथा अनुचित आधारों पर सुरक्षा के लिए ही प्रारंभ किया गया था। यदि बड़े बाबा की हमारे देवशास्त्र गुरु एवं तीर्थों पर असुरक्षा अथवा अतिक्रमण मूर्ति को पुराने स्थान पर रखा जाना उचित समझा जाता तो हो रहा हो अथवा धर्माचरण की पालना में बाधा उत्पन्न की | नए मंदिर के निर्माण का कोई औचित्य ही नहीं था। जा रही हो, तो ऐसी राजाज्ञा के विरोध में धर्म की रक्षा के 5. भाई चवरे जी की यह शंका वस्तुस्थिति की लिए अहिंसक आंदोलन का उपदेश आचार्य महोदय दे ही | जानकारी नहीं रहने से उत्पन्न हुई है। वस्तुत: बड़े बाबा की सकते हैं। प.पू. आचार्य शांतिसागर महाराज ने हरिजन- | मूर्ति और मंदिर राष्ट्रीय स्मारक के रूप में केन्द्रीय पुरातत्त्व मंदिरप्रवेश-बिल के विरोध में अनशन-आंदोलन चलाया के संरक्षण में कभी घोषित नहीं किए गए। आज तक पुरातत्त्व था। कुछ स्थानों पर दिगम्बर साधुओं के विहार के निषेध के विभाग ने सुरक्षा या देख-रेख के नाम पर एक पैसा भी खर्च विरोध में स्वयं विहार करके मार्ग खोला था।
नहीं किया। प्रारंभ से ही कुंडलपुर के मंदिरों, मूर्तियों की 2. मंदिर के जीर्ण होने और उसके गिरने के बारे में | सुरक्षा दि. जैन समाज द्वारा गठित कमेटी करती आई है। शंका करने से पूर्व यदि आपने स्वयं क्षेत्र का निरीक्षण किया बड़े बाबा के मंदिर के जीर्ण शिखर का जीर्णोद्धार श्री साहू होता, तो अच्छा होता। मंदिर के जीर्ण होने की बात केवल शांतिप्रसाद जी ने कराया था। अभी भी मूर्ति की सुरक्षा के अपने द्वारा ही नहीं कही जा रही है, अपितु स्वयं पुरातत्त्व लिए ही समाज के द्वारा नवीन विशाल भूकंपरोधी मंदिर का विभाग के अधिकारियों द्वारा अपनी निरीक्षणटिप्पणी में लिखा निर्माण कराकर उसमें मूर्ति को सुरक्षित स्थापित किया गया है कि मंदिर 80 प्रतिशत जीर्ण-शीर्ण हो रहा है। क्या मोटी | | है। यह पुरातत्त्व के नियमों के अंतर्गत है। नियमों के विपरीत दीवारें जीर्ण नहीं होती? दीवारों में अनेक स्थानों पर भूकंप कार्य नहीं किया गया है। किसी विधर्मी द्वारा द्वेषवश क्षेत्र को
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अथवा मंदिर मूर्ति को क्षति पहुँचाने में नियमों का भंग है | कर दिया। धीरे-धीरे जो मुनि वस्त्र धारण कर आरंभपरिग्रह
और उसका सर्वदा विरोध किया जाना चाहिए। आश्चर्य है | धारण करने लगे, वे भट्टारक कहलाये। वे अनेक स्थानों कि आप समझ-सोचकर सुरक्षा के लिए की गई तोड़-फोड़ | पर गद्दियाँ स्थापित कर मठाधीश बन गए। इन्होंने मंदिरों और क्षति पहुँचाने के लिए की गई तोड़-फोड़ में अंतर नहीं | की, धर्म की रक्षा भी की, किंतु धर्म की परंपरा को हानि भी कर पा रहे है। भूकंपग्रस्त मंदिर की जीर्ण दीवारों के भीतर | पहुँचाई। नग्न होकर दीक्षा लेकर पीछी कमंडल लेने के विराजमान 1500 वर्ष प्राचीन जन जन की श्रद्धा का केन्द्र | पश्चात् समाज की प्रार्थना पर वस्त्र धारण कर गद्दी पर बैठ मूर्ति की सुरक्षा महत्त्वपूर्ण है या वे जीर्ण दीवारें ? उस | | जाते। ऐसे आरंभ-परिग्रहवाले पीछी रखते हुए दिगम्बर मुनियों महत्त्वपूर्ण मूर्ति की सुरक्षा के लिए उन दीवारों को क्षति भी । | के समान अपनी विनय कराने लगे। दिगम्बर जैन धर्म के पहुँचती हो, तो भी क्या हम मूर्ति की सुरक्षा के लिए वैसा | चरणानुयोग के शास्त्रों में भट्टारकों का कोई स्थान नहीं है। नहीं करेंगे?
भट्टारकों ने श्रावकों को शास्त्रस्वाध्याय के द्वारा तत्त्वज्ञान 6. गिरनार एवं खंडगिरि-उदयगिरि में किए जा रहे | प्राप्त नहीं करने दिया और श्रावकों को सरागी देवदेवताओं अतिक्रमण अजैनों के द्वारा जैनत्व के चिन्हों के विध्वंस के | की पूजा व मंत्रतंत्र में उलझा दिया। इन भट्टारकों ने बीसपंथ लिए किए जा रहे अतिक्रमण हैं। उनका सदैव विरोध किया | की स्थापना की। उस आचरण के शैथिल्य के विरोध में जाना चाहिए। किंतु कुंडलपुर के तो पुराने जीर्णशीर्ण छोटे | स्वाध्यायशील विद्वानों द्वारा तेरहपंथ की स्थापना की गई। अँधेरे मंदिर में विराजित बड़े बाबा की अति प्राचीन अमूल्य | दोनों पंथभेदों के पक्षव्यामोह से उपर उठकर हमें वीतराग धरोहर को आने वाले सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित करने एवं | दि. जैन धर्म एवं वीतरागी देवशास्त्रगुरु पर श्रद्धा रखनी श्रद्धालु दर्शनार्थियों को सहज दर्शन उपलब्ध कराने के लिए | चाहिए। आप किस प्रमाण के आधार पर कहते हैं कि विशाल मंदिर का निर्माण और मूर्ति का वहाँ स्थानांतरण | कुंडलपुर का मंदिर बीसपंथी आम्नाय का मंदिर था। ऐसी वस्तुतः पुरातत्त्व की सुरक्षा का स्वयं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण | निराधार असत्य बातों के प्रचार से समाज में कटुता बढ़ती कार्य है।
है। कृपया समाज में पंथभेद का विद्वेष मत फैलाइए और ____7. दि. जैन समाज को अपने धर्मायतन, तीर्थक्षेत्र | ऐसी उत्तेजनात्मक बातों से समाज में अशांति उत्पन्न करने एवं मूर्तियों की दर्शनपूजा करने के लिए सुरक्षासँभाल स्वयं | का प्रयास मत कीजिए। यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियाँ जो भी ही करनी चाहिए और प्रायः समाज ऐसा ही कर भी रही है। | थीं, वे रहेंगी। मूर्तियाँ हटाने का झूठा दुष्प्रचार कर आप श्री शांतिनाथ भगवान के मंदिर को यदि पुरातत्त्व की लिस्ट | समाज का कौनसा उपकार कर रहे हैं ? से अलग कर दिया है, तो इसमें हमारा लाभ ही है हानि नहीं 9. प्राचीन मंदिरों के स्वरूप को नष्ट करना कभी है। देलवाडा के श्वेताम्बर जैन मंदिर कला की दृष्टि से भी उचित नहीं माना जा सकता। किंतु जो मंदिर जीर्णशीर्ण अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक स्मारक हैं। उनको श्वेताम्बर हो गया हो और जिसकी मरम्मत भी संभव नहीं हो वह तो समाज ने पुरातत्त्व विभाग के बजाय अपनी ही सुरक्षा व्यवस्था गिरेगा ही। यहाँ बड़े बाबा की मूर्ति की सुरक्षा के लिए मंदिर में रखा हुआ है।
की दीवारों को तोड़ना अनिवार्य था। क्या हमें उस दिन की 8. इस पैरा में लगता है, आपके मन में बैठा पक्षपात | प्रतीक्षा करना उचित था, जिस दिन मंदिर ध्वस्त होकर बडे बोल रहा है। माननीय चवरे जी! इस प्रकार पक्षविमोह के | बाबा की प्राचीन मूर्ति को नष्ट कर देता। वश निराधार बातें लिख कर समाज में क्षोभ उत्पन्न करने 10. यह कार्य मूर्ति की सुरक्षा का, तीर्थ की सुरक्षा का प्रयास मत कीजिए। आम्नाय की बातें विद्वेषवश मत | का, तथा इस कारण धर्म की रक्षा का कार्य हुआ है। जिनके कीजिए। यदि आप निष्पक्ष होकर विशुद्ध ऐतिहासिक तथ्यों मन में विद्रोह की ज्वाला धधक रही हो, वे कैसे वीतरागी की जानकारी करेंगे, तो पायेंगे कि तेरापंथ-बीसपंथ के पंथभेद | दिगम्बर मुनि या आचार्य हो सकते हैं? बारहवीं शताब्दी के बाद की उपज हैं। पहले तो दिगम्बर 11. पक्षव्यामोह के कारण एवं गलतफहमियों के जैनधर्म में वीतरागीदेव, वीतरागी दिगम्बर गुरु और वीतरागधर्म कारण आपकी लेखनी से निराधार बातें लिखी जा रही हैं। के प्ररूपक शास्त्र थे। बारहवीं शताब्दी से कुछ मुनियों में | हमें पंथ की दुहाई देकर श्रद्धालुओं को भड़काने का अनुचित शिथिलता आई और उन्होंने वस्त्र का उपयोग करना प्रारंभ | कार्य नहीं करना चाहिए। अपने-अपने मंदिरों के व्यवस्थापक
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अपने-अपने विवेक और श्रद्धा के अनुसार पूजापद्धतियों को | निर्माण का कार्य अपनी गति से चल रहा है। मध्यप्रदेश के अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं। तथापि हमारे देव-गुरु की | माननीय मुख्यमंत्री सहित अनेक अधिकारियों ने एवं समाज वीतरागता एवं दिगम्बरत्व अक्षुण्ण रहना चाहिए। उसके | के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने समय-समय पर मंदिर निर्माण का लिए भी श्रावकों में शास्त्राध्ययन की प्रवृत्ति बढ़ाने पर बल | निरीक्षण कर प्रसन्नता व्यक्त की। दिया जाना चाहिए।
माननीय चवरे जी! यह देखकर अत्यंत पीड़ा होती 12. दि. जैन आचार्यों, मुनिमहाराजों, विद्वानों एवं | है कि आप जैसे प्रबुद्ध विचारक भी नवीन मंदिरनिर्माण की प्रबुद्ध श्रावकजनों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पंथभेद | इस प्रभावक घटना को पंथभेद का जामा पहनाकर समाज के आधार पर समाज में फूट का बीजारोपण न हो। को गुमराह करने का दुष्प्रयास कर रहे हैं! मैं चुनौती पूर्वक
13. माननीय चवरे जी! कपया इतिहास एवं आगम | यह बात कहना चाहता हूँ कि प. पू. आचार्य विद्यासागर के आलोक में पहले यह निर्णय किया जाना चाहिए कि मूल | महाराज ने आज तक कभी भी अपने प्रवचनों, चर्चाओं आम्नाय क्या है और उस पर कौन प्रहार कर रहे हैं? सामाजिक | अथवा क्रियाओं में पंथभेद का समर्थन नहीं किया। ये पंथभेद सौहार्द, वात्सल्य एवं संगठन के वातावरण में इन बातों पर से ऊपर उठकर आगमपंथ के आलोक में जैनधर्म की सच्ची समताभाव से विचारविमर्श किया जा सकता है। प्रभावना करने वाले युगप्रवर्तक आचार्य हैं। उनकी
आपकी यह राय पूर्णत: सही है कि नए मंदिर के आगमानुकूल चर्या और आगमानुकूल वाणी का ही यह निर्माण की अपेक्षा पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाना | चमत्कार है कि इस उपभोक्तावादी भौतिक युग में उच्च श्रेष्ठ है। किंतु कुंडलपुर के बड़े बाबा के मंदिर की स्थिति | लौकिक शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियों ने पूज्य आचार्यश्री से सर्वथा भिन्न थी। उसके जीर्णोद्धार एवं विस्तार की अनेक | प्रभावित हो, बड़ी संख्या में संयम के सर्वोच्च पद को धारण योजनाएँ बनीं, किंतु सभी असंभव एवं अव्यवहार्य सिद्ध | किया है। आज आचार्यश्री के प्रति तेरा-बीस, दोनों पंथों के हुईं। सन् 1998 के लगभग तो भूगर्भवेत्ताओं की राय में वह | अनुयायियों की श्रद्धा केन्द्रित है। आचार्यश्री का कहना है बड़े बाबा के मंदिर के आस पास का पहाड़ी क्षेत्र भूकंप | कि पंथ में धर्म नहीं और धर्म में पंथ नहीं। प्रभावित बताया गया। अनेक भूगर्भवेत्ताओं ने लिखित राय पू. आचार्य श्री का यह निर्देश है कि हम अपने दी कि इस मंदिर के बड़े बाबा की मूर्ति असुरक्षित है और | तीर्थक्षेत्रों को पंथभेद की संकीर्णता से मुक्त रखते हुए दिगम्बर कभी भी उसे क्षति पहुँच सकती है। लंबे विचारविमर्श एवं | जैन तीर्थक्षेत्र बने रहने देवें। हमारा कुंडलपुर तीर्थक्षेत्र भी विशेषज्ञों की राय के आधार पर भूकंपरोधी विशाल मंदिर | एक दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र है। चवरे जी! तीर्थक्षेत्र पर कृपा के निर्माण का निर्णय लिया गया, जिसकी अनुमोदना दि. | कीजिए, बड़े बाबा पर कृपा कीजिए। अब तक इस तीर्थ पर जैन समाज के लक्षाधिक समुदाय की उपस्थिति में | पंथभेद के विवाद का प्रवेश नहीं हुआ है, आगे भी मत होने जनसमुदाय द्वारा, भा. दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी द्वारा एवं अ. | दीजिए। भा. दि. जैन विद्वत् परिषद् द्वारा फरवरी, 2001 में
मदनगंज-किशनगढ़ (राजस्थान) पंचकल्याणक के अवसर पर की गई। तब से निरंतर मंदिर
बोहरीबंद में श्री महावीर जयंती एवं कलश स्थापना समारोह सम्पन्न श्री दिगम्बर जैन अतिशय तीर्थ क्षेत्र बहोरीबंद जिला कटनी में संतशिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागरजी महाराज ससंघ (48 मुनि) विराजमान हैं। श्री भगवान् महावीर जयंती का भव्य विशाल आयोजन दिनांक 11 अप्रैल को किया गया। श्री जी की विमान जी में शोभायात्रा नगरभ्रमण कर वापिस पंडाल में पहुँची, जहाँ श्री जी के अभिषेक पूजन अर्चना के साथ आचार्य श्री के मांगलिक प्रवचन उपस्थित विशाल समुदाय ने सुने।
___ ग्रीष्मकालीन वाचना का कलश स्थापना समारोह इतवार दिनांक 16 अप्रैल 2006 को आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में सम्पन्न हुआ।
सुरेश चंद जैन, मंत्री
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कुंडलपुर का करिश्मा
नजीर/ओमप्रकाश ___ पुरातत्त्व-संरक्षित मंदिर से बड़े बाबा की मूर्ति को निकालकर नए मंदिर में प्रतिष्ठित करना देश में एक नई बहस खड़ी कर गया है। यह कि पुराने, प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित धर्मस्थलों, सिद्धपीठों को पुरातत्त्व के हवाले काल के गाल में समा जाने के लिए छोड़ दिया जाए या जहाँ संभव हो, वहाँ समाज को उनके परिवर्तन, परिवर्धन और विकास के अधिकार दे दिए जाए।
सत्रह जनवरी को पुराने जीर्ण-शीर्ण मंदिर से १५०० | राज्य-दर-राज्य अपने को अल्पसंख्यक घोषित कराने की साल पुरानी भगवान आदिनाथ की मूर्ति को छत हटाकर | जो कोशिशें कीं, उनके पीछे का एक तर्क यही था कि क्रेन से उठाने और उसे नए मंदिर में प्रतिष्ठित करने की | अल्पसंख्यक की सुविधा मिल जाने से उनके लिए तीर्थों से घटना को जैन समाज ने चमत्कार में बदल दिया है - 'बड़े | अतिक्रमण हटवाना और उनका विकास करना आसान हो बाबा की प्रतिमा पुष्प की तरह भारहीन होकर आकाशमार्ग | जाएगा। फिलहाल, ताकि सनद रहे, कुंडलपुर के 'ऑपरेशन से नवनिर्माणाधीन विशाल और भव्य मंदिर के उच्चासन पर | मोक्ष' की अंदरूनी और संपूर्ण कथा ध्यान में रखने लायक विराजमान हुई।' मूर्ति कोई फूल की तरह हल्की नहीं हुई, | है। आकाशमार्ग से कोई उड़कर भी नहीं गई, पर जो हुआ है, | दमोह से लगभग 35 कि.मी. दूर कुंडल के आकार वह किसी चमत्कार से कम नहीं है और केंद्र सरकार के | की पहाड़ियों के बीच कुंडलपुर में छोटे-बड़े ६४ जैन मंदिर लिए भी एक चेतावनी है कि 'तटस्थ कोई नहीं होता' और | अवस्थित हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध मंदिर, संभवतः छठी सदी जो ज्यादा तटस्थ (निष्क्रिय) होता है, उसकी साँसत हमेशा | में पहली बार बना, जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का बनी रहती है। देश की पहली, पर शायद आखिरी नहीं | है। मंदिर में लगभग 15 फुट ऊँची, 11 फुट चौड़ी, पद्मासन होगी, घटना है, जिसने पुरातत्त्व विभाग को यह सबक सिखाया | में बनी उनकी मूर्ति विराजमान रही है। परकोटे के बाहर है कि पुरा महत्त्व के पूजास्थलों के संरक्षण का अर्थ यह नहीं | अंतिम केवली श्रीधर स्वामी की निर्वाणस्थली भी है। १६५७ कि उन्हें खडहर में बदलने, नष्ट होने के लिए छोड़ दिया | में पन्ना के हिन्दुत्व संरक्षक-शिवा को सराहो 'कि सराहो जाए। जीवंत और जागृत देवस्थान, पर्यटकों और पुरातत्त्वविदों छत्रसाल को।' राजा छत्रसाल ने इसका जीर्णेद्धार कराया। के लिए तो वस्तु और वास्तु हो सकते हैं, पर आस्थावान् | १९९७-९८ में आए भूकम्प के झटके से मंदिर में दरारें पड़ समाज के लिए तो वे शक्तिस्थल हैं। इसलिए, अब नजीर | गईं। १९७६ में पहली बार दर्शन करने आए आचार्य श्री बन गई है, तो यह सवाल बार-बार उठने वाला है कि | विद्यासागर जी महाराज ने पहले ही इस सिद्धक्षेत्र को विकसित शक्ति स्थलों को काल के गर्त में समा जाने के लिए छोड़ करने के लिए चुना था। भूकम्प से मंदिर में दिया जाए या कि समाज यदि चाहे, तो उसे संरक्षण, परिवर्धन, | ने उन्हें और भी कृत-संकल्पित किया। 'पुरातत्त्व विभाग विस्तार और विकास के अधिकार दे दिए जाएँ। कान्हेरी | को पुरातत्त्व की चिंता है, हमें पूरे तत्त्व की', उन्होंने यह केव्स की विरूपित मूर्तियों, साँची के स्तूपों में पड़ रही | चिंता जताई। विचार दिया कि क्षतिग्रस्त मंदिर के गिरने पर दरारों, भोजपुर मंदिर की गिरी हुई छत (पुरातत्त्व ने छत की | मूर्ति भी क्षतिग्रस्त हो सकती है, इसलिए नया मंदिर बनाकर जगह प्लास्टिक बिछाया है) को देखकर किन आँखों में | मूर्ति उसमें प्रतिष्ठित की जानी चाहिए। भूकम्प के बाद आँसू नहीं आते। लाल किलों और राजमहलों को संरक्षित | पुरातत्त्व विभाग के सर्वे में भी यह बात आई कि मंदिर के करने और मंदिरों को संरक्षित करने में फर्क है। कोई अचरज | ७० खंभों में से १९ अपनी जगह छोड़ चुके हैं, मंदिर ८० नहीं कि प्रशासन कुंडलपुर के 'ऑपरेशन मोक्ष' से इसलिए | फीसदी जर्जर है, इसलिए या तो मूर्ति वहाँ से निकाल ली भी चिंतित है कि 100-125 कि.मी. दूर खजुराहो के मंदिरों | जाए या मंदिर को ठीक किया जाए या फिर नया मंदिर के लिए भी कहीं कोई ऐसी ही माँग न उठ जाए। केंद्र | बनाया जाए। सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहले से ही इसी से | १९१३ में पुरातत्त्व विभाग ने इन मंदिरों को संरक्षित मिलते-जुलते एक मामले में हलाकान हैं। जैन समाज ने | घोषित किया था। पर संरक्षण की हालत यह रही है - 10 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
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कुंडलपुर हिन्दुओं का भी सिद्धक्षेत्र है। अंबिकादेवी (तकरीबन | कर दी गई। ऊपर जाने के जो भी रास्ते थे, वहाँ कुल ११वीं सदी) और रुक्मिणी के भी यहाँ मंदिर हैं। लगभग ५ | मिलाकर ४० चेक पोस्ट बना दिए गए। हर एक पर मनि, साल पहले अंबिकादेवी की मर्ति चरा ली गई थी। बाद में | साध्वियाँ और श्रद्धाल औरतें-बच्चे रास्ता बंद करके खडे हो मिली तो पुरातत्त्व विभाग ने कलेक्टर से कहा कि वे संरक्षण | गए। का जिम्मा लें, तो मूर्ति फिर से मंदिर में स्थापित की जाए। पुराने मंदिर के गर्भगृह में मुश्किल से २५ लोगों के कलेक्टर ने जिम्मा लेने से मना कर दिया, तो मूर्ति तब से | खड़े होने की जगह थी। मंदिर की छत हटाने, बलुआ पत्थर ग्यारसपुर (विदिशा) के संग्रहालय में रखी है। १९१३ की | से बनी मूर्ति को छत के रास्ते बाहर निकालने के लिए पुरातत्त्व की अधिसूचना में यहाँ विष्णु मठ भी बताया गया | जयपुर की एक संगमरमर खदान में २०० लड़कों को प्रशिक्षित है, अब उसका कोई नामोनिशान नहीं है।
| किया गया था। दो बड़ी क्रेनें लाकर कटनी रखी गईं, फिर १९९९ में जैन समाज ने पुराने मंदिर की बगल में | कम प्रयुक्त रास्तों से लाकर उन्हें पहले ही पहाड़ी पर चढ़ा नया मंदिर बनाने की तैयारी की। पहाड़ी पर एक लाख पाँच | लिया गया था। सारा ऑपरेशन आईआईटी के दो इंजीनियरों हजार वर्गफुट जमीन समतल की गई। पहाड़ी रेतीली है, | की निगरानी में हो रहा था। कोई दुर्घटना हो, तो पहाड़ी पर भूकम्प का असर न हो, नया मंदिर १०००-१२०० साल | इलाज के लिए एक छोटा ऑपरेशन थिएटर भी बनाया गया सुरक्षित रहे, इसके लिए ३८७ गहरे गड्ढे खोदकर वहाँ| था। पुराने मंदिर से मूर्ति निकालेंगे तो नीचे के रक्षक देव हजारों बोरी सीमेंट डाली गई। दिल्ली में अक्षरधाम बनाने | (साँप)निकल सकते हैं (६ जोड़े निकले), उन्हें पकड़ने के वाले वास्तुशास्त्री सीबी सोमपुरा को मंदिर शिल्प की जिम्मेदारी | लिए सपेरे तक बुलाकर मौजूद रखे गए थे। सौंपी गई। पुरातत्त्व ने कभी हाँ कहा, कभी न, पर २००० | १५ की शाम पहाड़ी के नीचे २००० पुलिस मौजूद तक नींव डालने का यह काम पूरा हो गया। मंदिर निर्माण के | थी। कलेक्टर ने भोपाल से, लाठीचार्ज करके ऊपर जाने की पहले समाज की सहमति बन जाए, इसके लिए २१ से २७ | इजाजत माँगी। कहा कि मूर्ति हटा रहे हैं। उधर से पूछा कि फरवरी २००१ को कुंडलपुर महोत्सव किया गया। इस अपराध की सजा क्या है ? बताया गया -3000 रूपये महामस्तकाभिषेक का ऐसा समाँ बँधा कि देश और प्रदेश | या तीन महीने की कैद। भोपाल ने जवाब दिया कि इतने से के कई बड़े नेता भी उसमें आए। महोत्सव की सफलता ने | अपराध के लिए लाठी-चार्ज की इजाजत नहीं दी जायेगी। १०-१२ करोड़ की शुरूआती योजना को ५० करोड़ तक | पुलिस पहाड़ी घेरे रही। श्रद्धालु और मुनि उसी तरह नाकेबंदी पहुँचा दिया। मंदिर एक मंजिला से दोमंजिला प्रस्तावित | किए खड़े रहे। नीचे कुछ पता नहीं ऊपर क्या, कब, कैसे हो हुआ। २००१ से लगातार कार्य चला है। अब मंदिर ३५ फुट | | रहा है। १६ की सुबह साढ़े चार बजे ईंट-ईंट निकालकर ऊँचा बन चुका है।
पुराने मंदिर की छत हटाने का काम शुरू हुआ। १७ की पुराने मंदिर से निकालकर मूर्ति को नए मंदिर में | सवेरे मूर्ति बाहर निकाल ली गई और दोपहर बाद २ बजकर प्रतिष्ठित करने की बारी आई, तो पता तो पहले से ही था | ३६ मिनट पर नए मंदिर में प्रतिस्थापित कर दी गई। १६ को कि पुरातत्त्व विभाग इसकी इजाजत नहीं देगा, इसलिए | पुरातत्त्व विभाग जबलपुर हाईकोर्ट गया। दिन में तीन बार सावधानी से, 'ऑपरेशन मोक्ष' योजना बनाई गई। इसके | सुनवाई हुई। फिर १७ को दोपहर २ बजे के लिए टली। १७ लिए सवा पाँच करोड़ जाप के आह्वान के साथ श्रद्धालुओं को २ बजे सरकारी वकील ने बताया कि इस बीच मूर्ति को कुंडलपुर बुलाया गया। १४ जनवरी तक वहाँ तीस | स्थानांतरित हो गई है। पुरातत्त्व के वकील ने बताया कि मूर्ति हजार श्रद्धालु पहुंच गए।
स्थानांनतरित नहीं हुई है। ४.३० बजे अदालत ने आदेश प्रशासन को ५ जनवरी को इत्तला दे दी गई थी कि | पारित किया कि मूर्ति की बाबद यथास्थिति बनाए रखी समाज पुराने मंदिर से मूर्ति को नए मंदिर में स्थानांतरित | जाए। मूर्ति तो २.३६ पर नए मंदिर में प्रतिस्थापित भी की जा करना चाहता है। प्रशासन में हलचल हुई, पर वह सवा पाँच | चुकी थी। सो, अब यथास्थिति यह है कि मूर्ति नए मंदिर में करोड़ जाप के लिए वहाँ आ रहे लोगों को नहीं रोक सकता | पूजा-अर्चना के साथ विराजमान है। १९ जनवरी को उसका था। १५ जनवरी की शाम कलेक्टर ने पहाड़ी पर पुलिस | पहला महामस्तकाभिषेक भी हो चुका है। चौकी कायम करनी चाही, तो श्रद्धालुओं के रेले ने उन्हें |
(लेखक 'नई दुनिया', इंदौर के स्थानीय संपादक हैं) पहाडी से नीचे उतार दिया। पहाडी की चारों ओर से नाकेबंदी ।
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पुरावैभव के सच्चे रक्षक
डॉ. स्नेहरानी जैन, सागर समूचा भारत विश्व के सामने अपने "पुरा" वैभव | पुरातत्त्व के विषय में लोगों में बेहद भ्रामक मान्यताएँ के लिए एक विशाल "खान' है। विदेशों में प्राचीनता के | चल रही हैं। इससे भारतीय नेता और विद्वान तो ग्रसित हैं ही, नाम पर जो कुछ भी देखने में आता है, भारतीय उससे | हमारे न्यायविद् भी अंधेरे में जी रहे हैं। तब एक ही कहावत इसलिए विशेष प्रभावित नहीं दिखते कि विश्व की सबसे | याद आती है- "अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी प्राचीन 'मानव-सभ्यता' की पुरा वस्तुयें भारत में जहाँ-तहाँ | टके से खाजा।" यात्रियों को सहज ही देखने को मिल जाती है।
जिस बावरी मस्जिद को लेकर भारत में इतना तूफान जहाँ भी खुदाई होती है, कुछ न कुछ रहस्यमय | उठा कि "वह रामलला की जन्मस्थली थी" किसी नेता ने 'जिनधर्म के अवशेष' दिखाई पड़ ही जाते हैं। म्यूजियम भी एक बार भी न सोचा कि वह "राम से पूर्व ऋषभ की उन 'जैन अवशेषों' को सहेजने का स्थान नहीं बना पाते हैं | | जन्मस्थली और जैनियों का महातीर्थ है," कि अब भी वहाँ
और बागों में बिम्बों को पड़ा रख छोड़ते हैं अथवा यदि | कोनेवाली मस्जिद आज भी अपने कोने में जैन मंदिर को साधन मिला तो स्थापित करा देते हैं। कितनी ही 'जिन- रौंदे खड़ी है। जितने भी प्राचीन तीर्थ थे, मूलतः वे सब मूर्तियाँ' नदियों की रेत में दबीं, और जंगलों में खड़ी, कभी | जैनियों के ही थे। प्रथम उन्हें बौद्धों ने फिर कुछ को शंकराचार्य सड़क की खुदाई से निकली और कभी चोरों की गिरफ्त से | ने और बाद में मुगलों ने और ईसाई धर्मावलंबियों ने हथिया बचाई गई सुनने में आती हैं। उतनी ही मूर्तियाँ विदेशों में लिया। आज भी प्रजातंत्र पर कलंक बनी गुजरात सरकार ने प्राचीनता सँजोए शौकीन लोगो के ड्रॉइंग रूमों की सज्जा बनी | गिरनार की जैन टोंकों पर आतंकवादी पंडे बिठाल कर देखी जा सकती हैं।
उनके सुपुर्द करा दिया है। ये प्रजातंत्र की आड़ में गहरा सन् 1999 में मैं जर्मनी की यात्रा पर जब विशेष | कुचक्र और अन्याय है। खोज अभियान पर निकली थी, तब मैंने देखा कि हमारी ऐसा लगता है कि बड़ी सुनियोजित योजना बनाकर मूर्तियाँ मंदिरों से उठकर किस प्रकार विदेशियों के हाथ | जैन तीर्थों को हड़पने का अभियान बहुसंख्यक समुदाय की लगीं, ठीक पांडुलिपियों की तरह हमारी ही अपनी अज्ञानता | शासन-प्रणाली ने ठान लिया है। सारे ही जैनतीर्थ प्राचीन के कारण। सैलानी आए और उनके सहज ठिकानों से उन्हें होने के कारण पुरातत्त्व के कब्जे में पहले से ही कर लिए ले गए।
गए हैं, किंतु इसका यह मतलब तो कदापि नहीं होना चाहिए ईजिप्त की 'ममी' की तरह भारत के 'जिनों' ने | | कि जैनों को उनके पूजन, दर्शन और धार्मिक अधिकारों से विदेशी संग्रहालयों में अपना विशेष महत्त्व बनाया है। तिस | उनके ही तीर्थ स्थानों पर वंचित किया जावे। उनके तीर्थों के पर भी सिंधु घाटी सभ्यता की सीलों में झाँकती जिन-मुद्राएँ | मूलनायकों को विद्रूप और नष्ट कर दिया जावे, जैसा कि पुरातत्त्वज्ञों के लिए अजूबा बनी रही हैं। जितनी भी 'पुरा| गिरनार पर, केशरियाजी में, खण्डगिरि में और अंजनेरी में सामग्री' है, उतने ही भिन्न-भिन्न 'पुरा अंकन', फिर भी | किया गया है। जिसे भी उन बिम्बों को पूजना हो, अवश्य उनके अंदर से झाँकती + चतुर्गति और स्वस्तिक, चाँद | पूजें, किंतु उन क्षेत्रों का अधिकार मूल (दिगंबर) जैनों के और सूरज, बैल और दिगम्बर मुद्राएँ । मुहरों पर उकरे चित्र | हाथ में । पहचाने न जा सके। आश्चर्य है कि चक्र और पश बौद्ध | पूजा जावे। अन्यथा इस वर्तमान में चल रही अराजक स्थिति संकेत पुकारे गए, किंतु उनका अस्तित्व जैन आधार पर
| को प्रजातंत्र कहलाने का अधिकार नहीं है। नहीं समझा जा सका। बोधिगया के मंदिर के स्तूपों की तरह
बुंदेलखण्ड के क्षेत्र भी अति प्राचीन क्षेत्र हैं, जिन पर उन्हें प्राचीन तो आँका गया पर खंडित सहस्रकूटों के टुकड़े | पुरातत्त्व की 'शनिदृष्टि' पड़ी है। देवगढ़ के पुरातत्त्व को ना दिखे, जिन्हें तोड़कर बौद्ध स्तूपों की रचना की गई। सभी
खंडहर बनाकर मंदिर में पुलिस रह रही थी। वो तो अत्यंत प्रसिद्ध पुरातत्त्व हैं।
सराहनीय रहा कि पू. आचार्य विद्यासागर जी एवं बाद में मुनि श्री सुधासागर जी ने वहाँ चातुर्मास करके उस क्षेत्र को
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नवजीवन दे दिया। आहार, पपौरा भी उसी कोटि के जर्जर | थी। जिस प्रकार जेम्स फर्ग्युसन ओर जेम्स बर्गेस ने धाराशिव क्षेत्र थे, जिन्हें धर्मसेवियों ने बड़ी मेहनत और लगन से पुनः | गुफाओं को ६वीं शती का बताकर अपनी अज्ञानता का साँसें दीं।
परिचय दिया है (जबकि गुफा नं. २/३ के प्रमुख द्वार पर कुंडलपुर का तीर्थक्षेत्र पहाड़ियों पर खड़े जर्जर मंदिरों | सिंधुघाटी लिपि के तीन अक्षर बार-बार दिखते हैं) उसी में चरमराता पड़ा था। आचार्य और साधुगण तीर्थयात्रियों की | प्रकार बड़े बाबा को ५ वीं ६वीं शती का बताने वालों ने भी तरह वहाँ जाते, कुछ दिन रुकते और आगे बढ़ जाते थे। इन | अपनी बुद्धि में भ्रमविशेष का परिचय दिया है। १५०० वर्ष पिछले २८-३० वर्षों में दिगंबराचार्य विद्यासागरजी के चरण | पूर्व बड़े बाबा एक टीले में दबे पड़े थे अर्थात उस टीले से वहाँ पड़ने से और चातुर्मासों के कारण भारत के कोने-कोने | पूर्व वे किसी मंदिर में विराजित रहे होंगे ही, जो किसी से ही नहीं, विदेशों से भी भक्तों ने आकर उनसे कर्तव्य | 'प्राकृत' आपदा के कारण ढह कर टीला बन गया और बड़े प्रेरणा पाकर इस क्षेत्र की दशा सुधारी। जब भी जिस मंदिर | बाबा उसमें दब गए होंगे। उनकी प्रामाणिकता का रहस्य वे के लिए आवश्यकता लगी जीर्णोद्धार हुआ। किंतु पुराने | और उनको उस काल में पूजनेवाले कदाचित् जो उस आपदा वस्त्र में जिस प्रकार रफू और थिगड़ों की एक सीमा होती है | से बचे होंगे, वही जानते होंगे। वह टीला मोहनजोदड़ो हड़प्पा
और उसे त्याग नया वस्त्र लेना ही पड़ता है, ठीक उसी | की तरह कितने काल तक सोया पड़ा रहा, कोई कह भी प्रकार पिछले भूकंप के झटकों में सर्वप्रसिद्ध सर्वप्रिय 'बड़े | नहीं सकता था। वह तो धन्य हुआ पटेरा का वह गाड़ीवाला बाबा' के मंदिर में भी दरारें बढ़ने लगी थीं। छोटी बड़ी १३ | बाबा जिसने ठोकर खाने पर उन्हें गाड़ी पर लाकर वहीं उस दरारों से भय लगने लगा था कि कभी वह मंदिर अगले | पहाड़ी पर पलटकर देखा (किंवदन्ती), अन्यथा 'बड़ेभूकंप से धराशायी होकर पुनः अपनी १५०० वर्ष पूर्व वाली | बाबा' कहीं और होते। कहा जाता है कि वह भी उसी समय 'टीला' स्थिति में न पहुँच जाए। भक्तों का ऐसा भय | 'मर' गया। अर्थात् 'बड़े-बाबा' पर्वत पर पहुँच तो गए, किंतु 'स्वाभाविक था क्योंकि वह 'बड़े बाबा' अत्यंत अतिशयी हैं | उनका मंदिर तो बाद में समाज ने बनाया। परम्परानुसार तब और अनेक बार अपने सातिशयी होने का प्रमाण दे चुके हैं। मंदिर बन जाने पर भगवान की पूजा हेतु पंचकल्याणक हुआ
उस मंदिर का छोटा-मोटा जीर्णोद्धार तो चलता ही होगा। तब उस मूर्ति को सूर्यमंत्रित करने से पूर्व कदाचित् रहता था, किंतु १५०० वर्ष पूर्व (उसके टीला बनने के | हाथ और वक्ष कलात्मक किए गए दीखते हैं। फलस्वरूप बाद) नए मंदिरनिर्माण के बाद भी उसमें जीर्णोद्धार होने का | पैरों की स्थूलता की तुलना में हाथ दुबले, नाजुक और वक्ष वर्णन लिखित पाया गया था। उस सातिशयी प्रतिमा की | भी कलात्मक झलक दर्शाता है। चेहरा और पैर अछूते छोड़ सुरक्षा अत्यंत आवश्यक थी, परंतु वह कैसे संभव हो सकेगी, | दिए गए। यही भय सबको घेरे था। बड़े बाबा तो जहाँ जम गए, सो ध्यान से देखने पर वह 'बड़े-बाबा' आदिनाथ का कोई उन्हें हिला ना सका। फिर अब कैसे रक्षा होगी? कुण्डलपुर | बिंब है। उनके बाल धुंघराले, केशगुच्छ इथियोपियन, ठोड़ी का क्षेत्र भी तो पुरातत्त्व के संरक्षण में था। किंतु पुरातत्त्व | ईजिप्शियन, कान श्रीलंकन और दृष्टि भारतीय है । मुस्कराहट विभाग की ओर से न तो कोई रखरखाव था न ही कोई | जिनश्रमण की और मुद्रा दिगम्बरत्व में ध्यानस्थ है। फिर भी फिकर।
श्री कृष्णदेव जैसे पुरातत्त्वज्ञ ने उन्हें अनदेखा करते हुए जैन कला और स्थापत्य के प्रथम भाग के १६ वें | उनकी स्थूलता को उपेक्षित कर दिया। तीन पंक्तियों के अध्याय में एएसआई द्वारा प्रदर्शित कुंडलपुर का 'बड़े बाबा' | वर्णन और चार चित्रों में उन्होंने कुण्डलपुर का संपूर्ण वैभव वाला मूल मंदिर दर्शाया गया है, जो कभी इस प्रकार छोटा- | समेटकर अपनी पुरातत्त्वीय जिम्मेदारियों का निर्वाह कर
बाद में इसे वर्तमान रूप दिया गया होगा। उस छोटे- | दिया। खंडहर बन वह 'बडे-बाबा' का मंदिर और सातिशयी से मंदिर में अनेक मूर्तियों को दीवालों में जड़ा गया था, | 'बड़े-बाबा' समाज की ओर निहारते किसी भूकंप अथवा । जिसके ३ चित्र श्री नीरज जैन ने कुंडलपुर संबंधी दर्शाए हैं। | किसी उद्धारक की राह देख रहे थे। उस समय तक 'बड़े बाबा' को किसी ने विशेष महत्ता नहीं | आचार्य विद्यासागर जी के चातुर्मास से दिगम्बर समाज दी थी। श्री कृष्णदेव ने बड़े बाबा-संबंधी मात्र तीन लकीरें | को साहस मिला और उसमें विचारविमर्श हुआ। भारत का लिखीं थीं। उन्होंने बड़े हिचकते हुए मात्र साधारण सूचना दी | विशाल दिगम्बर तेरहपंथी समाज मूर्ति की सुरक्षा हेतु उसे
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वहाँ से सुरक्षित नए आयतन में विराजे जाने का पक्षधर था। | करके सुरक्षित कर लेगा अथवा खण्डगिरि के पार्श्वनाथ की किंतु 'खर्च' समस्या था। जन-जन ने उसमें योगदान देकर | तरह अंगिया-फरिया पहनवा कर पंडों का आवास बनवा प्रथम सिंहद्वार के निर्माण द्वारा उस पहाड़ी पर विशाल मंदिर | देगा अथवा कोलुहा के पार्श्वनाथ की तरह उन्हें भैरव घोषित के निर्माण और वजन लेने की क्षमता निर्मित की। जिन | करके उन पर बकरों की बलि दिलवाएगा। वोटनीति से व्यक्तियों का मन पूछे न जाने के कारण आहत हुआ, आर्थिक | ग्रसित सरकारें पता नहीं कैसे करवटें बदलेंगी। तपस्वियों के सहयोग की तो बातें दूर, मीनमेख निकालते हुए उन्होंने | तप से बड़े बाबा प्रसन्न हो उठे।और "सपना' साकार पहले तो यही शंका दर्शाई कि जो मूर्ति अपने अतिशय से | हुआ। लाखों भक्तों की पुकार के आगे गिने चुने लोकैषणाग्रस्त पूर्व में स्थान पकड़ कर बैठ गई, वह भला अब कैसे हटेगी | विरोधियों की सारी चालों को नकारती बड़े बाबा की मूर्ति ? कई गंभीर संकट उपजे, किंतु संपूर्ण समाज को संतों की अपने संपूर्ण वैभव के साथ अपने नए आसन पर खुले प्रांगण तपस्या के तेज का पता था। पत्थर के देवता, तीर्थंकर सम में विराजित हो गई। मैंने सुना तो भागकर, जाकर देखा, तपस्वी के आगे भला कैसे हठ रखते ? सब आश्चर्यचकित मुस्कुराते बड़े बाबा अपने आसन पर खुले, बिना किसी
थे कि 'वह मूर्ति कैसे अपना स्थान बदलेगी ?' पैसा बरस सहारे के बैठे उसी तप की उद्घोषणा कर रहे हैं, जो उन्होंने रहा था भक्तों की ओर से और मंदिरनिर्माण की सामग्री जुट कर्म युग के आरंभ में की थी। भक्तों का ताँता नहीं टूट रहा रही थी। फिर भी एक विरोधीदल बन गया। प्रथम तो था। दिनरात भक्त उनकी छाँव में बैठे पूजन भक्ति कर रहे "अतिशय के नष्ट होने की दुहाई देता" फिर "मंदिर के | थे। ५८ दीक्षार्थिनियों ने उनके चरणों में दीक्षा ली और उनके पुरातत्त्व की दुहाई देता।" सिंह द्वार बन गया, तो खर्च की | इंगित पथ पर बढ़ गयीं। सातिशयी भगवान् का अतिशय था गई राशि भी बातों का विषय बन गई। कुछ काल बाद | कि कहीं खरोंच भी उन पर न लगी, फिर भी दुराग्रही कानूनन रोक लगाने की धमकी भी पर्चों द्वारा सुनने में आई। अखबारों में भ्रामक प्रचार छाप कर शांत वातावरण में विघ्न
उस समय मैं अपने रोग की गंभीरता से जीवन और | डालने की कुटिलता करते रहे। उनका पूर्वाग्रह था कि २५० मौत के बीच जूझ रही थी। मैंने भी इसी भावना से चाहा था | वर्ष प्राचीन पुरातत्त्व को नष्ट कर दिया गया है। अज्ञानियों कि 'बड़े-बाबा' अपने सुरक्षित आयतन में पहुँचकर भक्तों | को २५० वर्ष प्राचीन खण्डहर, सैंधवयुगीन बड़े बाबा के को दर्शन दें। अत: अपनी बीमारी का हवाला देते हुए विरोधियों | पुरातत्त्व से अधिक कीमती लग रहा था। स्वयं को वकील से प्रार्थना की कि वे बाधा न डालकर 'बड़े-बाबा' की और पुरातत्त्वज्ञ समझनेवाले वे यह भी नहीं समझे कि वे सुरक्षा में सहयोग करें, ताकि मंदिर का निर्माण हो। 'बड़े- | कितना गलत और धर्मविरोधी कार्य कर रहे हैं कि जर्जर बाबा' अपना वहाँ नया आसन ले लें और मुझ जैसे मरणासन्न | मंदिर की सुरक्षा चाहते हैं। भक्त उन्हें पूजकर, दर्शन करके उनके अतिशय का लाभ पा सही है एक सीमा तक तो हम अपने पुराने वस्त्र सकें। मैं 'बड़े-बाबा' से भी प्रार्थना करती थी कि "प्रभु | सहेज सकते हैं, सिल सकते हैं, थिगड़े लगा सकते हैं, किंतु अपना अतिशय दिखाओ और उड़कर अपने नए स्थान पर | अंतत: हम नये कपड़े सिलवाते ही हैं। उस जर्जर मंदिर को जा विराजो।"
जिसमें ३ बार जीर्णोद्धार हो चुका और जो १३ दरारें सहेजे मैं कुण्डलपुर जाकर गुरुचरणों में रहने लगी। आश्चर्य | जर्जर हो चुका था, धाराशिव गुफाओं की तरह कितना सहेजेंगे। है कि धीरे-धीरे मुझमें ताकत आ गई और मैं सहज ही | हमें नया आयतन बनाना आवश्यक था। कार्य में बाधा 'बड़े-बाबा' के दर्शन करने रोज ऊपर पर्वत पर पैदल जाने डालकर जिस-जिस भी विघ्नकारी ने बड़े बाबा के मंदिर लगी।
को बनने से रोका है, जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार उसने फिर भी उम्मीदें लगाए ६ वर्ष बीत गए। लगता था | स्वयं के अनेक भवों के लिए छप्पर खोया है। कितने ही कि जाने कब तक हमें प्रतीक्षा करनी होगी कि बड़े बाबा | सल्लेखी उन बड़े-बाबा के चरणों में पहुँचकर अपनी अंतिम अपने उस जर्जर खण्हर से उड़कर बाहर आएँगे। आएँगे भी | | साँसें सार्थक कर रहे हैं। मैंने उनके दर्शन करके स्वयं को कि वहीं धरती में छुप जाएँगे, १५०० वर्ष पूर्व की भाँति। | धन्य पाया। धन्य हैं वे सब, जिन्होंने 'बड़े-बाबा' के इस संभवतः तब पुरातत्त्व विभाग उन्हें किन्हीं तालिबानी पंडों | पूर्व-ऋग्वैदिक पुरालिपि अंकित बिंब की सुरक्षार्थ नया को सौंप गिरनार की भाँति जैनों से छीन दत्तात्रेय घोषित | आयतन बनाकर, बनवाकर, अनुमोदना कर हमारी इस
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गौरवशाली निधि को जर्जर खंडित मंदिर से उबार लिया। उस मंदिर का मलबा ही बतलाता है कि एक ही पत्थर की मार 'बड़े बाबा' की काय शिला को नष्ट करने में सक्षम थी। ईंटों से बने मंदिर से कदाचित् ऐसा संभव ना होता, किंतु लातूरी पत्थरों से चूने की दरार खाई चुनाई एक भूकंप के धक्के को नहीं झेल पाती।
बड़े बाबा पर अंकित अक्षर दर्शाते हैं कि शाकाहार स्वीकारी एक छत्रधारी (राजा) ने जिनवाणी सुनकर 'बड़े बाबा' के दर्शन किए और भवचक्र से पार उतरने वैभव को त्यागकर महाव्रत की पीछी लेने इच्छानिरोध का पुरुषार्थ किया और मुनिसंघ के चरणों में पहुँच वैराग्य धारा । पुनः आगे चार शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु उसने पंचपरमेष्ठी की शरण ली और शिखर पर्वत के ऊपर जा विराजा ।
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इतना ही नहीं बड़े बाबा की ही तरह उद्घोषणा करती मुझे तीन जिनमूर्तियाँ मुक्तागिरि में, एक हैदराबाद तथा एक पटना में मिली हैं।
वे सब पद्मासनस्थ जिन हैं। पाषाण में हैं और सिंधुलिपि उनके पैरों पर अंकित हैं। मात्र एक के पादपीठ पर भाला
जम्बूद्वीप संबंध भरत क्षेत्र के मलय नामक देश में भद्रपुर (भद्दलपुर) नगर के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा दृढ़रथ राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुनन्दा था । माघकृष्ण द्वादशी के दिन माता सुनन्दा ने आरण स्वर्ग के इन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् पुष्पदन्त के मोक्ष चले जाने के बाद नौ करोड़ सागर का अन्तर बीत जाने पर भगवान् शीतलनाथ का जन्म हुआ। उनकी आयु भी इसी में सम्मिलित थी । उनके जन्म लेने के पहले पल्य के चौथाई भाग तक चतुर्विध संघ रूप धर्म संतति का विच्छेद रहा था । भगवान् के शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी, आयु एक लाख पूर्व की थी और शरीर नब्बे धनुष ऊँचा था । जब आयु के चतुर्थभाग के प्रमाण कुमारकाल व्यतीत हो गया तब उन्होंने अपने पिता का पद प्राप्त कर भली-भाँति प्रजा का पालन किया । भगवान् शीतलनाथ किसी समय वनविहार के लिए गये। वहाँ उन्होंने देखा कि पाले का समूह जो क्षण भर पहले समस्त पदार्थों को ढके हुए था शीघ्र ही नष्ट हो गया है। प्रकृति का यह परिवर्तन देखकर उन्हें आत्मज्ञान हो गया। संसार से विरक्त होकर उन्होंने माघकृष्ण
बना है, जो इच्छानिरोधी स्वसंयम का सैंधव प्रतीक है। इनके विषय में सचित्र जानकारी अगले पत्र में दूँगी। उससे पहले उन्हें पेपर के रूप में इतिहास कांफ्रेंस में प्रस्तुत करूँगी । पुरातत्त्व हमारी पूज्य मूर्तियों में है, मंदिरों में नहीं, क्योंकि उनका जीर्णोद्धार होता आया है । गुफाओं का जीर्णोद्धार मूल गुफा सहेज सके, उतना श्रेयस्कर है। जब 'बिम्ब' ही क्षरण हो रहे हों, तब उनकी सुरक्षा बावनगजा और देवगढ़ की खंडित मूर्तियों के जीर्णोद्धार की तरह की जाना भी श्रेयस्कर है। हमारे पुराप्रेमियों को चाहिए कि अपनी शक्ति का सदुपयोग बड़े बाबा की जगह गिरनार की मूर्तियों और खण्डगिरि की मूर्तियों की सुरक्षा में करें, कोलुहा के पार्श्वनाथ और केशरिया जी के काले बाबा के लिए करें। वहाँ अपनी उपस्थिति लाखों में दिखलाएँ और जन-जन को उनकी सुरक्षा में प्रेरित करें। बड़े बाबा खंडहर से उबर चुके हैं, अब मंदिर की पूर्णता में तन-मन-धन से संपूर्ण सहयोग करें । व्यर्थ ही अपने पूर्वाग्रह में न धँसे रहें। अपनी गलती को सुधारकर सच्चे जिनभक्त बनें, 'मानभक्त' नहीं ।
'जैन गजट' 9 मार्च 2006 से साभार
भगवान् शीतलनाथ जी
द्वादशी के दिन सायंकाल के समय सहेतुक वन में बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया। पारणा के दिन भगवान् अरिष्ट नगर में प्रविष्ट हुए। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले पुनर्वसु राजा ने उन्हें खीर का आहार देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था के तीन वर्ष बिताकर वे मुनिराज एक दिन बिल्व वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर विराजमान हुए। ध्यान की विशुद्धि बढने से पौषकृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय उन भगवान् ने घातिया कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें एक लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकायें, दो लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । अनेक देशों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए वे भगवान् सम्मेदशिखर पर पहुँचे। वहाँ एक माह का योग-निरोध कर उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया तथा एक हजार मुनियों के साथ आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन सायंकाल के समय अघातिया कर्मों का क्षयकर मोक्ष प्राप्त किया।
मुनि श्री समता सागरकृत 'शलाका पुरुष' से साभार
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कुण्डलपुर के बडे बाबा का मूल स्थान यह नहीं है, न मूलवेदी और न मूलनायक-प्रतिमा
ब्र. अमरचंद जैन दिगम्बरपरम्परा में तीर्थंकर आदि के चरित्र के तथ्यों । 'इति ह आस' अर्थात् 'ऐसी बात हुई थी', इस प्रकार श्रुति का प्राचीन संकलन हमें प्राकृत भाषा के 'तिलोयपण्णति' | का वचन होने से उसे इतिहास कहना भी इष्ट है । इसे ग्रन्थ में मिलता है। ईस्वी संवत् से कई शताब्दी पूर्व | आम्नाय कहने की भी प्रथा है । अतः जो इतिहास है, वह भारतवासियों की जनभाषा प्राकृतभाषा रही है। उस समय | श्रुतपरम्परा से वर्णित है। जैनआम्नाय में ये गुरुशिष्यपरम्परा जैनाचार्यों की तत्त्वदेशना प्राकृत में ही हुआ करती थी ।। | से चलते रहे हैं। उन्हीं के पश्चात् जैनपुराण रचे गये। उनमें आगमग्रन्थ इसी प्राकृतभाषा में लिखे गये हैं
ईसापूर्व ५२७ में अंतिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण तक मनुष्य के विभिन्न अनुभवों में सबसे अधिक | त्रेसठ शलाकापुरुषों का विवरण दिया गया है, इतिहासकाल प्रभावशाली उन पुरुषों के चरित्र सिद्ध हुए हैं, जिन्होंने | से वैदिक एवं श्रमण परंपराएँ क्षेत्र व काल की दृष्टि से लोककल्याण का कुछ विशेष कार्य किया, चाहे वह संकट | | साथ-साथ विकसित होती आई हैं। से मुक्तिसंबंधी हो या भौतिक या आध्यात्मिक उत्कर्ष के | . आइये, अब हम अपने विषय की परिपुष्टि के लिए रूप में। राष्ट्र के कुछ महापुरुषों के चरित्र, क्षेत्र एवं काल की | उपर्युक्त संदर्भ में हरिवंशकथा का उल्लेख करते हैं। सीमा को पार कर व्यापकरूप से लोकरुचि के विषय बन | हरिवंशपुराण (स्व. डॉ. पन्नालाल जी द्वारा अनुवादितगये हैं। राम और कष्ण के चरित्र इसी प्रकार के हैं। प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ) के पष्ठ नं ५०९ पर वर्णन है वैदिकपरम्परा में रामायण-महाभारत विविध साहित्यिक | कि सत्यभामा के व्यवहार से कपित होकर नारद आकाशमार्ग धाराओं के स्रोत सिद्ध हुए हैं, वैसे ही जैन साहित्य में | से उस कुण्डिनपुर जा पहुँचे, जहाँ शत्रुओं के लिए भयंकर पद्मपुराण या पद्मचरित्र और हरिवंशपुराण या अरिष्टनेमिचरित्र | महाकुलीन राजा भीष्म रहते थे। उनकी नीति और पौरुष को भी सिद्ध हए हैं। हमारा प्रयोजन विशेषतः हरिवंशसंबंधी | पृष्ट करने वाला रुक्मी नाम का पत्र था एवं कला और गुणों कथानक से है।
में निपुण रुक्मिणी नाम की शुभ कन्या थी। अवधिज्ञान के जैनहरिवंशपुराण में यादवकुल और उसमें उत्पन्न | धारक अतिमुक्तक मुनि ने रुक्मिणि को देखकर कहा था - हुए दो शलाकापुरुषों का चरित्र विशेषरूप से वर्णित हुआ है। | "कृष्ण के अंत:पुर में सोलह हजार रानियाँ होंगी। उन सब एक बाईसवें तीर्थंकर नेमीनाथ और दूसरे नवें नारायण कृष्ण, | में यह प्रभुत्व को प्राप्त होगी, उन सब में प्रधान बनेगी।" ये दोनो चचेरे भाई थे । एक ने अपने विवाह के अवसर पर | (पृष्ठ ५०८) निमित्त पाकर संन्यास ले लिया और दूसरे ने कौरवपांडवयुद्ध जैन और हिन्दू पुराणों के अनुसार रुक्मिणी के भाई में अपना बल-कौशल दिखाया । एक ने आध्यात्मिक उत्कर्ष | राजकुमार रुक्म ने अपनी बहिन का विवाहसम्बन्ध चेदिका आदर्श उपस्थित किया और दूसरे ने भौतिक लीला का। नरेश शिशुपाल से तय कर दिया था। अपने अपमान का एक ने निवृत्ति-परायणता का मार्ग प्रशस्त किया और दूसरे | बदला लेने नारद ने श्री कृष्ण को रुक्मिणी के चित्र द्वारा ने प्रवृत्ति का। इसी प्रसंग में हरिवंशपुराण में महाभारत का | उसके प्रति मोहित कर दिया एवं कृष्ण ने स्वयं रुक्मिणी कथानक सम्मिलित पाया जाता है। हरिवंशपुराण के रचयिता | को वरण करने की ठान ली। रुक्मिणी ने कृष्ण के चित्र को आचार्य जिनसेन पुन्नाट संघ (पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन | देखकर अपने मन में कृष्ण को प्रियतम के रूप में विराजमान नाम था) के थे । इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण था। उन्होंने | कर लिया। पत्र द्वारा रुक्मिणि ने कृष्ण जी को द्वारका संदेश यह रचना शकसंवत् ७०५ (वि. सं. ८४०) में समाप्त की | भेजकर बुलाया। कृष्ण चेदिनरेश शिशुपाल के साथ विवाह थी। उस पुरानी बात को पुराण कहते हैं, जो महापुरुषों के | की तिथि पर कुण्डलपुर के उद्यान में उपस्थित होकर पूर्व विषय में कही जाती है या महान् आचार्यों द्वारा उपदेश के | निश्चित स्थान से रुक्मिणि को हरकर ले गये और गिरनार रूप में बतलायी जाती है अथवा महाकल्याण का अनुशासन | पर्वत पर विवाह सम्पन्न किया तथा रास्ते में जाते समय करती है। ऋषिप्रणीत होने से पुराण "आर्ष" कहलात पाल की सेना पर विजय प्राप्त कर निश्चिन्त हए। यही 16/ अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
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कथानक जैन व हिन्दू पुराणों में मूलतः मिलता है।| उपयोग में लिया था। (श्रीमद्भागवत/सुखसागर बाबनवाँ अध्याय/रुक्मिणि पेज नं. गर्वनमेण्ट गजट के अनुसार मंदिर के परिसर में एक ७०३ से ७१३)।
ऊँचे चबूतरे पर लगभग 0.152 मीटर लम्बे तथा छतरी से भीष्म को विदर्भ देश का राजा.कहा गया है। अतः | ढंके हये दो पद चिन्ह हैं। चबतरे के अधोभाग से प्राप्त कुण्डनपुर ग्राम विदर्भ में होना बताया गया है, किन्तु हरिवंश | कुण्डलगिरि के श्रीधरस्वामी के शिलालेख से इस विश्वास पुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि कुण्डनपुर में राजा भीष्म रहते | को बल प्राप्त हुआ है कि श्रीधरकेवली जो अंतिम अननुबुद्ध थे। (आदिपुराण प्रथम भाग (ज्ञानपीठ प्रकाशन) पेज नं ५ | केवली थे, ईसापूर्व पाँचवी शताब्दी में हुए थे, उन्हें कुण्डलपुर प्रस्तावना)। विदर्भ का आधुनिक नाम बरार है। इसकी | मूलतः कुण्डलगिरी में निर्वाण प्राप्त हुआ था। इस तथ्य का प्राचीन राजधानी विदर्भपुर (वीदर) अथवा कुंडिनपुर थी। उल्लेख कि श्रीधर स्वामी को कुण्डलगिरि में निर्वाण प्राप्त चेदिनरेश की राजधानी चंदेरी (बुंदेलखंड) में थी। राजनीतिक हुआ,यति-वृषभ द्वारा रचित प्राचीन प्राकृत ग्रंथ तिलोयपण्णत्ती दृष्टिकोण से राजधानियाँ समय-समय पर बदलती रहती | में मिलता है। हैं। इस बात का क्या प्रमाण है कि विदर्भ में रुक्मिणी का | कुण्डलगिरी के निर्वाण क्षेत्र होने का उल्लेख ईसाजन्म हुआ था और वहीं विवाह भी ? राजधानियाँ बदलना | पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी के स्वामी पूज्यपाद द्वारा कोई नई बात नहीं थीं। अतः रुक्मिणीहरण कुण्डनपुर दमोह | रचित दशभक्ति तथा प्राकृत निव्यूहकन्दम में मिलता है। या कुण्डलगिरी पर्वत की तलहटी स्थित रुक्मिणीमठ से | यदि हमारा कुण्डलपुर ही प्राचीन कुण्डलगिरि है, तो यह हुआ था, ऐसी मेरी मान्यता साधार है। ऐसा भी लिखा गया है | जैनियों का एक सर्वाधिक प्राचीन तथा पवित्र निर्वाण क्षेत्रों में कि राजा भीष्म कुंडिनपुर में प्रजा का पालन करते थे। से एक है। उक्त गजट के अनुसार भी कुण्डलपुर में भौतिक दृष्टि से चंदेरी और विदर्भ में कथित कुण्डिनपुर में | श्रीधरकेवली के चरण चिन्ह/छतरी ईसापूर्व पाँचवी शताब्दी बहुत दूरी है। अतः रुक्मिणी के भाई रुक्मि ने सशक्त चेदिनरेश की है। भगवान महावीर के निर्वाण के १०० वर्ष के भीतर से अपने मधुर संबंध स्थापित करने के लिये बहिन रुक्मिणी श्रीधरकेवली को निर्वाण प्राप्त हुआ था, सो यह हमारे ग्रंथों का संबंध यहाँ निश्चित किया था, जो बुंदेलखंड में ही था- | से भी प्रमाणित है। अतः आधुनिक यही ग्राम कुण्डलपुर-श्रीधर केवली की | आइये, अब हम "बड़े बाबा" की मूर्ति की प्राचीनता निर्वाण कुण्डलगिरी-इसके पास रुक्मिणीमठ तथा ४ की बात करें। भगवान नेमीनाथ के काल में महाभारत के किलोमीटर दूर वर्रट पुराना नाम विराटनगर में तथा आसपास | प्रमुख श्री श्रीकृष्ण की कथा, रुक्मिणी के हरण का विस्तृत कँवरपुर - रनेह आदि जो सम्पन्न तथा विशाल विराटनगर | वृतांत, जैन पुराणों एवं वैष्णवपुराणों में मिलता है। अतः की सीमा थे। जहाँ बड़े-बड़े विशाल जैन मंदिर थे, जिनके घटनाओं के अनुसार रुक्मिणि का जन्म विराटनगर (आधुनिक अवशेष एवं मूर्तियाँ आज भी पाई जाती हैं। (देखिये नाम वर्राट, जो कुण्डलगिरी से 4 कि.मी. है) में हुआ था, न प्राचीनतीर्थ जीर्णोद्धार पत्रिका मार्च-अप्रैल २००४ पेज नं. | कि विदर्भ में । तथा रुक्मिणिमठ/मंदिर कुण्डगिरि की तलहटी ३१)। ग्राम रनेह में तीर्थंकरों की पाषाण प्रतिमाएँ सुरक्षा के | तथा विराटनगर के उद्यान में स्थित है, जहाँ से रुक्मिणि का अभाव में यत्र-तत्र पड़ी हैं। (देखिये गवर्नमेंट गजट आफ हरण हुआ था। ये मंदिर उद्यान में स्थित थे, जहाँ से कुण्डलगिरि इंडिया - म. प्र. दमोह जिला)। बड़े बाबा की मूर्ति बहुत | | के भी ध्वस्त मंदिर के शिल्पावशेष और मूर्तियाँ आई थीं। पहिले वर्राट के जीर्ण शीर्ण जैन मंदिर से यहाँ लाई गयी थी। | गजट के अनुसार इस मंदिर के परिसर के कुंवरपुर ग्राम से खण्डहर हो गये मंदिरों से प्रतिमाएँ लाई गयी थीं। इस बात | लाई गई 3 विशालकाय जैन प्रतिमाएँ रखी हुई हैं। इसके के आज भी पर्याप्त प्रमाण हैं कि न केवल बड़े बाबा की | निकट स्थित रुक्मिणिमठ तथा वर्राट आदि स्थानों में भी मूर्ति, बल्कि पार्श्वनाथ भगवान् की दोनों मूर्तियाँ एवं गर्भगृह | कुछ जैन मंदिर हैं, जो अब पूरी तरह खण्डहर हो चुके हैं। में चिपकाई गयी, शिलाओं पर उकेरी तीर्थंकरों की मूर्ति, | इन स्थानों की सुन्दर प्राचीन प्रतिमाएं काफी अरसे पहिले शिल्पावशेष-स्तंभ, सब इन्हीं उपनगरों से लाये गये तथा | वहाँ से लाकर कुण्डलपुर के मंदिर में प्रतिष्ठित कर दी गई मंदिरों के निर्माण कार्य में उपयोग किये गये। ध्वस्त मंदिरों
र्तियाँ जो 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और उनके के अवशेष इतनी अधिक मात्रा में बिखरे पड़े थे कि ठेकेदारों | यक्ष तथा यक्षणी आदि की हैं, अभी भी रुक्मिणिमठ में ही ने इन्हीं शिल्पाशेषों को गिट्टी बनाकर सड़क बनाने के | हैं। यह कहा जाता है कि ऋषभनाथ की प्रतिमा भी बहुत
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पहिले वर्राट के जीर्ण-शीर्ण जैन मंदिर से यहाँ लाई गई थीं। नीचे तलहटी के मंदिरों में भी मूर्तियाँ समोशरण (चौमुखी) (रुक्मिणीमठ पुरातत्त्व विभाग से संरक्षित है, पर वहाँ से | पधराई गयीं। सैकड़ों स्तंभ तथा अन्य शिलाएँ अभी भी पड़ी मूर्तियाँ चोरी चली गईं)।
हैं, तथा काम में लायी गयी हैं। यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि आज हम | इसके अतिरिक्त तलहटी में वैष्णवमंदिर में (सपाट पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों तथा सरकारी गजटों | छतवाला रुक्मिणीमठ जैसा, ऐसा ही सपाट छत का मंदिर का उल्लेख कर इतिहाप्रसिद्ध घटनाओं की सच्चाई कहते हैं, नोहटा में भी है, वहाँ भी जैन मूर्तियाँ तथा मंदिर के अवशेष प्रमाणित मानते हैं। यह भी सच है कि इन रिपोर्टों का तथा | पाये गये हैं, यह एक शोध का विषय है) भगवान आदिनाथ गजटों में प्रकाशित तथ्यों का आधार (जैसा कि ऊपर कहा | | की यक्षिणी अम्बिका की प्राय 4' की सुन्दर मूर्ति वहाँ गया है), हमारे जैनग्रंथ हैं, जनश्रुतियाँ हैं, जो प्रकारांतर से | स्थापित कर पूजी जा रही है/थी। अभी हाल में पुरातत्त्व श्रुतपरम्परा से जुड़ी हैं।
विभाग द्वारा संरक्षित इस तलहटी के मंदिर से यह मूर्ति चोरी ___अपने अतीत को श्रवण और स्मरण के आधार पर | चली गई थी, यह सतर्कता व सुरक्षण दिया हमारे पुरातत्त्व याद रखते आने की परम्परा प्रायः विश्व के प्रत्येक सभ्य | विभाग ने मंदिरों को? । कहे जाने वाले देश में रही है। भारतवर्ष में भी इन आख्यानों और भी जैसा कि गजट में उल्लेख है कि का विपुल भंडार है, जिसे एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को धरोहर | | रुक्मिणिमठ से भी मूर्तियाँ, शिला एवं यक्ष-यक्षिणी की के रूप में सौंपती रही है। इसी कड़ी में "पटेरा के ग्रामीण | प्रतिमाएँ चोरी चली गई हैं, वहाँ अब पत्थर के ढेर मात्र बचे व्यापारी को सपना आना तथा बैलगाड़ी द्वारा बड़े बाबा की | हैं, यह हालात है पुरातत्त्व के संरक्षित स्थानों का। कौन मूर्ति को पटेरा ले जाना, पर्वत पर एक स्थान पर ठहर जाना" | अधर्मी होगा जो मंदिरों, मूर्तियों को इनके संरक्षण में छोड़ेगा, ऐसी भारतवर्ष में अनेकानेक घटनाएँ है, चाँदखेड़ी की | अपने पूज्य भगवान को इन्हें सौंप, निश्चित हो सो सकेगा। इतिहास प्रसिद्ध घटना, आदिनाथ भगवान का जंगल से आकर | हमने हजारों वर्षों से इनकी पूजा की है, रक्षित किया, जीर्णोद्धार (बैलगाड़ी में) रूपाली नदी के तट पर ठहर जाना और वहीं | किया, स्थानान्तर किया, नवीन निर्माण किया है एवं उनकी मंदिर बनाना जहाँ कभी चन्द्रप्रभु भगवान का ध्वस्त मंदिर | पूज्यता अक्षुण्ण रखने के लिए आज भी हम कटिबद्ध हैं। था। तथा वे तथ्य भी घटनानुसार हमारे सामने हैं, अतः इससे | इसलिए कि वे हमारी आस्था के प्रतीक हैं, पूज्य हैं, हमारे कभी इन्कार नहीं किया जा सकता कि "बड़े बाबा" अन्यत्र | जीवन से भी मूल्यवान हैं। अतः हम क्या नौकरशाही से से आकर (वर्राट) उसके आसपास-रुक्मिणीमठ, कुँवरपुर, | प्रणीत पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण को स्वीकार करके ये रनेह आदि स्थानों में तथा मंदिर में आकर स्थापित हुए थे। अनर्थ देखते रहेंगे? कभी नहीं। हमें अपने धर्मस्थानों का यह प्रथम स्थानान्तर बड़े बाबा का कुण्डलगिरि पर था। । पूज्य भगवंतों की पूजा-वंदना करने का मौलिक अधिकार
_मंदिर की संरचना तथा अब जब बड़े बाबा के | है, इसमें किसी का दखल वांछनीय नही हैं, भले हम सुरक्षित सुदृढ़ मंदिर में दूसरे स्थानांतर के बाद यह सच भी | | अल्पसंख्यक हैं, पर हम अपनी पहिचान अपनी आस्था के सामने आया है कि "बड़े बाबा एक पत्थर की शिला में | केन्द्रों को सुरक्षा-प्रबंध एवं स्थायित्व प्रदान करने में सक्षम उत्कीर्ण हैं" शासन देव-देवियाँ तथा इन्द्रादि अलग-अलग हैं। चाहे जो भी शासन रहा हो, यह हमारा इतिहास है। शिलाओं में उत्कीर्ण हैं तथा यथास्थान दीवाल पर चिपकाये | वर्तमान में यही सत्य है और भविष्य में भी यही सच्चाई गये हैं, सिंहासन के चार भाग (दो नहीं है) हैं। पार्श्वनाथ | रहेगी। भगवान की दोनों तरफ की मूर्तियाँ भी अलग पाषाण खंडों बड़े बाबा की मूर्ति की प्राचीनता में अब संदेह में उत्कीर्ण होकर बड़े बाबा के दाएँ बाएँ और दीवालों पर | | नहीं, इसका काल निश्चित ही ईसापूर्व पाँचवी-छठवीं शताब्दी चिपकाई गयी थीं। तथा अन्य 3 तरफ की दीवालों पर भी | है। श्रीधर केवली के चरण-चिन्हों की छतरी के पास मूर्ति शिलाओं पर उत्कीर्ण तीर्थंकर प्रतिमाएँ, जहाँ जितना स्थान का ठहरना पाँचवीं शती ईसापूर्व का संकेत करती है, क्योंकि मिला बाहर से लाकर चिपका दी गई। इतनी मूर्तियाँ और वह विराटनगरादि के ध्वस्त मंदिर से कुण्डलगिरी जाने शिल्पावशेष आसपास के जैन मंदिरों के खण्डहरों से लाये | बैलगाड़ी पर स्वप्न के अनुसार आई थी, अतः पार्श्वनाथ गये थे जो ऊपर पर्वत के अन्य मंदिरों में रखे गये थे तथा | भगवान के समय या उनके पूर्व की प्रतिमा है। यह ध्वस्त
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मंदिर, टीला के रूप में कुण्डलगिरि पर न मालूम कब से | में सैकड़ों साल से रह रहा हूँ, अब वह जर्जर हो गया है, अब तक स्थित था, पर इतिहास के माध्यम से 300 वर्ष पूर्व | किसी भी समय गिर सकता है, तो मैं अपना जीवन बचाने का कथानक ही हमारा प्रत्यक्ष सूत्र है, जब नेमिचंद्र ब्रह्मचारी | उस घर को छोड़ दूँ, या उसमें रहा आऊँ ? हमारे निवास एवं ने इसका उद्धार कराया तथा छत्रसाल ने अपनी मनौती के | सुरक्षा हेतु बनाया मकान हमसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण या कीमती तहत मंदिर एवं तालाब का पुनः निर्माणादि कराया था और | है? यह विचार करें। पाँच छह साल से बड़े बाबा मात्र उस अवसर पर माघ सुदी 5 सन् 1700 से यहाँ मेला भी | गर्भगृह में अवस्थित थे, जो एक बड़ी मोटी आर पार चट्टान लगता है। अत: यह सिद्ध है कि कुण्डलपुर स्थित बड़े बाबा | के आधार पर शिखर समेत बना था। विशेषज्ञों की राय में का मूल स्थान यह नहीं है, न मूलवेदी और न मूलनायक | यह निर्माण भूकंप के छोटे से धक्के से धराशायी हो सकता प्रतिमा।
था, क्योंकि इसका आधार भी एक पूरी चट्टान है। अतः . अठारवीं शताब्दी के पुरातत्त्ववेत्ताओं और गर्वनमेंट | मूल (तत्त्व) की रक्षा तथा इस अतिशयकारी, प्राचीन मूर्ति द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में इसे 22 वें तीर्थंकर नेमीनाथ की | के लिये आज के आधुनिक साधनों द्वारा पूर्ण सुरक्षित एवं प्रतिमा माना है। यह स्वाभाविक लगता है, क्योंकि महाभारत- | विस्तृत स्थान पर आगे आनेवाले सैकड़ों वर्षों तक करोड़ों कालीननगर, विराटनगर, रुक्मिणिमठ, यहाँ से कृष्ण द्वारा | भक्तों को पूजन-अर्चन का सौभाग्य प्राप्त कराना पुरातत्त्व रुक्मिणि का हरण, उस समय के लोकगीत तथा जनश्रुति | का विनाश है या विकास ? यह (पुरा) तत्त्व का जीर्णोद्धार यही प्रमाण मूर्ति को नेमीनाथ की मूर्ति कहते थे। श्रीधर | है। केवली की कुण्डलगिरि पर स्थापित चरण छतरी, कुण्डलगिरि जिनदेव के भक्त ही इस सोच को पुण्यबन्ध का पर बड़े बाबा का स्थिर हो जाना अतिशय का विषय है। कारण मान सकते हैं। आज 90 प्रतिशत विरोध पुरातत्त्व के
कल तक हमारे भाइयों तथा पुरातत्त्व में रुचि | नष्ट होने की शंका के कारण है। यह विरोध समाप्त हो जाना 'रखनेवाले लोगों का कहना था कि बड़े बाबा को स्थानांतरित | चाहिये।"बड़े बाबा" के स्थानांतरित मंदिर का त्वरित निर्माण करने में खतरा है, अत: इस पुरा (पुराना) तत्त्व (मूर्ति) का | कर भव्य एवं अतिशययुक्त विशाल बिम्ब के दर्शन भक्तों संरक्षण करना आवश्यक है, अतः मूल स्थान पर ही स्थापित | को उपलब्ध कराने का ही उपक्रम करना श्रेष्ठ है। रखना चाहिये। मंदिर पूजा-अर्चना करने के स्थान हैं, अतः
श्री दि. जैन महावीर आश्रम, जब मूर्ति का अस्तित्व ही खतरे में हो तो? मैं अपने मकान |
कुण्डलपुर
डॉ. दम्पती को रइधू-पुरस्कार फिरोजाबाद। सुप्रसिद्ध लेखक जैन दम्पति डॉ. कपूरचन्द जैन और डॉ. ज्योति जैन, खतौली को विशाल जनसभा में रइधू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। समारोह की अध्यक्षता उ. प्र. विधान सभा के उपाध्यक्ष श्री राजेश अग्रवाल ने की। विशिष्ट अतिथि पूर्व पालिकाध्यक्ष श्री मनीष असीजा थे। श्री राजेश अग्रवाल ने लेखकदम्पती के ग्रन्थ 'स्वतन्त्रता संग्राम में जैन' की विशेष रूप से चर्चा करते हुए कहा कि नई पीढ़ी को यह इतिहास बताना जरूरी है, ताकि वे स्वतन्त्रता के महत्त्व को समझ सकें और देश के लिए मर-मिटने को तैयार रहें। संयोजक प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी ने पुरस्कार की पृष्ठभूमि बताते हुए कहा कि जैनदर्शन के तलस्पर्शी विद्वान् तथा जिनवाणी प्रचार-प्रसार के लिए सदैव तत्पर रहने वाले पं. श्याम सुन्दर लाल जी ने 'श्री श्याम सुन्दर लाल शास्त्री श्रुतप्रभावक न्यास' की स्थापना की थी जिससे प्रति वर्ष इक्कीस हजार रूपये का पुरस्कार लेखक के समग्र व्यक्तित्व पर दिया जाता है। संचालक श्री अनूपचन्द एडवोकेट ने जैन दम्पत्ति का परिचय देते हुए कहा कि इस दम्पत्ति ने अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए 'स्वतन्त्रता संग्राम में जैन' जैसी अमूल्य कृति दी है। डॉ. कपूरचन्द जैन और डॉ. ज्योति जैन ने इस सम्मान प्राप्ति पर श्रुत प्रभावक न्यास का आभार माना और पुरस्कार धनराशि सर्वोदय फाउण्डेशन को भेंट कर दी। इस अवसर पर 'स्वतन्त्रता संग्राम में जैन' (प्रथम खण्ड) के द्वितीय संस्करण की प्रतियाँ फिरोजाबाद के विशिष्ट महानुभावों को लेखक ने अपने हस्ताक्षर कर भेंट की।
अनूपचन्द जैन एडवोकेट
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बड़े बाबा की प्रतिमा का संस्थापन
सुरेश जैन, आई.ए.एस. (से.नि.) पूज्य आचार्य विद्यासागरजी महाराज के आध्यात्मिक | सहस्रों वर्षों तक सफलतापूर्वक झेल सकेगी और हमारी नेतृत्व में उनके संघ की दृढ़ इच्छाशक्ति एवं कुण्डलपुर क्षेत्र | शताधिक पीढ़ियों को अक्षुण्ण रूप से उपलब्ध रह सकेगी। के पदाधिकारियों के सतत परिश्रम के परिणामस्वरूप एनशियेन्ट मान्यूमेंट एक्ट 1904 के जनक वायसराय कुण्डलपुर में भगवान आदिनाथ (बड़े बाबा) की प्रतिमा | लार्ड कर्जन ने बीसवीं शताब्दी के प्रवेश पर हमारे देश की निर्माणाधीन विशाल मंदिर में स्थापित की जा चुकी है। छोटे | पुरातत्त्व संपदा के वैज्ञानिक संरक्षण की प्रक्रिया का श्रीगणेश बाबा ने इस विशाल मूर्ति को नया जीवन प्रदान किया है। करते हुए कहा था कि "सुन्दरता के मंदिरों के दर्शनार्थियों मंदिर का निर्माण पूर्ण होने पर यह मूर्ति अद्भुत आनंद | की हैसियत से मैं उनमें गया हूँ।" साथ ही उन्होंने यह प्रश्न प्रदान करेगी किन्तु मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के स्थगन | उपस्थित किया था कि "क्या कर्म के मंदिर के पुजारी के आदेश के कारण मंदिर निर्माण का कार्य रुक गया है। । रूप में मैने उनके संरक्षण और उनके पुननिर्माण के लिए
भारत सरकार और राज्य सरकार के पुरातत्त्व- | कुछ किया ?" हमें यह उल्लेख करते हुए प्रसन्नता होती है संरक्षण-अधिनियमों की मंशा के अनुरूप ही आचार्यश्री का | कि इक्कीसवीं शताब्दी के मंगलप्रवेश के अवसर पर कर्मवीर प्रमुख उद्देश्य मूर्ति का संरक्षण ही है। संरक्षण की संकुचित | बनकर पूज्य विद्यासागर जी ने अपनी असाधारण शक्ति वैधानिक व्याख्या को विस्तार देते हुए जैन समाज द्वारा नवीन और साहस का उद्घाटन किया है और मूर्ति के सफलतापूर्वक मंदिर की आधारभूति को भूकंप के प्रभाव से बचाने के | संस्थापन द्वारा इस प्रश्न का उपयुक्त एवं प्रभावी उत्तर दिया लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी दृष्टि से सुदृढ़ किया गया है। | है। हमें विश्वास है कि भारत सरकार और राज्य सरकार भारत सरकार ने अपनी संरक्षित नीति के अनुसार महाराष्ट्र | उनके इस कर्म से ओतप्रोत उत्तर का सम्मान करेंगी। मस्थित अजंता-ऐलोरा गुफाओं का सरंक्षण एवं सौन्दीकरण | भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा मध्यप्रदेश किया है। मध्यप्रदेश में स्थित भोजपुर शिवमंदिर का पुनर्निर्माण | में स्थित खजुराहो के मंदिरों और मूर्तियों एवं साँची के स्तूपों किया है। ओंकारेश्वर में स्थित 24 अवतार के विष्णुमंदिर | को विश्व धरोहर की सूची मे सम्मिलित करा लिया गया है। को 3 किलोमीटर दूर स्थानांतरित कर संरक्षित किया है। | भोपाल के समीप स्थित भीमबैठका और भोजपुर को इस
में स्थित हमाय के मकबरा का संरक्षण किया है। | सची में सम्मिलित कराया जा रहा है। मैं सम्पूर्ण जैन समाज इसी प्रकार के अनेक पूर्वोदाहरणों के अनुरूप कुण्डलपुर- से विनम्र आग्रह करता हूँ कि हम मिल जुलकर बड़े बाबा
जैनतीर्थ के पदाधिकारियों द्वारा बड़े बाबा की मूर्ति को | की मूर्ति जैसी अपनी सभी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर निकटस्थ उपयुक्त स्थल पर संस्थापित किया गया है। तीर्थक्षेत्र | को यूनाइटेड नेशंस एजूकेशनल सोसल एन्ड कल्चरल के पर्यावरण को संरक्षित एवं विकसित किया गया है। नवीन | आर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) द्वारा तैयार की जा रही विश्व मंदिर में स्थापित करने से मूर्ति के सौन्दर्य में अत्यधिक धरोहर की सूची मे सम्मिलित कराने के लिए आगे बढ़ कर वृद्धि हुई है। अतः अब इतनी बड़ी प्राचीन मूर्ति को ग्रीष्म, ठोस प्रयत्न करें। बड़े बाबा के नवीन मंदिर को दिल्ली के शीत एवं वर्षा से बचाने के लिए हमारा सम्पूर्ण जैन समाज अक्षरधाम में स्थित स्वामीनारायण मंदिर की भाँति संगठित रूप से यथाशीघ्र मंदिर पूर्ण करने के लिए ठोस | आधुनिकतम तकनीकों और प्रक्रियाओं से सुसज्जित करें प्रयत्न करे। अनावश्यक एवं अनुपयुक्त टीका टिप्पणियों | और कम से कम राष्ट्रीय स्तर के आकर्षक पर्यटनकेन्द्र के को विराम देकर अपनी रचनात्मक एकता का परिचय दे। | रूप में सुविकसित करें। समीपस्थ वन्य क्षेत्र में जीव-जंतुओं
__ बड़े बाबा की यह विशाल मूर्ति अब विश्व की | और वनस्पतियों का संरक्षण एवं संवर्द्धन करें और तीर्थंकरवन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर बन गई है। अब यह | विकसित करें। मूर्ति भूकंप, ग्रीष्म और शीत ऋतु के विपरीत प्रभावों को भगवान महावीर ने छब्बीस सौ वर्ष पूर्व इकोलॉजी
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के वर्तमान सिद्धान्तों के अनुरूप जीव जन्तुओं को उनके | अत्याधुनिक शिक्षा को अपनी समाज के अंतिम पंक्ति के प्राकृतिक पर्यावास में रखने की दृष्टि से मोटे दोहरे कपड़े से | अंतिम सदस्य तक नहीं पहुँचाया, तो हम पिछड़ जावेंगे। पानी छानने और कपड़े में आयी जीवराशि को जल के तल | कृषियुग में केवल भूमि, पूँजी एवं श्रम की आवश्यकता तक करुणापूर्वक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त हमें दिया | होती थी, किन्तु सूचना की आगामी शताब्दी मे इन तीनों से है। आज भी अनेक जैन घरों में इस सिद्धान्त का नियमित | अधिक ज्ञान की आवश्कता होगी। ज्ञान-विशेषज्ञ, ज्ञानवान् पालन किया जाता है। इस लेखक के प्रयास से 1980 के | कर्ता एवं ज्ञानवान् व्यक्ति ही हमारे समाज की महत्त्वपूर्ण दशक में विश्वस्तरीय संस्थाओं ने कपडे से पानी छानने की| पूँजी होंगे। ज्ञानवान समाज ही प्रगति के सर्वोच्च सोपान पर प्रक्रिया अपनाने के लिए अनेक परिपत्र विश्व के सभी | स्थित होगा। अत: मेरा विनम्र निवेदन है कि हम इसी प्रकार राष्ट्रों को प्रेषित किए हैं । यह उपयुक्त प्रतीत होता है कि हम | की दृढ़ इच्छा शक्ति, संपूर्ण समर्पण और तन, मन, धन से बड़े बाबा के मंदिर परिसर में वैज्ञानिक ढंग से पानी छानने | | यह सुनिश्चित करें कि हमारे समाज के प्रत्येक पुत्र और की प्रक्रिया एवं इसके आधारभूत सिद्धांत एवं जैनभोजन | पुत्री को राष्ट्रीय स्तर के उत्कृष्टतम शिक्षाकेन्द्रों मे सर्वोच्च और उसके प्रभावों का मल्टी मीडिया के माध्यम से | शिक्षा प्राप्त करने के लिए आवश्यक साधन और सुविधाएँ प्रस्तुतीकरण करें।
प्राप्त हों, जिससे वे अपना शैक्षणिक लक्ष्य प्राप्त कर सकें इक्कीसवीं शताब्दी ज्ञान की शताब्दी है। इस शताब्दी | और अपनी, अपने परिवार और अपनी समाज की चतुर्मुखी में किसी भी व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की पहचान ज्ञान से | प्रगति कर सकें। होती है। समय की आवश्यकता के अनुरूप यदि हमने
30, निशात कालोनी, भोपाल
भगवान् श्रेयोनाथ जी जम्बूद्वीप संबंधी भरत क्षेत्र के सिंहपुर नगर के दिन प्रातः काल एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण स्वामी इक्ष्वाकु वंश में प्रसिद्ध विष्णु नाम के राजा राज्य की। पारणा के दिन उन्होंने सिद्धार्थ नगर में प्रवेश किया। करते थे। उनकी महारानी का नाम सुनन्दा था। महारानी वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले नन्द राजा ने भक्तिपूर्वक सुनन्दा ने फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन पुष्पोत्तर । आहार देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस प्रकार छद्मस्थ विमानवासी अच्युतेन्द्र को तीर्थंकरसुत के रूप में जन्म अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर एक दिन महामुनि दिया। शीतलनाथ भगवान् के मोक्ष जाने के बाद जब सौ । श्रेयांसनाथ मनोहर नामक उद्यान में बेला का नियम लेकर सागर और छयासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक तुम्बुर वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हुए। वहीं पर उन्हें माघकृष सागर प्रमाण अन्तराल बीत गया तथा आधे पल्य तक। अमावस्या के दिन सायंकाल के समय घातिया कर्म के धर्म की परम्परा विच्छिन्न रही, तब भगवान् श्रेयांसनाथ नष्ट हो जाने पर केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान् के का जन्म हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में समवशरण की रचना हुई जिसमें चौरासी हजार मुनि, एक शामिल थी, उनकी कुल आयु चौरासी लाख वर्ष की । लाख बीस हजार आर्यिकायें, दो लाख श्रावक, चार लाख थी। शरीर सुवर्ण के समान कान्ति वाला था तथा शरीर श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच की ऊँचाई अस्सी धनुष थी। जब उनकी कुमारावस्था के थे। इस प्रकार धर्म का उपदेश देते हुए वे भगवान् इक्कीस लाख वर्ष बीत चुके तब भगवान् ने राज्य पद सम्मेदशिखर पर जा पहुँचे। वहाँ एक माह का योगप्राप्त किया। प्रजापाल बनकर न्याय नीति पूर्वक ब्यालीस निरोध कर एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमायोग लाख वर्ष तक उन्होंने राज्य किया। तदनन्तर किसी एक धरण किया और श्रावण शुक्ला पौर्णमासी के दिन सायंकाल समय वसन्त ऋत का परिवर्तन देखकर उन्हें वैराग्य के समय अघातिया कर्मों का क्षयकर मोक्ष प्राप्त किया। हुआ जिससे उन्होंने अपने श्रेयस्कर पुत्र के लिए राज्य
मुनि श्री समतासागरकृत 'शलाका पुरुष' से साभार देकर बेला का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण एकादशी के
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जाति-मद सम्यक्त्व का बाधक है
स्व. बाबू सूरजभान जी वकील .. धर्ममार्ग पर कदम रखने के लिए जैन-शास्त्रों में | धर्म का आश्रय-आधार धर्मात्मा ही होते हैं, धर्मात्माओं के बिना ससे पहले शुद्ध सम्यक्त्व ग्रहण करने की बहुत भारी | धर्म कहीं रह नहीं सकता। और इसलिए धर्मात्माओं के आवश्यकता बतलाई है। जब तक श्रद्धा अर्थात् दृष्टि शुद्ध | तिरस्कार से धर्म का तिरस्कार स्वतः हो जाता है। कुल-मद नहीं है, तब तक सभी प्रकार का धर्माचरण उस उन्मत्त की | वा जाति-मद करने का यह विष-फल धर्म के श्रद्धान में तरह व्यर्थ और निष्फल है, जो इधर-उधर दौड़ता फिरता है | अवश्य ही बट्टा लगाता है, ऐसा श्री समन्तभद्र स्वामी ने
और यह निश्चय नहीं कर पाता कि किधर जाना है अथवा | अपने रत्नकरण्डश्रावकाचार के निम्न पद्य नं. 26 में निर्दिष्ट उस हाथी के स्नान-समान है जो नदी में नहाकर आप ही | किया हैअपने ऊपर धूल डाल लेता है।
स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः। सम्यक्त्व को मलिन करने वाले पच्चीस मल-दोषों | सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना॥ में आठ प्रकार के मद भी हैं, जिनसे सम्यक्त्व भ्रष्ट होता है, इसी बात को प्रकारान्तर से स्पष्ट करते हए अगले उसे बाधा पहुँचती है। इनमें भी जाति और कुल का मद | श्लोक नं. 27 में बताया है कि जिसके धर्माचरण द्वारा पापों अधिक विशेषता को लिए हुए है। सम्यग्दृष्टि के लिए ये का निरोध हो रहा है, पाप का निरोध करनेवाली सम्यग्दर्शनरूपी दोनों ही बड़े भारी दूषण हैं। मैं एक प्रतिष्ठित कुल का हूँ, | निधि जिसके पास मौजूद है, उसके पास तो सब कुछ है, मेरी जाति ऊँची है, ऐसा घमण्ड करके दूसरों को नीच एवं | उसको अन्य कुलैश्वर्यादि सांसारिक सम्पदाओं की अर्थात् तिरस्कार का पात्र समझना अपने धर्मश्रद्धान को खराब करना । सांसारिक प्रतिष्ठा के कारणों की क्या जरूरत है? वह तो है, ऐसा जैन-शास्त्रों में कथन किया गया है।
इस एक धर्म-सम्पत्ति के कारण ही सब कुछ प्राप्त करने में आदिपुराणादि जैन-शास्त्रों के अनुसार चतुर्थ काल में | समर्थ है और बहुत कुछ मान्य तथा पूज्य हो गया है। प्रत्युत जैनी लोग एकमात्र अपनी ही जाति में विवाह नहीं करते थे, | इसके, जिसके पापों का आस्रव बना हुआ है, धर्म का किन्तु ब्राह्मण तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों ही वर्ण | श्रद्धान और आचरण न होने के कारण जो नित्य ही पापों का की कन्याओं से विवाह कर लेता था; क्षत्रिय अपने क्षत्रिय | संचय करता रहता है, उसको चाहे जो भी कुलादि सम्पदा वर्ण की, वैश्य की तथा शूद्र की कन्याओं से और वैश्य | प्राप्त हो जाय, वह सब व्यर्थ है। उसका वह पापास्रव उसे अपने वैश्य वर्ण की तथा शूद्र वर्ण की कन्या से भी विवाह | एक-न-एक दिन नष्ट कर देगा और वह कुलादि सम्पदा कर लेता था। बाद को सभी वर्गों में परस्पर विवाह होने लग | उसके दुर्गति-गमनादि को रोक नहीं सकेगी। भावार्थ, जिसने गये थे, जिनकी कथाएँ जैन-शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। इन | सम्यक्त्वपूर्वक धर्म धारण करके पाप का निरोध कर दिया अनेक वर्णों की कन्याओं से जो सन्तान होती थी उसका कुल | है, वह चाहे कैसी ही ऊँची-नीची जाति वा कुल का हो, तो वह समझा जाता था जो पिताका होता था और जाति वह संसार में वह चाहे कैसा भी नीच समझा जाता हो, तो भी मानी जाती थी जो माता की होती थी। इसी कारण शास्त्रों में | उसके पास सब कुछ है और वह धर्मात्माओं के द्वारा मान वंश से सम्बन्ध रखनेवाले दो प्रकार के मद वर्णन किए हैं। | तथा प्रतिष्ठा पाने का पात्र है, तिरस्कार का पात्र नहीं। और अर्थात् यह बतलाया है कि न तो किसी सम्यग्दृष्टि को इस | जिसको धर्म का श्रद्धान नहीं, धर्म पर जिसका आचरण नहीं बात का घमण्ड होना चाहिए कि मैं अमुक ऊँचे कुल का हूँ | और इसलिए जो मिथ्यादृष्टि हुआ निरन्तर ही पाप संचय और न इस बात का कि मैं अमुक ऊँची जाति का हूँ। दूसरे किया करता है, वह चाहे जैसी भी ऊँच से ऊँच जाति का, शब्दों में उसे न तो अपने बाप के ऊँचे कुल का घमण्ड | कुल का अथवा पद का धारक हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, करना चाहिए और न अपनी माता के ऊँचे वंश का। ।
शुक्ल हो, क्षोत्रिय हो, उपाध्याय हो, सूर्यवंशी हो, चन्द्रवंशी जो घमण्ड करता है वह स्वभाव से दूसरों को नीचा | हो, राजा हो, महाराजा हो, धन्नासेठ हो, धनकुबेर हो, विद्वान् समझता है। घमण्ड के वश होकर किसी साधर्मी भाई को, |
| हो, तपस्वी हो, ऋद्धिधारी हो, रूपवान् हो, शक्तिशाली हो, सम्यग्दर्शनादि से युक्त व्यक्ति को, अर्थात् जैन-धर्म-धारी को
| और चाहे जो कुछ हो, परन्तु वह कुछ भी नहीं है। पापास्रव नीचा समझना अपने ही धर्म का तिरस्कार करना है। क्योंकि | 22 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
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के कारण उसका निरन्तर पतन ही होता रहेगा और वह अन्त | धर्म की बात उसके मुख से निकल जाय तो उसकी जीभ को दुर्गति का पात्र बनेगा। समन्तभद्र का वह गम्भीरार्थक | काट ली जाय, ऐसे विधान भी बने। प्रत्युत इसके, ब्राह्मण श्लोक इस प्रकार है
चाहे कुछ धर्म कर्म जानता हो या न जानता हो और चाहे वह यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्। कैसा ही नीच कर्म करता हो, तो भी वह पूज्य माना जावे। अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्॥ ऐसा होने पर एकमात्र हाड़मांस की ही छटाई-बड़ाई रह गई।
इसके बाद का निम्न श्लोक नं. 28 भी इसी बात को | किसी का हाड़ मांस पूज्य और किसी का तिरस्कृत समझा पुष्ट करने के लिए लिखा गया है और उसमें यह स्पष्ट गया। बतलाया गया है कि चाण्डालका पुत्र भी यदि सम्यग्दर्शन फल इसका यह हुआ कि धर्म-कर्म सब लुप्त हो ग्रहण कर ले, धर्म पर आचरण करने लगे, तो कुलादि | गया। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो धर्म-ज्ञान से वंचित कर ही सम्पत्ति से अत्यन्त गिरा हुआ होने पर भी पूज्य पुरुषों ने | दिये गए थे; किन्तु ब्राह्मणों को भी अपनी जाति के घमण्ड में उसको 'देव' अर्थात् आराध्य बतलाया है, तिरस्कार का पात्र | आकर ज्ञानप्राप्ति और किसी प्रकार के धर्माचरण की जरूरत नहीं; क्योंकि वह उस अंगार के सदृश होता है, जो बाह्य में | | न रही। इस कारण वे भी निरक्षर-भट्टाचार्य तथा कोरे बुद्ध राख से ढका हुआ होने पर भी अन्तरंग में तेज तथा प्रकाश | रहकर प्रायः शूद्रों के समान बन गए और अन्त को रोटी को लिए हुए है और इसलिए कदापि उपेक्षणीय नहीं होता - बनाना, पानी पिलाना, बोझा ढोना आदि शूद्रों की वृत्ति तक
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्। | धारण करने के लिए उन्हें बाधित होना पड़ा। देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम्॥
संक्रामक रोग की तरह यह बीमारी जैनियों में भी फिर इसी को अधिक स्पष्ट करते हुए श्लोक नं. 29 | फैलनी शुरू हुई, जिससे बचाने के लिए ही आचार्यों को यह में लिखते हैं कि "धर्म धारण करने से तो कत्ता भी देव हो सत्य सिद्धान्त खोलकर समझाना पडा कि जो कोई अपनी 'जाता है और अधर्म के कारण-पापाचरण करने से-देव भी | जाति व कुल आदि का घमण्ड करके किसी नीचातिनीच, कुत्ता बन जाता है । तब ऐसी कौन सी सम्पत्ति है जो धर्मधारी | यहाँ तक कि चाण्डाल-रज-वीर्य से पैदा हुए चाण्डाल-पुत्र को प्राप्त न हो सके?" ऐसी हालत में धर्मधारी कत्ते को को भी, जिसने सम्यग्दर्शनादि के रूप में धर्म धारण कर क्यों नीचा समझा जाय और अधर्मी देव को तथा अन्य किसी | लिया है, नीचा समझता है, तो वह वास्तव में उस चाण्डाल ऊँचे वर्णा वा जातिवाले धर्महीन हो क्यों ऊँचा माना जाय? | का अपमान नहीं करता है, किन्तु अपने जैन-धर्म का ही वह श्लोक इस प्रकार है -
अपमान करता है, उसके हृदय में धर्म का श्रद्धान रंचमात्र भी श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात्। नहीं है। धर्म का श्रद्धान होता, तो जैन-धर्मधारी चांडाल को कापि नाम भवदेन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम्॥ क्यों नीचा समझता ? धर्म धारण करने से तो वह चाण्डाल
इस प्रकार आठों प्रकार के मदों का वर्णन करते हुए | बहुत ऊँचा उठ गया है; तब वह नीचा क्यों समझा जाय ? श्री समन्तभद्र स्वामी ने जाति और कुल के मद का विशेष | कोई जाति से चाण्डाल हो वा अन्य किसी बात में हीन हो, रूप से उल्लेख करके इन दोनों मदों के छुड़ाने पर अधिक | यदि उसने जैन धर्म धारण कर लिया है, तो वह बहुत कुछ जोर दिया है। कारण इसका यही है कि हिन्दुस्तान को एक | ऊँचा तथा सम्माननीय हो गया है। सम्यग्दर्शन के वात्सल्य मात्र इन्हीं दो मदों ने गारत किया है। ब्राह्मणों का प्राबल्य होने | अङ्ग-द्वारा उसको अपना साधर्मी भाई समझना, प्यार करना, पर कुल और जाति का घमण्ड करने की यह बीमारी सबसे | लौकिक कठिनाइयाँ दूर करके सहायता पहुँचाना और धर्मपहले वेदानयायी हिन्दुओं में फूटी। उस समय एकमात्र | साधन में सर्व प्रकार की सहूलियतें देना, यह सब सच्चे ब्राह्मण ही सब धर्म-कर्म के ठेकेदार बन बैठे, क्षत्रिय और | श्रद्धानी का मुख्य कर्त्तव्य है। जो ऐसा नहीं करता उसमें धर्म वैश्य के वास्ते भी वे ही पूजन-पाठ और जप-तप करने के | का भाव नहीं, धर्म की सच्ची श्रद्धा नहीं और न धर्म से प्रेम ही अधिकारी रह गए; शूद्र न तो स्वयं ही कुछ धर्म कर सकें | कहा जा सकता है। धर्म से प्रेम होने का चिह्न ही धर्मात्मा के और न ब्राह्मण ही उनके वास्ते कुछ करने पावें, ऐसे आदेश | साथ प्रेम तथा वात्सल्य भाव का होना है। सच्चे धर्म-प्रेमी निकले; शूद्रों की छाया से भी दूर रहने की आज्ञाएँ जारी | को यह देखने की जरूरत ही नहीं होती कि अमुक धर्मात्मा हुई। अचानक भी यदि कोई वेद का वचन शूद्र के कान में | का हाड़मांस किस रजवीर्य से बना है, ब्राह्मण से बना है या पड़ जाय, तो उसका कान फोड़ दिया जाय और यदि कोई | चाण्डाल से?
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हैं
स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य भी अपने दर्शनपाहुड में लिखते | अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि कुल और जाति के
| घमंड का यह महारोग जैनियों में भी जोर-शोर के साथ घुस णवि देहो वन्दिजइ ण वि य कुलोण वि य जाइसंजुत्तो। | गया, जिसका फल यह हुआ कि नवीन जैनी बनते रहना तो , को वंदमि गुणहीणो ण हुसवणो णेव सावओ होई ॥२७॥ | दूर रहा, लाखों-करोड़ों मनुष्य, जिनको इन महान् आचार्यों अर्थात् न तो देह को बन्दना की जाती है, न कुल की
| ने बड़ी कोशिश से जैनी बनाया था, उच्च कुल का घमंड और न जाति-सपन्न की। गुणहीन कोई भी, वन्दना किये |
| रखने वाले जैनियों में प्रतिष्ठा न पाने के कारण जैन धर्म को जाने के योग्य नहीं; जो न तो श्रावक ही होता है और न मुनि |
| छोड़ बैठे! इसके सबूत के तौर पर अब भी अनेक जातियाँ ही। भावार्थ - वन्दना अर्थात् पूजा-प्रतिष्ठा के योग्य या तो | ऐसी मिलती हैं, जो किसी समय जैनी थीं, परन्तु अब उनको श्रावक होता है और या मुनि; क्योंकि ये दोनों ही धर्म-गुण से
| जैनधर्म से कुछ भी वास्ता नहीं है। और यह तो स्पष्ट ही है विशिष्ट होते हैं। धर्म-गुण-विहीन कोई भी कुलवान् तथा |
कि जहाँ इस भारतवर्ष में किसी समय जैनी अधिक और ऊँची जातिवाला अथवा उसकी हाड़माँस भरी देह ।
अन्यमती कम थे, वहाँ अब पैंतीस करोड़ मनुष्यों में कुल पूजाप्रतिष्ठा-योग्य नहीं है।
ग्यारह लाख ही जैनी रह गये हैं ' और उनको भी अनेक . श्री शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णाव के अध्याय 21 श्लोक | प्रकार के अनुचित दण्ड-विधानों आदि के द्वारा घटाने की नं. 48 में लिखा है कि =
कोशिश की जा रही है। कुलजातीश्वरत्वादिमद-विध्वस्तबुद्धिभिः।
__घटे या बढ़ें, जिनको धर्म से प्रेम नहीं है, जिनको धर्म सद्यः संचीयते कर्म नीचैर्गतिनिबन्धनम्॥
की सच्ची श्रद्धा नहीं है और जो सम्यक्त्व के स्थितीकरण अर्थात् कुलमद, जातिमद, ऐश्वर्यमद आदि मदों से | तथा वात्सल्य अङ्गों के पास तक नहीं फटकते उन्हें ऐसी जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है ऐसे लोग बिना किसी विलम्ब | बातों की क्या चिन्ता और उनसे क्या मतलब! हाँ, जो सच्चे - के शीघ्र ही उस पाप कर्म का संचय करते हैं जो नीच गति | श्रद्धानी हैं, धर्म से जिनको सच्चा प्रेम है, वे जरूर मनुष्यमात्र का कारण है, नरक-तिर्यंचादि अनेक कुगतियों और कुयोनियों |
| में उस सच्चे जैन धर्म को फैलाने की कोशिश करेंगे, जिस में भ्रमण कराने वाला है।
पर उनकी दृढ़ श्रद्धा है। अर्थात् कोई छूत हो वा अछूत, ऊँच इन्हीं शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव के 9वें अध्याय के हो वा नीच सभी को वे धर्म सिखाएँगे, सबही को जैनी श्लोक नं. 30 में यह भी प्रकट किया है कि जो लोग | बनाएंगे और जो जैनधर्म धारण कर लेगा, उसके साथ वात्सल्य विकलाङ्गी हों, खण्डितदेह हों, विरूप हों, बदसूरत हों, | रखकर हृदय से प्रेम भी करेंगे, उसकी प्रतिष्ठा भी करेंगे दरिद्री हों, रोगी हों और कलजाति आदि से हीन हों, वे सब | और उसे धर्म-साधना की सब प्रकार की सहलियतें भी शोभासम्पन्न हैं, यदि सत्य-सम्यक्त्व से विभूषित हैं। अर्थात् |
| प्रदान करेंगे तथा दूसरों से भी प्राप्त कराएंगे। उनके लिए धर्मात्मा पुरुष कुल, जाति आदि से हीन होने पर भी किसी
| स्वामी समन्तभद्र का निम्न वाक्य बड़ा ही पथ-प्रदर्दक होगा, प्रकार तिरस्कार के योग्य नहीं होते। जो जाति आदि के मद | जिसमें स्पष्ट लिखा है कि जो श्री जिनेन्द्रदेव को नतमस्तक में आकर उनका तिरस्कार करता है, वह पूर्वोक्त श्लोकानुसार |
होता है, उनकी शरण में आता है, अर्थात् जैनधर्म को ग्रहण अपने को नीच गति का पात्र बनाता है। यथा -
करता है, वह चाहे कैसा ही नीचातिनीच क्यों न हो, इसी खंडितानां विरूपाणां दुर्विधानां च रोगिणाम्। लोक में, इस ही जन्म में, अति ऊँचा हो जाता है; तब फिर कुलजात्यादिहीनानां सत्यमेकं विभूषणम्॥ कौन ऐसा मूर्ख है अथवा कौन ऐसा बुद्धिमान् है, जो जिनेन्द्रदेव
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की 430 वीं गाथा में भी लिखा | की शरण में प्राप्त न होवे अर्थात् उनका बताया हुआ धर्ममार्ग है कि उत्तमधर्मधारी तिर्यंच-पशु भी उत्तम देव हो जाता है | ग्रहण न करे? सभी जैन धर्म की शरण में आकर अपना तथा उत्तम धर्म के प्रसाद से चांडाल भी देवों का देव सुरेन्द्र | इहलौकिक तथा पारलौकिक हित साधन कर सकेंगे। बन जाता है। यथा
यो लोके त्वानतः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुर्यतिः। उत्तमधम्मेणजदोहोदि तिरक्खो विउत्तमो देवो।
बालोऽपि त्वा श्रितं नौति को नो नीतिपुरः कुतः॥ चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि॥ आचार्यों की ऐसी स्पष्ट आज्ञाओं के होने पर भी, | 11. यह लेख 1938 ई. में लिखा गया था।
-सम्पादक 24/ अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
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श्री समन्तभद्र आदि महान् आचार्यों के समय में ऐसा ही होता था। सभी प्रकार के मनुष्य जैन-धर्म ग्रहण करके ऊँचे बन जाते थे, माननीय और प्रतिष्ठित हो जाते थे। तब ही तो इन महान् आचार्यों ने हिंसामय यज्ञों को भारत से दूर भगाया और अहिंसामय धर्म का झण्डा फहराया। अब भी यदि ऐसा ही होने लगे, जैनियों का हृदय जाति - कुलादि के मद से शून्य होकर धर्म की भावना से भर जाय और वे धर्मप्रचार के लिए अपने पूर्वजों का अनुकरण करने लगें, तो दुनिया भर के लोग आज भी इस सच्चे धर्म की शरण में आने के लिए उत्सुक हो सकते हैं। पर यह तभी हो सकता
'पुरातत्त्व विभाग के लिए अति महत्वपूर्ण पुरासम्पदा" (बड़े बाबा के जीर्ण मंदिर के ध्वस्त अवशेष)
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आज के कानून के तहत The ancient Monuments & Archeological Sites & Remains Act 1958.
। है, जब इस समय जो लोग जैनी कहलाते हैं और जैनधर्म के ठेकेदार बनते हैं, उनको धर्म का सच्चा श्रद्धान हो, आचार्यों के वाक्यों का उनके हृदय में पूरा पूरा मान हो, धर्म के मुकाबिले में लौकिक रीति-रिवाजों का जिन्हें कुछ ख्याल न हो, कुल और जाति का झूठा घमण्ड जिनके पास न हो और अपना तथा जीवमात्र का कल्याण करना ही जिनका एकमात्र ध्येय हो । आशा है धर्मप्रेमी बन्धु इन सब बातों पर विचार कर अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होंगे।
'अनेकान्त' / बर्ष 2 / किरण 3 / विक्रम संवत् 1995 से साभार ।
पुरातत्त्व विभाग के लिए गैरजरूरी "जीवित बड़े बाबा जीर्ण मंदिर से बाहर विराजमान " यह पुरातत्त्व विभाग की नजर में महत्वपूर्ण नहीं था "जीवित तत्त्व का पुरातत्त्व में कोई स्थान नहीं" मूर्ति एवं मन्दिर में महत्त्वपूर्ण क्या है?
नोट : पुरातत्त्व के पहिरेदार "समन्वय" का डंडा/झंडा थामे एक सम्पादक ने अग्रलेख में सुझाव दिया है कि अब " बड़ेबाबा " को पुनःजीर्ण मंदिर के स्थान पर स्थापित कराना चाहिये ।
समाज को दिशानिर्देश देनेवाले अतिबुद्धिमानों से सवाल है कि मूर्ति की सुरक्षा की जिम्मेवारी और यह पुनः स्थानान्तरण कैसे होगा ? किनके द्वारा ? पुरातत्त्व विभाग, समाज, सरकार और उनकी मंजूरी से या सम्पादक के करतब से?
हे मेरे भाई ! प्रत्यक्ष आकर तो देखो। ऐसे ध्वस्त मंदिर के अवशेषों पर अब पूर्व जर्जर मंदिर की अनुकृति बनानी होगी, तब हमारे सम्पादक जी का सुझाव लागू होगा। बलिहारी है बुद्धि की !
ब्र. अमरचन्द जैन, कुण्डलपुर (दमोह) म.प्र.
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 25
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उद्दिष्ट - मीमांसा
पं. छोटेलाल जी बरैया, धर्मालंकार, उज्जैन साध्वाचार या क्षुल्लक-ऐलक की चर्या से सम्बन्धित | कारित-अनुमोदना-रूप नवकोटी की प्रेरणा से उत्पन्न आहार उद्दिष्टत्याग सम्प्रति श्रावकों में विशेष चर्चणीय विषय हो गया | ग्रहण करता है, तो वह आहार उद्दिष्ट दोष से दूषित है। है। जो लोग उद्दिष्ट का शाब्दिक अर्थ भी नहीं जानते, वे भी | अभिप्राय यह है कि यदि साधु उक्त नवकोटी पूर्वक स्वयं इस चर्या में प्रायः संलग्न दिखाई देते हैं, किन्तु आचार- | आहार बनाने की प्रेरणा करते हैं तो वह उद्दिष्ट दोष होता है। सम्बन्धी ग्रंथों का अवलोकन कोई भी नहीं करना चाहता। | मुनिजन इस प्रकार के उद्दिष्ट के त्यागी होते हैं। कहा भी है - वस्तुत: यदि श्रावकाचार और साध्वाचार-सम्बन्धी पूर्वाचार्य- स्वनिर्मितं त्रिधा येन कारतोऽ नुमतः कृतः। प्रणीत मूलग्रन्थों का सूक्ष्म पठन-मनन चिन्तन किया जावे, नाहारो गृह्यते पुंसा त्यक्तोद्दिष्टः स भण्यते॥ तो उद्दिष्ट के सम्बन्ध में जो भ्रमपूर्ण वातावरण यत्र-तत्र
(सुभा रत्न सं. श्लो. 843 पृ.96)। दिखाई देता है और जो वितर्कणाएँ उद्दिष्ट के सम्बन्ध में दी
"जो दिव्य आत्मा अपने मन-वचन-काय और कृतजा रही हैं, उनको कोई अवकाश प्राप्त नहीं हो सकता है। कारित-अनुमोदना से अपने लिए उद्देश्यकर स्वयं आहार
सर्वप्रथम उद्दिष्ट के सम्बन्ध में जो कछ एक वितर्कणाएँ | बनवाकर उस (अपने लिये बने हुए) आहार को ग्रहण नहीं हैं, उन्हीं को पाठकों के समक्ष
करता, वह उद्दिष्ट-त्यागी कहलाता है।" 1. "आज हमारे गांव में मुनिश्वर आये हैं उनके सकलकीर्ति आचार्य के शब्दों में लिये हमने आहार बनाया है" इस प्रकार आहारदान देने में | "कृतादिभिर्महादोषैस्त्यक्ताहारावलोकिनः" (प्रश्नोत्तरउद्दिष्ट दोष होता है। उद्दिष्ट का जन-साधारण ने सामान्य से | श्रावकाचार) मुनिगण अपने लिए आहार बनवाने के लिए यही अर्थ समझ लिया है कि मुनिजनों के लिये ही आजकल | कृत-कारित-अनुमोदना नहीं करते, अतः वे उद्दिष्ट के त्यागी आहार बनाया जाता है और इस प्रकार उनके लिये बनाया | कहे जाते हैं। अथवा यदि श्रावक स्वयं आकर मुनिराज से गया आहार उद्दिष्ट दोष से दूषित है। अतः वर्तमान में प्रायः | यह कहे कि "महाराज मैंने आज अमुक व्यंजन बनाये हैं साधुगण उद्दिष्ट आहार ही ग्रहण करते हैं।
अतः मेरे यहाँ ही आज पधारें," या दूसरों से भी कहलावे 2. कुछ लोग कहते हैं कि हम नीरस भोजन नहीं | और महाराज उसके यहाँ आहार के लिए पहुँच जाते हैं, तो करते और न गर्म जल का उपयोग अपने भोजन में करते। | वह भी उद्दिष्ट दोष है, इस प्रकार साधुगण आहार करने के फल-दूध आदि का सेवन भी भोजन के साथ नहीं करते। त्यागी है। अतः यह सब आहार साधुओं के लिए ही बनाया जाता है दाता के आश्रित औद्देशिक दोष होता है। नाग-यक्षादि इस कारण वह आहार उद्दिष्टदोष से दूषित है। इत्यादि अन्य | देवता के लिए, अन्यमती पाखण्डियों के लिए, दीनअनेक प्रकार की वितर्कणाएँ लोग करते हैं। साथ ही यह भी | अनाथजनों के लिए उद्देश्य करके बनाया गया भोजन औद्देशिक कहते हैं कि वर्तमान में जब प्रतिमाधारी श्रावक ही नहीं हो | है। संक्षेप में औद्देशिक भोजन के चार प्रकार कहे हैं। तद्यथा - सकते, तब मुनि कैसे हो सकते हैं ? वर्तमान की आहारविधि 1. जो कोई आवेगा सबको देंगे, ऐसे उद्देश्य से किया मुनियों के योग्य नहीं है। इस प्रकार के विचारों से उद्दिष्ट अन्न यावान्नुद्देश है। 2. पाखण्डी अन्यलिंगी के निमित्त से शब्द के अर्थ को अत्यन्त जटिल कर दिया है। अतः आचार बनाया भोजन समुद्देश है। 3. तापस परिव्राजक आदि के ग्रंथों के परिप्रेक्ष्य में उद्दिष्ट-मीमांसा ही इस निबन्ध का प्रमुख
निमित्त बनाया भोजन आदेश है। 4. दिगम्बर साधुओं के लक्ष्य है।
निमित्त से बनाया गया भोजन समादेश दोष से दूषित है। । सर्वप्रथम हमें यह सोचना है कि उद्दिष्ट दोष पात्र के | उद्दिष्ट का विशेष स्पष्टीकरण आश्रित है या दाता के आश्रित? उद्दिष्ट का क्या लक्षण है? उद्दिष्टत्यागी, श्रावक को अपने लिए आहार बनवाने इत्यादि।
के लिए नहीं कहता है कि "आज तुम मेरे लिए अमुक उद्दिष्टदोष दाता के आश्रित न होकर पात्र के आश्रित । | आहार बनाओ, मैं तुम्हारे घर पर ही आज आहार ग्रहण है। अर्थात् पात्र-साधु अपने मन-वचन-काय और कृत- | | करेगा।" इसी प्रकार अपनी शारीरिक चेष्टा से इशारा भी
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नहीं करता कि "आज तुम मेरे लिए अमुक आहार बना | कि दाता के आश्रित। लेना, मैं तुम्हारे यहाँ ही आऊँगा" और न मन में ही इस । आचार्यप्रणीत मूलग्रंथों को नहीं पढ़ने से तथा मात्र प्रकार का चिन्तन करता है कि "अमुक सेठ के या सामान्य | हिन्दी ग्रंथों को पढ़ने से कई बन्धुओं की यह धारणा बन रही भी गृहस्थ के घर नानाविध व्यंजनयुक्त उत्तम आहार बनाया, | है कि उद्दिष्टदोष केवल आहार से ही सम्बन्धित है, अन्य सो आज मैं उसी के यहाँ आहार ग्रहण करूँगा।" इत्यादि | औषधि, वसतिका आदि से नहीं। किन्तु यह मान्यता भूल नवकोटि से अपने लिये स्वयं आहार बनवाकर उसको ग्रहण | भरी है, क्योंकि आचार्यों ने वसतिका, उपकरण आदि पदार्थों नहीं करता वह उद्दिष्ट त्यागी है।
को भी उद्दिष्टादि दोषों से रहित ग्रहण करने की आज्ञा बतलाई उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उद्दिष्टत्यागी | है और उसी के अनुसार अपनी समाचर्या मुनिजन करते हैं। स्वयं अपने लिए मन-वचन और काय से किसी श्रावक को | कहा भी है - आहार बनाने की प्रेरणा नहीं देता, न दूसरों से कहलवाता पिण्डं सेजं उवधिं उग्गमउप्पायणेसणदीहिं। और न कहकर बनाये गये की अनुमोदना ही करता है। चारत्तिरक्खणहं सोधधयं होदि सुचरितं॥ आहार सम्बन्धी समस्त संकल्प-विकल्पों का मन-वचन
(मूलाचार-द्वि. भाग-समाचार विभाग) काय, कृत-कारित और अनुमोदनारूप नवकोटिपूर्वक त्याग "पिण्ड, शय्या, उपकरण, उद्गम, उत्पादनादि दोषों होता है।
से रहित ही ग्रहण करने से मुनिगणों के चारित्र की रक्षा व श्रावक का मुख्य कर्तव्य ही यह है कि अपने ग्राम या | शुद्धि होती है। अथवा उद्दिष्टादि दोषों से रहित पिण्ड, शय्या, नगर में साधुओं का आगमन होने पर अपने घर भक्तिपूर्वक | उपकरणादि पदार्थ ग्रहण करनेवाला मुनि ही विशुद्ध चारित्र साधुओं का आहार देवे। जो अपने आवश्यक कर्तव्यस्वरूप | का धारी होता है।" दान नहीं देता वह वास्तव में श्रावक ही नहीं है। कुन्दकुन्दाचार्य | पिण्ड (आहार-पानी औषधादि), शय्या (वसतिका, ने रयणसार में कहा भी है - "दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे, | चटाई, फलक, तृणादि), उपकरण (शास्त्र, पच्छिका, णा सावया तेण विणा" दान और पूजा श्रावक का मुख्य | कमण्डलु आदि)। मूलाचार ग्रन्थ मुनियों के आचारसम्बन्धी कर्तव्य है उसके बिना श्रावक, श्रावक नहीं कहा जा सकता। ग्रन्थों में प्रधानग्रन्थ है, उक्त प्रकरण के संबंध में पुनः वहाँ अतः श्रावक को चाहिए कि वह अपने नगर या ग्राम में आये | कहा है किहुए मुनिजनों एवं अन्य त्यागीजनों को आहारदान अवश्य | "जो साधु पिण्ड, उपधि और शय्या आदि का उद्गमदेवे। व्यर्थ के झमेले में पड़कर आहारदान से वंचित न रहे। | उत्पादनादि दोषों से सहित ग्रहण करता है, वह अपने मूलगुणों
मुनिजन प्रायः वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप के अन्तर्गत | से रहित होता हुआ मूलस्थान (श्रावकपद) को प्राप्त हो जाता विभिन्न प्रकार की प्रतिज्ञाएँ लेकर आहार को जाते हैं। यदि | है तथा वह लोक में यति धर्मविहीन होकर श्रमणों में तुच्छ यथाचिंतित वृत्तिपरिसंख्यान जिस भी श्रावक के यहाँ मिल | समझा जाता है।" जाता है वहाँ 46 दोष और 32 अन्तराय टालकर निर्दोष- | अतः जो दाता प्रासुक दान (आहारदानादि) और एषणासमिति-युक्त आहार ग्रहण करते हैं। फिर श्रावकों द्वारा | उपधि(वसतिका, तृणदि) अपने हाथ से शोधकर देता है यह कल्पना करना कि "हमने तो महाराज के लिए आहार | एवं जो पात्र (मुनि) ऐसे आहार अथवा उपधि को ग्रहण बनाया" बिल्कुल अयथार्थ है, क्योंकि यदि महाराज के | करते हैं, तो दाता और पात्र दोनों को महाफल की प्राप्ति होती लिए ही आहार बनाया होता, तो महाराज का आहार अवश्य | है। कहा भी है - ही उस घर में होना चाहिए था, किन्तु ऐसा तो हुआ नहीं।। फासुगदाणं फासुग-उवधिं तह दोवि सोधीए। अतः उक्त प्रकार मिथ्या कल्पना करना व्यर्थ है।
जो देदि जो य गिण्हदिदोण्हं वि महाफलं होई॥ यदि उद्दिष्ट शब्द की उक्त व्याख्या न मानी जावे, तो
• दाता को उद्दिष्ट का त्याग नहीं होता, पात्र को होता है, आगम और व्यवहार के लोप की सम्भावना होगी। दूसरी | क्योंकि दाता तो पिच्छिका, कमण्डलु, औषधि आदि समस्त बात यह है कि उद्दिष्टदोष मात्र आहारदान में ही नहीं होता, | वस्तुएँ पात्र को लक्ष्य करके ही तैयार करता है। यदि वह वरन् चारों ही प्रकार के दानों में माना गया है। यह बात पहले | उद्दिष्ट समझकर दान ही नहीं करे, तो दान का अभाव होगा भी बतायी जा चुकी है कि उद्दिष्टदोष पात्र के आश्रित है, न | तथा बहुत बड़ी अव्यवस्था हो जावेगी, कारण कि दाता और
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पात्र परस्पर में यथायोग्य एक दूसरे पर आश्रित होते हैं, तभी | नहीं होते हैं। तब फिर मुनिराजों के निमित्त से कमण्डलु दोनों गृहस्थ-मुनिधर्म निर्बाधगति से चल सकते हैं। साथ ही | मँगवाकर प्रदान करते हैं अथवा मयूर पिच्छिका तो खासकर निम्न शंकाओं की सन्तति को भी नहीं रोका जा सकेगा। | दिगम्बर साधुओं के लिए ही बनाई जाती है और उन्हें
यदि कहा जावे कि वर्तमान में तो उद्दिष्ट आहार होता | संयमोपकरण के रूप में प्रदान की जाती हैं, तो यदि उनको है, क्योंकि हम नीरस भोजन नहीं करते, गर्मपानी नहीं पीते, | उद्दिष्टदोष से दूषित माना जावेगा, तब उपकरणदान कैसे शुद्ध भोजन नहीं करते इत्यादि कारण कहे जाते हैं। इस | बनेगा और पिच्छिका आदि उपकरण के बिना तो मुनिराज प्रकार की शंकाओं की प्रतिशंकाएँ की जा सकती हैं और वे | का आवागमन भी नहीं बन सकेगा। ही समाधान स्वरूप भी होंगी।
5. इसी प्रकार आर्यिकागण की साड़ी, क्षुल्लक, ऐलक 1. न तो सभी चतुर्थकाल में गरमपानी पीते थे और न | आदि के रंगीन वस्त्र उनके उद्देश्यपूर्वक बनाये जाते हैं। कोई ही आज पीते हैं, तो गरमपानी करना ही उद्दिष्ट माना जावे | भी श्राविका मात्र 16 हस्तप्रमाण एक साटिका नहीं पहनती अथवा मुनिराज चतुर्थकाल में भी एक-दो-तीन या समस्त और न ही श्रावकागण मात्र लंगोट-चादर का उपयोग करते रसों का परित्याग कर भोजन ग्रहण करते थे और आज प्रायः हैं। अतः वे उक्त वस्त्र आर्यिका आदि के निमित्त ही तैयार मुनिराज रसपरित्यागतप के अन्तर्गत रसों का यथासमय कुछ करवाकर उन्हें प्रदान करते हैं। यदि इन्हें उद्दिष्टदोष से दूषित काल की मर्यादा पर्यंत या जीवनपर्यंत एक-दो-तीन या माना जावे, तो फिर वस्त्रदान का अभाव होगा। समस्त रसों का त्याग कर भोजन ग्रहण करते हैं। श्रावक तो इत्यादि अन्य अनेकों शंकाओं का परित्याग होना चतुर्थकाल में प्रायः सभी सरस भोजन करते थे और अब भी | | दुस्तर होगा, तथा आगम मर्यादा का भी लोप हो जावेगा। सरस भोजन ही प्रायः करते हैं। चतुर्थकाल में रसरहित अतः आगम के परिप्रेक्ष्य में उद्दिष्ट का स्वरूप भली भाँति भोजन की व्यवस्था होती थी और अब भी होती है तब फिर | समझकर उद्दिष्ट का त्यागी पात्र होता है, यह निर्णय करके उद्दिष्ट दोष मानने से आहारदान का ही अभाव हो जावेगा। अपने आपको आहारदान आदि में प्रवृत्त करते हुए गृहस्थ
2 किसी मुनिराज को कोई व्याधि विशेष हो जाने पर | धर्म के आवश्यक कर्तव्य का परिपालन अवश्य करना श्रावक अपना परम कर्तव्य समझते हुए उनके रोग निवारण | चाहिए। हेतु औषधोपचार की व्यवस्था बनाता है और मात्र वह तद्रोग " अब यह तो अच्छी प्रकार सिद्ध हो गया है कि उद्दिष्ट से ग्रसित मुनिराज के लिये ही बनाता है, श्रावक स्वयं तो | दोष पात्र के आश्रित होता है, किन्तु उद्गम आदि 16 दोषों में उस रोग से ग्रसित नहीं है। अत: इस प्रकार तैयार की गई | औद्देशिक नाम का एक दोष है, जो पात्र के आश्रित न होकर औषधि को उद्दिष्टदोष से दूषित माना जावेगा, तो फिर | दाता के आश्रित होता है। उस औद्देशिक दोष से दूषित औषधदान का ही अभाव मानना पड़ेगा। ऐसी व्यवस्था | भोजन की जानकारी मिलने पर साधु उसका परित्याग करते वर्तमानवत् ही चतुर्थकाल में भी होती थी,क्योंकि रोगादि तो | हैं और आहार ग्रहण के पश्चात् ज्ञात होने पर उसका प्रतिक्रमण उस समय भी होते थे।
करके आत्मविशुद्धि करते हैं। 3. वसतिका दान का भी अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि | औद्देशिक के सम्बन्ध में मूलाचारादि आचारग्रन्थों में वसतिका भी उद्दिष्ट दोष से दूषित नहीं होना चाहिए, ऐसी | कहा गया है कि जो आहार, वसतिका, उपकरणादि किसी आगम-आज्ञा है, तब फिर कोन्नूर के राजा ने साधुओं के | भी एक पात्रविशेष का उद्देश्य करके तैयार किये जावें, वह लिये 700 गुफाओं को बनवाया था। तेरदाल आदि स्थानों में | औद्देशिक कहलाता है। ऐसे औद्देशिक आहारादि का पता
भी सैकड़ों की संख्या में वसतिकाएँ मुनिराजों के लिये चलने पर साधु उस आहार का परित्याग करते हैं। इस .बनवाई गई थीं। उड़ीसा प्रान्त में भी खण्डगिरि-उदयगिरि | प्रकार उद्गम के 16 दोषों में दाता आश्रित जो औद्देशिक दोष क्षेत्र पर दिगम्बर मुनिश्वरों के लिये महाराजा खारवेल ने | है वह स्वल्प दोष है। "अध:कर्मणः पश्चात् औद्देशिकं अनेकों गुफाएँ बनवाईं थीं, जिनका अस्तित्व आज भी है। | सूक्ष्मदोषमपि परिहर्तुकामः प्राह" अर्थात् “अध:कर्म के यदि इसमें भी उद्दिष्टदोष माना जावे, तो अभयदान के | पश्चात् औद्देशिक नामक स्वल्प दोष को भी दूर करने के प्रतिस्वरूप वसतिकादान भी नहीं बन सकेगा।
लिए कहते हैं।" इन वचनों का यही अभिप्राय है कि 4. पिच्छी-कमण्डलु आदि उपकरण गृहस्थों के लिए | औद्देशिक दोष बहुत बड़ा दोष नहीं है। सूक्ष्म या स्वल्प होने
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पर भी उस दोष को भी टालने की आगम= आज्ञा है। | होना चाहिए कि महाराज को आहार देने के पश्चात् उस भोजन औद्देशिक दोष के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण में से स्वयं नहीं खावे। यदि ऐसा करता है तो वह आहार तो
पात्र विशेष के निमित्त से बना भोजन औद्देशिक है। मुनिराज का उद्देश्य कर बना हुआ ही कहलावेगा।औद्देशिक पात्रविशेष के सम्बन्ध में कहा गया है कि "अन्य पाखण्डी
| दोष का परिहार मात्र आहार के सम्बन्ध में नहीं, वसतिका, जो कोई आवेंगे उनको सभी को दूंगा, परिव्राजक आदि जो
उपकरण आदि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। भी आवेंगे, उन सभी निर्ग्रन्थ साधुओं को दूंगा।" इस प्रकार
जैसा कि पूर्व में कहा गया है, निग्रंथ दिगम्बर मुनियों भिन्न-भिन्न प्रकार के पात्रों को उद्देश्य करके बनाया हुआ
में भी जितने आवेंगे, उन सभी को भी दूंगा, ऐसा उद्देश्य अन्नादि औद्देशिक दोष से दषित होता है। उक्त कथन का करना समादेशदोष-युक्त है। इसी बात पर लोगों की यह मूल अभिप्राय यह है कि किसी खास व्यक्ति के लिए
धारणा बन गई है कि मुनियों के उद्देश्य से बनाया आहार संकल्पपूर्वक कोई उत्तम वस्तु तैयार की गई हो, तो वह
उद्दिष्ट है, किन्तु यह धारणा आगम का रहस्य समझे बिना उद्देश्ययुक्त होने से निर्दोष नहीं है। यदि वह अन्य पात्र को
भ्रान्तियुक्त है। आगम में ऐसा अभिप्राय सर्वथा नहीं है। चार दान में दे दी जावे, तो वह वस्तु जिनके लिए तैयार की गई
प्रकार के उद्देश्यों में "मुनिजनों के लिए बनाया गया भोजन थी उनके परिणाम में मोह-लोभ आदि के निमित्त से असूया
ओद्देशिक दोष युक्त है" उसका अभिप्राय आचार ग्रन्थों में के भाव उत्पन्न हो सकते हैं, जिससे उनके मन को आघात
इस प्रकार कहा है - पहुँच सकता है और दाता के मन में भी अनेक प्रकार के
"जो मुनि मेरी वसतिका (गृह) में ठहरे हैं या मेरी संकल्प-विकल्प होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः | धर्मशलादि में ठहरे हैं, उन्हें ही मैं आहार दूंगा, अन्य मुनियों किसी विशेष व्यक्ति को लक्ष्यकर बनाई वस्तु अन्य को दे | को नहीं " इस प्रकार किसी कारणवश मुनिविशेष को देना औद्देशिक दोष से दूषित है, ऐसा श्रावक आश्रित दोष है।
| लक्ष्यकर उनके उद्देश्य से भोजन बनाकर उन्हें ही देना, सो यदि मुनिराज को ज्ञात हो जावे, तो वे उस आहार को ग्रहण
औद्देशिकदोषयुक्त है। अथवा किसी नवीन वसतिका का नहीं करते हैं। इतना ही नहीं यदि श्रावक अपने को उद्देश्य
निर्माण कराकर यह संकल्प करना कि अमुक मुनिराज को करके भी कोई विशेष भोज्य पदार्थ बनाता है और उसमें यह
ही ठहराऊँगा, अन्य को नहीं। इसी प्रकार उपकरण आदि के संकल्प कर लेता है कि यह मैं ही खाऊँगा, तत्पश्चात् पात्र
तथा आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक के वस्त्रों के सम्बन्ध में भी का निमित्त मिलने पर वह वस्तु उन्हें दे देता है, तो वह
जानना चाहिए। इस सम्बन्ध में मूलाचार, आचारसार, भगवती औद्देशिक होने से ज्ञात होने पर मुनिराज ग्रहण नहीं करते
आराधना, चारित्रसार, मूलाचार प्रदीप, प्रवचनसार तृतीय और यदि ज्ञात नहीं हो सकने पर श्रावक दे भी देता है, तो
अधिकार, षट्प्राभृत, अनगार धर्मामृत, आदि साध्वाचार श्रावक-आश्रित वह दोष होता है। इसी प्रकार नाग, यक्षादि
सम्बन्धी ग्रन्थों का परिशीलन कर उद्दिष्ट-मीमांसा करते हुए के संकल्प पूर्वक बनाया भोजन, पाखण्डी, कुलिंगियों के
अपनी भ्रान्त धारणाओं को मिटाना चाहिए। उद्देश्य से बनाया भोजन भी मुनिराज आदि पात्रों को देना
___ जिस प्रकार वस्त्रादि परिग्रह का अभाव साधु के औद्देशिकदोष युक्त है।
लिए आवश्यक है, उसी प्रकार उद्दिष्ट या औद्देशिक दोष "श्रावक अपने लिये भोजन बनावे और उसमें ही
युक्त आहार, शय्या, उपधि आदि का परित्याग भी परमावश्यक मुनिराज को भी आहार दे" इसका यही अभिप्राय है कि
|है। इस प्रकार आगमग्रन्थों के स्वाध्याय से उद्दिष्ट-मीमांसा श्रावक किसी वस्तुविशेष में खास व्यक्ति का उद्देश्य कर |
| करके यथार्थ मार्ग का अनुकरण करना ही हमारा परमकर्तव्य भोजन न बनावे, सामान्य से भोजन बनावे और पात्रदान के पश्चात् शेष बचे उस भोजन को स्वयं भी खावे। ऐसा नहीं |
'आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार
गुरु जिसका शरीर वैराग्य से विभूषित है और जो परिग्रह के दुष्ट संसर्ग से रहित होता हुआ अपरिमित ज्ञान का स्वरूप है, उसे गुरु जानना चाहिए।
'वीरदेशना'
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जैन परंपरा में वर्षावास
जैन श्रमणपरम्परा में वर्षावास का अत्यन्त महत्त्व है । मेघोदय को । और यह आध्यात्मिक जागृति का महापर्व है, जिसमें स्वपरहित-साधन का अच्छा अवसर प्राप्त होता है। यही कारण है कि वर्षावास को मुनिचर्या का अनिवार्य अंग और महत्त्वपूर्ण योग माना गया है। इसीलिए इसे वर्षायोग अथवा चातुर्मास भी कहा जाता है। श्रमण के दस स्थितिकल्पों में अन्तिम पर्युषणाकल्प है, जिसके अनुसार वर्षाकाल के चार महीने भ्रमण का त्याग करके एक स्थान पर रहने का विधान है। 1 वर्ष के बारह महीनों को छह ऋतुओं में विभाजित किया गया है । यथा 1. बसंत ऋतु (चैत्र वैशाख माह ), 2. ग्रीष्म ऋतु ( ज्येष्ठ-आषाढ़), 3. वर्षा ऋतु (श्रावण-भाद्रपद), 4. शरद् ऋतु (आश्विन - कार्तिक), 5. हेमन्त ऋतु (मार्गशीर्ष पौष) तथा 6. शिशिर ऋतु (माघ-फाल्गुन माह ) । तथा वर्ष को मौसम की दृष्टि से प्रमुख तीन भागों में विभाजित किया गया है । यथा - 1. ग्रीष्म- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ । 2. वर्षा - श्रावण, भाद्रपद, आश्विन तथा कार्तिक । 3. शीतमार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन । यद्यपि ये तीनों ही विभाजन चार-चार माह के हैं, किन्तु वर्षाकाल के चार महीनों का एकत्र नाम " चातुर्मास", वर्षावास आदि रूप में प्रसिद्ध है।
श्वेताम्बरपरम्परा में "पर्युषणा कल्प" नाम से वर्षावास का वर्णन प्राप्त होता है । बृहत्कल्भाष्य में इसे "संवत्सर' कहा गया है । 2 वस्तुतः वर्षाकाल में आकाश मण्डल में घटाएँ छायी रहती हैं। तथा प्राय: वर्षा भी निरन्तर होती रहती है। इससे यत्र-तत्र भ्रमण या विहार के मार्ग रुक जाते हैं, नदी-नाले उमड़ पड़ते हैं । वनस्पतिकाय आदि हरितकाय मार्गों और मैदानों में फैल जाती हैं। सूक्ष्म-स्थूल जीव-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। अतः किसी भी परजीव की विराधना तथा आत्मविराधना (घात) से बचने के लिए श्रमणधर्म में वर्षाकाल में एकत्र - वास का विधान किया गया है। यही समय एक स्थान पर स्थिर रहने का सबसे उत्कृष्ट समय होता है।
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श्रमण और श्रावक, दोनों के लिए इस चातुर्मास का धार्मिक तथा आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्त्व है। इसीलिए श्रमण या उनके संघ के चातुर्मास (वर्षा योग) को श्रावक उसी प्रकार प्रिय और हितकारी अनुभव करते हैं, जिस प्रकार चकवा चन्द्रोदय को, कमल सूर्य को और मयूर
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डॉ. फूलचन्द जैन, प्रेमी, वाराणसी
वर्षावास का औचित्य अपराजित सूरि ने कहा है कि वर्षाकाल में स्थावर और जंगम सभी प्रकार के जीवों से यह पृथ्वी व्याप्त रहती है। उस समय भ्रमण करने पर महान् असंयम होता है। वर्षा और शीत वायु (झंझावात) से आत्मा की विराधना होती है। वापी आदि जलाशयों में गिरने का भय रहता है। जलादि में छिपे हुए ठूंठ, कण्टक आदि से अथवा जल, कीचड़ आदि से कष्ट पहुँचता है। 3 आचारांग में कहा है- वर्षाकाल आ जाने पर तथा वर्षा हो जाने से बहुत से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत से बीज अंकुरित हो जाते है । मार्गों में बहुत से प्राणी तथा बीज उत्पन्न हो जाते हैं । बहुत हरियाली उत्पन्न हो जाती है। ओस और पानी बहुत स्थानों में भर जाता है । पाँच प्रकार की काई आदि स्थानस्थान पर व्यास हो जाती है। बहुत से स्थानों पर कीचड़ या पानी से मिट्टी गीली हो जाती है। मार्ग रुक जाते हैं, मार्ग पर चला नहीं जा सकता । मार्ग सूझता नहीं है। अतः इन परिस्थितियों को देखकर मुनि को वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करना चाहिए। अपितु वर्षाकाल में यथावासर वसति में ही संयत रहकर वर्षावास व्यतीत करें बृहत्कल्भाष्य के अनुसार वर्षावास में गमन करने में षट्कायिक जीवों का घात तो होता ही है, साथ ही वृक्ष की शाखा आदि सिर पर गिरने, कीचड़ मे रपट जाने, नदी में बह जाने, काँटा आदि लगने के भय रहते हैं। श्रमण को प्रत्येक कल्पनीय कार्य करते समय अहिंसा और विवेक की दृष्टि रखना अनिवार्य है । वर्षाकाल में विहार करते रहने में अनेक बाधाओं के साथ ही जीव - हिंसा की बहुलता सदा रहती है। इसीलिए वर्षाकाल के चार माह तक एक स्थान पर स्थिर रहकर वर्षा योग धारण का विधान है। जैन परम्परा के साथ ही प्रायः सभी भारतीय परम्पराओं के धर्मों में साधुओं को वर्षाकाल के चार माह में एक स्थान पर स्थित रहकर धर्म-साधन करने का विधान है।
वर्षायोग ग्रहण एवं उसकी समाप्ति यद्यपि मूलाचार आदि ग्रन्थों में वर्षायोग-ग्रहण आदि की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु उत्तरवर्ती ग्रन्थ ' अनगार- धर्मामृत' में कहा है कि आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में पूर्व आदि चारों ओर दिशाओं में प्रदक्षिणा -क्रम से
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लघु चैत्यभक्ति चार बार पढ़कर सिद्धभक्ति, योगिभक्ति, | तीस दिन तक आगे भी सकारण एक स्थान पर ठहर सकते पंचगुरूभक्ति और शान्तिभक्ति करते हुए आचार्य आदि | हैं। अधिक ठहरने के प्रयोजनों में वर्षा की अधिकता, साधुओं को वर्षायोग-ग्रहण करना चाहिए। आगे बताया है | शास्त्राभ्यास, शक्ति का अभाव अथवा किसी की वैयावृत्य कि वर्षायोग के सिवाय अन्य हेमन्त आदि ऋतुओं में | करना आदि है।11 आचारांग में भी कहा है कि वर्षाकाल के ऋतुबद्धकाल में श्रमणों का एक स्थान में एक मास तक | चार माह बीत जाने पर अवश्य विहार कर देना चाहिए , यह रुकने का विधान है। जहाँ चातुर्मास करना अभीष्ट हो, वहाँ | तो श्रमण का उत्सर्ग मार्ग है। फिर भी यदि कार्तिक मास में आषाढ़ मास में वर्षायोग के स्थान पर पहुँच जाना चाहिए तथा | पुनः वर्षा हो जाए और मार्ग आवागमन के योग्य न रहे तो मार्गशीर्ष महीना बीतने पर वर्षायोग के स्थान को छोड़ देना | चातुर्मास के पश्चात् वहाँ पन्द्रह दिन और रह सकते हैं। 12 चाहिए। कितना ही प्रयोजन होने पर भी वर्षायोग के स्थान में | । स्थानांगसूत्र की दृष्टि से वर्षावास के जघन्य, मध्यम श्रावण कृष्णा चतुर्थी तक अवश्य पहुँच जाना चाहिए। इस | और उत्कृष्ट ये तीन भेद बताये हैं। इनमें सांवत्सरिक प्रतिक्रमण तिथि का उल्लंघन नहीं करना चाहिए तथा कितना ही प्रयोजन (भाद्रपद-शुक्लापंचमी) से कार्तिक पूर्णमासी तक, सत्तर होने पर भी कार्तिक शुक्ला पंचमी तक वर्षायोग के स्थान से | दिनों का जघन्य वर्षावास कहा जाता है। श्रावण से कार्तिक अन्य स्थान को नहीं जाना चाहिए। यदि किसी दुर्निवार | तक, चार माह का मध्यम चातुर्मास है तथा आषाढ़ से मृगसरउपसर्ग आदि के कारण वर्षायोग के उत्तम प्रयोग में अतिक्रम | छह माह का उत्कृष्ट वर्षावास कहलाता है। इसके अन्तर्गत करना पड़े, तो साधु को प्रायश्चित लेना चाहिए।
आषाढ़ बिताकर वहीं चातुर्मास करें और मार्गशीर्ष में भी वर्षायोग-धारण के विषय में श्वेताम्बरपरम्परा के | वर्षा चालू रहने पर उसे वहीं बिताएँ।13 स्थानांग वृत्ति में कल्पसूत्र में कहा है कि मासकल्प से विचरते हुए निर्ग्रन्थ | कहा है कि प्रथम प्रावृट् (आषाढ़) में और पर्युषणाकल्प के
और निर्ग्रन्थियों को आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चातुर्मास के द्वारा निवास करने पर विहार न किया जाए , क्योंकि 'लिए बसना कल्पता है। क्योंकि निश्चय ही वर्षाकाल में | पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास करने के बाद भाद्रशुक्ला पंचमी मासकल्प विहार से विचरनेवाले साधुओं और साध्वियों के | से कार्तिक तक साधारणतः विहार नहीं किया जा सकता, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की विराधना | किन्तु पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में होती है। कल्पसूत्रनियुक्ति में भी कहा है कि आषाढ़ मास | विहार कर भी सकते हैं।14 की पूर्णिमा तक नियत स्थान पर पहुँच कर श्रावणकृष्णा | बृहत्कल्पभाष्य में वर्षावास समाप्ति तक विहार करने पंचमी से वर्षावास प्रारम्भ कर देना चाहिए। उपयुक्त क्षेत्र न | के समय के विषय में कहा है कि जब ईख बाड़ों के बाहर मिलने पर श्रावणकृष्णा दशमी से पाँच-पाँच दिन बढ़ाते- | निकलने लगें, तुम्बियों में छोटे-छोटे तुंबक लग जायें, बैल बढ़ाते भाद्रशुक्ला पंचमी तक तो निश्चित ही वर्षावास प्रारम्भ | शक्तिशाली दिखने लगें, गाँवों की कीचड़ सूखने लगे, रास्तों कर देना चाहिए, फिर चाहे वृक्ष के नीचे ही क्यों न रहना | का पानी कम हो जाए, जमीन की मिट्टी कड़ी हो जाय तथा पड़े। किन्तु इस तिथि का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। जब पथिक परदेश को गमन करने लगें तो श्रमण को भी
वर्षावास का समय - सामान्यत: आषाढ़ से कार्तिक | वर्षावास की समाप्ति और अपने विहार करने का समय पूर्वपक्ष तक का समय वर्षा और वर्षा से उत्पन्न जीव- | समझ लेना चाहिए।15 जीवाणुओं तथा अनन्त प्रकार के तृण, घास तथा जन्तुओं के वर्षावास के मुख्य स्थान - श्रमण को वर्षायोग के पूर्ण परिपाक का समय रहता है। इसीलिए चातुर्मास (वर्षावास) धारण का उपयुक्त समय जानकर धर्म-ध्यान और चर्या की अवधि आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की पूर्वरात्रि से आरम्भ | आदि के अनुकूल योग्य प्रासुक स्थान पर चातुर्मास व्यतीत होकर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि तक मानी | करना चाहिए। आचारांगसूत्र में चातुमोस योग्य स्थान के जाती है।
विषय में कहा है कि वर्षावास करने वाले साधु या साध्वी वर्षावास के समय में एक सौ बीस दिन तक एक | को उस ग्राम-नगर, खेड़, कर्वट, मडंव, पट्टण, द्रोणमुख, "स्थान पर रहना उत्सर्ग मार्ग है। विशेष कारण होने पर अधिक | आकर (खदान), निगम, आश्रय, सन्निवेश या राजधानी की
और कम दिन भी ठहर सकते हैं।10 अर्थात् आषाढ़ शुक्ला | स्थिति भलीभाँति जान लेनी चाहिए। जिस ग्राम-नगर यावत् दसमी से चातुर्मास करनेवाले कार्तिक की पूर्णमासी के बाद | राजधानी में एकान्त में स्वाध्याय करने के लिए विशाल भूमि
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न हो, मल-मूत्र त्याग के लिए योग्य विशाल भूमि न हो, पीठ (चौकी) फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति सुलभ न हो और न प्रासु (निर्दोष) एवं एषणीय आहार- पानी M सुलभ हों, जहाँ बहुत से श्रमण ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी पहले से आए हुए हों और भी आने वाले हों, जिससे सभी मार्गों पर जनता की अत्यन्त भीड़ हो, और साधु साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों से अपने स्थान से सुखपूर्वक निकलना और प्रवेश करना भी कठिन हो, स्वाध्याय आदि क्रिया भी निरुपद्रव न हो सकती हो, ऐसे ग्राम-नगर आदि में वर्षाकाल प्रारम्भ हो जाने पर भी वर्षावास व्यतीत न करे। 16 कल्पसूत्र कल्पलता के अनुसार वर्षावास के योग्य स्थान में निम्नलिखित गुण होना चाहिए - जहाँ विशेष कीचड़ न हो, जीवों की अधिक उत्पत्ति न हो, शौच-स्थल निर्दोष हो, रहने का स्थान शान्तिप्रद एवं स्वाध्याय योग्य हो, गोरस की अधिकता हो, जनसमूह भद्र हो, राजा धार्मिक वृत्ति का हो, भिक्षा सुलभ हो, श्रमण-ब्राह्मण का अपमान न होता हो आदि ।
वर्षावास में भी विहार करने के कारण = अपराजितसूरि के अनुसार वर्षायोग धारण कर लेने पर भी यदि दुर्भिक्ष पड़ जाय, महामारी फैल जाये, गाँव अथवा प्रदेश में किसी कारण से उथल-पुथल हो जाय, गच्छ का विनाश होने के निमित्त मिल जायें, तो देशान्तर में जा सकते हैं। क्योंकि ऐसी स्थिति में वहाँ ठहरने से रत्नत्रय की विराधना होगी। आषाढ़ की पूर्णमासी बीतने पर प्रतिपदा आदि के दिन देशान्तरगमन कर सकते हैं। 18 स्थानांगसूत्र में इसके पाँच कारण बताये हैं. - 1. ज्ञान के लिए, 2. दर्शन के लिए, 3. चारित्र के लिए, 4. आचार्य या उपाध्याय की मृत्यु के अवसर पर तथा, 5. वर्षा क्षेत्र के बाहर रहे हुए आचार्य अथवा उपाध्याय की वैयावृत्य करने के लिए। 19 और भी कहा है कि निर्बंध और निर्ग्रन्थियों को प्रथम प्रावृट् चातुर्मास के पूर्वकाल में ग्रानानुग्राम विहार नहीं करना चाहिए। किन्तु इन पाँच कारणों से विहार किया भी जा सकता है
1. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर, 2. दुर्भिक्ष होने पर, 3. किसी के द्वारा व्यथित किये जाने
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पर अथवा ग्राम से निकाल दिये जाने पर, 4. बाढ़ आ जाने पर तथा 5. अनार्यों द्वारा उपद्रव किये जाने पर 120
इस प्रकार वर्षावास के विषय में जैन आचार शास्त्रों में यह विवेचन प्राप्त होता है। श्रमण के वर्षावास का समय उसी प्रकार कषायरूपी अग्नि को एवं मिथ्यात्व रूपी ताप को त्याग एवं वैराग्य की शीतल धारा से तथा स्वाध्याय और ध्यान की जलवृष्टि से शान्त करने का होता है, जिस प्रकार जल की शीतल धारा बरस कर धरती की तपन शान्त करती है।
सन्दर्भ -
1.
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3.
4.
5.
6.
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8.
9
"वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः । " भगवती आराधना । वि. टी. 421 / पृष्ठ 618, मूलाचार वृत्ति
10/18 I
बृहत्कल्पभाष्य 1 / 36 |
भ. आ./वि. टीका 421, पृ. 618 ।
19.
20.
आचारांग सूत्र 2/3/1/1111
बृहत्कल्पभाष्य भाग 3 गाथा 2736-27371
अनगारधर्मामृत 9/66-671
अनगार धर्मामृत 9/68-691
"कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा एवं विहेणं विहाररेणं विहरमाणाणं आसाढपुण्णिमाए वासावासं वसित्तए ।" कल्पसूत्र सूत्र 17, पृ. 74 (कल्पमंजरी टीका सहित) ।
कल्पसूत्र नियुक्ति गाथा 16, कल्पसूत्र चूर्णि पृ. 89 ।
भ. आ. वि. टीका 4211
वही।
10.
11.
12. आचारांग 2/3/1/113, पृ. 1064 13. स्थानांग 5/61-621
14. स्थानांग वृत्ति पत्र 294, 295।
15. बृहत्कल्पभाष्य भाग, 2, 1 / 1539-401
16. आचारांग सूत्र 2/3/1/465।
17. कल्पसूत्र - कल्पलता पं. 3/1 तथा कल्पसमर्थनम् गाथा26 | 18. भ. आ. वि. टीका 421, अनगारधर्मामृत ज्ञानदीपिका 9
80-81, पृ. 6891
ठाणं 5/100, पृ. 575 1
वही 5/99, पृ. 5741
जीव और कर्म इन दोनों का जो अनादिकाल से सम्बन्ध सिद्ध है, उसे नष्ट करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय के अलावा दूसरा और कोई भी समर्थ नहीं है ।
'वीरदेशना'
'डॉ. लालबहादुर शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार
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क्या 'सकांक्ष पूजा' मिथ्यात्व है? एक विवेचन
प्रश्न- क्या 'नवग्रह अरिष्ट निवारक विधान' करना उचित है ?
"जिनभाषित" नवम्बर 2005 के अंक में प्रकाशित | में कोढ़ आदि ऐसी व्याधियाँ, जो धार्मिक क्रियाकलापों के संपादकीय लेख “साकांक्ष पूजा" पर बहुत से लोगों से, करने में बाधा उत्पन्न करती हैं आदि, तो इन संकटों के अनेक प्रकार के प्रश्न प्राप्त हुए हैं। उन सब प्रश्नों का इस निवारणार्थ, सम्यग्दृष्टि जीव पूजा-अनुष्ठान आदि कर सक लेख के माध्यम से समाधान प्रस्तुत किया जा रहा है है। इसके अलावा शुद्ध सम्यग्दृष्टि तो आत्मकल्याण के लिए ही पूजा-अनुष्ठान आदि करता है। उसका मुख्य कारण विषयकषायों को रोकना और शुद्धात्म भावना की सिद्धि करना होता है । अत: नवग्रह द्वारा दिये गये दुःखों के निवारण के लिये कोई भी विधान करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ।
उत्तर - इस प्रश्न के उत्तर में यह विचार करना अति आवश्यक है कि क्या जैन शास्त्रों में सूर्य, चन्द्र आदि नवग्रह मान्य हैं, या नहीं ? लोक में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू, केतु ये नवग्रह माने जाते हैं। जबकि जैनप्रश्न क्या ये 'नवग्रह' हम संसारी जीवों को दुख आगम में चन्द्रमा इन्द्र, सूर्य को प्रतीन्द्र और बुध, शुक्र देने की सामर्थ्य रखते हैं ? आदि 88 ग्रहों का वर्णन पाया जाता है। इससे यह सिद्ध है। कि नवग्रह मानने की परम्परा वैदिक है, जैन आगम सम्मत नहीं। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है
उत्तर
इसके उत्तर में कार्तिकेयानुप्रेक्षा की निम्न गाथा बहुत उपयोगी है :
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ 23 ॥
अर्थ - जो अपने को अच्छा लगता है उसे वर कहते हैं । वर की इच्छा करके आशावान् होकर जो रागद्वेष से मलिन देवताओं का सेवन करता है, पूजन करता है, उसे देवतामूढ़ कहते हैं और उसका कार्य देवमूढ़ता कहलाता है। अर्थात् किसी भी आशा से सहित होकर सूर्य-चन्द्र आदि की पूजा करना देवमूढ़ता है। अब आप स्वयं सोचें कि क्या देवमूढ़ता के सेवन से कष्टों का निवारण करना संभव है ? उत्तर - कदापि संभव नहीं ।
यद्यपि 'नवग्रह अरिष्ट निवारक विधान' में चौबीस तीर्थंकरों की पूजा का ही वर्णन है। परन्तु उनको 'सर्वग्रह अरिष्ट निवारक' कहना आगमसम्मत नहीं है । 'नवम्बर 2005 के जिनभाषित' के पेज नं. 3 पर लिखा है, 'मिथ्यादृष्टि तो भोगाकांक्षा के निदानबंधस्वरूप शुभपरिणाम करता है, जबकि सम्यग्दृष्टि जीव ख्याति - पूजा - लाभ- भोगाकांक्षा-निदान-बंधरहित होकर पंचपरमेष्ठी के गुणस्मरणादिरूप शुभोपयोग करता है।' पूजा-पाठ आदि शुभ कार्य करने के तीन कारण होते हैं- 1. सांसारिक भोगों की प्राप्ति 2. आए हुए कष्टों से मुक्ति 3. आत्मकल्याण। इनमें सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिए धार्मिक अनुष्ठान करनेवाला जीव तो मिथ्यादृष्टि ही है। यदि कोई जीव कष्ट निवाराणार्थ, जैसे यदि मंदिर से मूर्ति चोरी हो जाए, यदि कोई धार्मिक संकट उपस्थित हो जाये, यदि शरीर
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पं. सुनील कुमार 'शास्त्री '
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णय को विदेदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणादि ॥ 319 ॥ भत्तीए पुज्जमाणो विंतर देवो वि देदि जदि लच्छी । तो किं धम्मं कीरदि एवं चिंतेद सद्दिट्ठी ॥ 320 ॥
अर्थ - न तो कोई (शिव-विष्णु- ब्रह्मा-यक्ष- क्षेत्रपाल तथा सूर्य-चन्द्रमा एवं ग्रह आदि) जीव को लक्ष्मी देता है। और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीव का अपकार और उपकार करते हैं । 319 ॥
सम्यग्दृष्टि विचारता है कि यदि भक्तिपूर्वक पूजा करने से व्यंतर देवी-देवता भी यदि लक्ष्मी दे देते, तो फिर धर्म करने की क्या आवश्यकता ॥ 320 ॥
उपर्युक्त दोनों गाथाएँ तो यह स्पष्ट उल्लेख कर रही हैं कि सूर्य-चन्द्र व ग्रह आदि जीव का उपकार या अपकार नहीं करते। सच तो यह है कि इन सूर्य-चन्द्र आदि की गति आदि के द्वारा जीवों का भविष्य जाना जा सकता है, और यही ज्योतिष विद्या का कार्य है। ऐसा नहीं है कि यदि कोई ज्योतिषी ग्रह आदि के आधार से किसी के बुरे भविष्य को बताये, तो उस ग्रह आदि की पूजा करने से वह संकट टल जायेगा । असातावेदनीय कर्म के उदय से आया हुआ संकट, इन ग्रहों की पूजा करने से बढ़ तो सकता है, परन्तु घटना कदापि संभव नहीं है । उदाहरणार्थ पूज्य आ. श्री विद्यासागर जी महाराज का निम्न संस्मरण उपादेय है- पूज्य आचार्य श्री से एक सज्जन ने पूछा 'महाराज, मुझ पर नवग्रह का प्रकोप है। मुझे इससे बचने के लिए क्या करना चाहिए।' आचार्य
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श्री ने कहा 'ग्रह नौ क्यों मानते हो दस मानो। दसवाँ ग्रह | इसे पापकर्मों के उदय का फल जानकर शांति से, समतापूर्वक परिग्रह है। इसको छोड़ दो, तो कोई ग्रह तुम्हारा कुछ बिगाड़ सहन करता है। ज्ञानी जीव विषय-कषायों की इच्छा रहित नहीं सकेगा। सारांश यह है कि ये 'नवग्रह' हमें दुख देने | होता हुआ पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि करता है, क्योंकि की सामर्थ नहीं रखते।
वह जानता है कि 1. प्रभुभक्ति से असातवेदनीय का साता में प्रश्न - क्या शांतिविधान करना उचित है ? संक्रमण हो जाता है। 2. असातावेदनीय का अनुभाग क्षीण
उत्तर - इस संबंध में यदि आप गौर से 'शांतिविधान' | हो जाता है। 3. सातावेदनीय का बंध होता है। ये तीनों कारण के सभी अर्थों को देखेंगे, तो उनमें यह कहीं भी नहीं लिखा | सांसारिक दुखों के नाश एवं सुखों की प्राप्ति में हेतु है। है कि मेरी सांसारिक परेशानियाँ दूर करें या मुझे सांसारिक | इसलिए ज्ञानीजीव विषय-कषाय दूर करने के लिए तथा सुखों की प्राप्ति कराएँ। 'शांतिविधान' के सभी अक़ का | शुद्धात्मभावना की साधना के लिए पंचपरमेष्ठी के तात्पर्य यही है कि सभी सांसारिक दुःखों को दूर करनेवाले | गुण्स्मरणादिरूप शुभोपयोगपरिणाम करता है। उदाहराणार्थ तथा सभी प्रकार के सांसारिक एवं आत्मिक सुखों को प्रदान | इस संबंध में पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का करने वाले 'शांतिनाथ भगवान्' को अर्घ समर्पित करता हूँ। | निम्न संस्मरण परम उपादेय है - एक प्रतिमाधारी सज्जन इन अर्षों में कही भी सांसारिक सुखों की कामना नहीं है। बड़े दुःखी मन से पूज्य आचार्य श्री से कह रहे थे, 'मैंने केवल भक्तिभाव से पूजा करने के फल का वर्णन है। अतः आपसे पाँच लाख रुपये की संपत्ति का नियम लिया था और 'शांतिनाथ विधान' करना अनुचित कैसे कहा जा सकता है? | व्यापार छोड़ दिया था। जिसके पास ब्याज की आमदानी के
प्रश्न - प्रतिक्रमण पाठ तथा अन्य स्तोत्र आदि भी तो | लिए रुपये जमा करवाए थे, वह पार्टी फेल हो गई है। अब आचार्यों ने दु:खों के नाश के लिए फिर क्यों लिखे? मैं बड़ा दुःखी हूँ, क्या करूँ? कोई मन्त्र आदि बता दीजिए
उत्तर - प्रतिक्रमण पाठ में जो 'दुक्खक्खओ | ताकि संकट दूर हो जाये।' पूज्य आचार्य श्री यह सब सुनकर कम्मक्खओ' आदि पाठ आता है, उसमें 'दु:खों का क्षय हो' | मुस्कराए और बोले 'अब तो आनंद आ गया। रुपयों से तो इसके अन्तर्गत जन्म-जरा और मृत्यु इन दुखों के नाश होने | पीछा छूट ही गया, कपड़ों को और छोड़ दो और मेरे पास आ की भावना है अर्थात् संसार भ्रमण के नष्ट होने की भावना है, जाओ।सारे संकट तुरंत समाप्त हो जायेंगे।' आगमनिष्ठ शुद्ध कोई पुत्रसंबंधी, धनसंबंधी या परिवारसंबंधी दुखों के नाश | चारित्र पालनेवाले आचार्यों एवं मुनि-आर्यिकाओं का उत्तर होने की भावना नहीं है। मैनासुंदरी से भी मुनिराज ने यही | उपर्युक्त प्रकार ही होना चाहिए ताकि लौकिकजन सांसारिक कहा था कि तुम सिद्धचक्रविधान करो, इससे समस्त पाप | | सुखों में उपादेयता मानना छोड़ दें। कर्मों का नाश होता है। मैनासुंदरी ने यदि बिना निदान के, | वर्तमान में मुनिभक्ति का रूप एकदम बदल गया है। विधान न किया होता तो शायद ऐसा फल देखने में न आता। अधिकांश साधर्मी भाइयों का लक्ष्य यही रहता है कि महाराज आ. शांतिसागर महाराज ने भी एक व्यक्ति के सफेद दाग दर की भक्ति से हमारे सांसारिक धन-संबंधी, शरीर संबंधी, करने के लिए एकीभाव स्तोत्र पाठ करने के लिए उपदेश | कोर्ट-कचहरी संबंधी दुख नष्ट हो जायें। ये महाराज कोई दिया था, क्योंकि वह सफेद दाग के कारण धार्मिक अनुष्ठान | ऐसा मंत्र दे दें, जिससे हमें अमुक कार्य की सिद्धी हो जाय। नहीं कर पाता था। सीताजी ने भी अग्निशिखा को जल बनाने | इस माहौल को देखकर अधिकांश साधु भी श्रावकों को के लिए प्रभुस्तवन नहीं किया था। इन सब प्रसंगों में दुःखों | आकर्षित करने के लिये, उनको यंत्र-मंत्र आदि देने लगे हैं, के नाश के लिये भक्ति नहीं की गई थी। ये सब प्रसंग बताते | जो आगमदृष्टि से कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यह हैं कि निष्कांक्ष भक्ति करने वालों के दःख स्वयमेव नाश को | हमारे समाज के दुर्भाग्य का सूचक है। वीतरागता का पाट प्राप्त हो जाते हैं।
पढ़ाने वाले निर्ग्रन्थ साधु ही यदि हमें भोगों की प्राप्ति में प्रश्न - वर्तमान में बहुत से साधु एवं आर्यिकाएँ | सहायक बन जायेंगे, तो फिर त्याग-तपस्या का पाठ कौन फिर हमारे दुःखों को दूर करने के लिए मंत्र क्यों देते हैं ? | पढ़ायेगा?
उत्तर - वर्तमान में बहुत से साधु एवं आर्यिका आदि| अत: सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिये 'साकांक्ष' पुत्रप्राप्ति के लिए , व्यापारसमृद्धि या धनप्राप्ति के लिए, | पूजा करना मिथ्यात्व ही है और सम्यक्त्व को नष्ट करने में मुकदमा जीतने के लिए जो मंत्र-जाप आदि करने की राय | कारण है। देते हैं वह आगमदृष्टि से उचित नहीं है।
972, सेक्टर-7 आवास विकास कालोनी, आगरा उपर्युक्त परिस्थितियों के उपस्थित होने पर ज्ञानी तो
मो. -9411206855
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श्री शांतिनाथ दि. जैन अतिशय क्षेत्र बजरंगढ़
श्रेष्ठी पाड़ा शाह द्वारा निर्मित 800 वर्ष प्राचीन जिनालय के गर्भगृह में स्थित श्री अरहनाथ, श्री शान्तिनाथ एवं श्री कुन्थुनाथ की 18 फीट ऊँची प्रतिमाएँ
प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण एवं सुरम्य पहाड़ियों | की कार्यकुशलता का ज्वलंत प्रमाण है। इसका प्राचीन नाम की तलहटी में स्थित ऐतिहासिक नगरी बजरंगगढ़ आज पूरे | जैननगर था। लेकिन बाद में किले के भीतर स्थापित बजरंग विश्व में दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र के रूप में प्रसिद्धि पा | मंदिर के नाम पर इसका नामकरण बजरंगढ़ हुआ। पूर्व में चकी है। प्रदषण एवं कोलाहल से दर पलाश एवं अन्य घने | यह जिला मख्यालय भी रहा है। वर्तमान में यहाँ के अधिसंख्य वृक्षों की छाया से घिरे तथा आज पूरी तरह खंडहरों का गाँव | जैन परिवार गुना में बस गए। बन चुके बजरंगगढ़ की गौरव गाथा इस अतिशय क्षेत्र के
निश्चय ही ऐसे स्थल हमारी संस्कृति की अनुपम कारण पुनः जनमानस को अपनी ओर आकर्षित कर रही
धरोहर होते हैं। इनका संरक्षण-संवर्द्धन करना हर नागरिक है। जिला मुख्यालय गुना से मात्र 7 किलोमीटर की दूरी पर
का कर्त्तव्य है। इसी उद्देश्य से दिगम्बराचार्य 108 श्री दक्षिण दिशा में गुना-आरोन-सिरोंज मार्ग पर स्थित इस अतिशय
विद्यासागरजी मुनिराज के पटुशिष्य मुनि 108 श्री सुधासागरजी क्षेत्र का इतिहास 8 शताब्दी प्राचीन है। किले के नीचे नदी
महाराज एवं ऐलक 105 श्री नि:शंकसागर जी के सान्निध्य तट पर बसे इस ऐतिहासिक ग्राम में पाड़ाशाह द्वारा निर्मित
में सन् 1992 में इन प्रतिमाओं का जीर्णोद्धार किया गया। भव्य जैन मंदिर स्थित है। इसके गर्भगृह में 12 वीं सदी की शांत मुद्रा में 18 फीट उत्तुंग खगासन मुद्रा की प्रतिमाएँ
अतिशय क्षेत्र में भगवान् श्री शांतिनाथ जी का विशाल स्थापित हैं। जो भक्तजनों को वीतरागता का अनुपम उपदेश
- रमणीक समवशरण भी है। यह अतिशय क्षेत्र दिगम्बर जैनाचार्य देती रहती हैं। ये विहंगम प्रतिमाएँ लाल पाषाण से निर्मित
श्री गणधरस्वामी की तपोभूमि भी रहा है। प्रतिवर्ष यहाँ तथा ध्यानस्थ एवं अतिशययुक्त हैं।
कार्तिक वदी पंचमी को देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव के विमानोत्सव
का विशाल चलसमारोह आयोजित किया जाता है। जिसमें गुफा में स्थित, ये प्रतिमाएँ मन को भक्ति रस से
दूरस्थ स्थलों से हजारों नरनारी उत्साहपूर्वक शामिल होते हैं। सरावोर कर असीम शांति पहुँचाती हैं। इनके चहुँ ओर भित्तियों
| प्रतिवर्ष जेठ वदी 14 को भगवान श्री शांतिनाथ जी के जन्म, में स्थापित अनेक प्राचीन प्रतिमाएँ वास्तुकला का अनुपम
| तप एवं मोक्ष कल्याणक के अवसर पर यहाँ महामस्तकाभिषेक उदाहरण हैं । इसके अतिरिक्त शिलालेख, भित्तिचित्र भी कला
समारोहपूर्वक आयोजित किया जाता है। इसी प्रकार पर्दूषण के सुंदर नमूने हैं। कला और अध्यात्म का यहाँ दुर्लभ संयोग
मागील है। पौराणिक कथानकों पर आधारित ये चित्र अपनी निमिति | श्री जी की शोभायात्रा का कार्यक्रम आयोजित किया जाता में पूर्णतः मौलिक एवं अद्वितीय हैं। संवत् 1236 में श्री पाड़ाशाह द्वारा बजरंगढ़ में श्री
यहाँ दो जैनमंदिर और भी हैं-एक मुख्य बाजार में शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर के निर्माण एवं प्रतिमाओं की
श्री झीतूशाह द्वारा निर्मित किया गया श्री पार्श्वनाथ जिनालय स्थापना के अलावा थूबोनजी, चंदेरी, पपोराजी (म.प्र.) तथा
तथा दूसरा श्री हरिशचन्द्र टरका द्वारा बनवाया गया टरका का चाँदखेड़ी (राजस्थान) में भी कई जिनालयों का निर्माण
मंदिर। लगभग 50 वर्ष पूर्व जैन परिवारों के बजरंगढ़ से कराया गया था। इतिहास में ऐसा उल्लेख मिलता है कि
बाहर निवास करने के कारण इस मंदिर में स्थापित श्री पाड़ाशाह के पड़े इस क्षेत्र में रात्रि में रुके थे और एक पड़े
चंद्रप्रभु भगवान की प्रतिमा गुना जैन मंदिर में प्रतिष्ठित कर की लोहे की जंजीर स्वर्ण की हो गयी थी। खोज करने पर
दी गई थी। वर्तमान में यह प्रतिमा श्री चंदाप्रभु चैत्यालय उन्हें इस स्थान पर पारस पत्थर की प्राप्ति हुई। इससे प्रभावित
मल्हारगंज इन्दौर में स्थापित है। टरकाजी के इस मंदिर में होकर उन्होंने यहाँ एक भव्य जैनमंदिर बनाने की प्रतिज्ञा
चित्रों द्वारा भव्य चौबीसी बनाई गई है। की। यह क्षेत्र पाड़ाशाह की उदारता, निष्ठा एवं शिल्पज्ञों
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 35
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धर्मशालाएँ
इस सुप्रसिद्ध अतिशय क्षेत्र पर दो विशाल धर्मशालाएँ हैं, जिनमें एक श्री शान्तिनाथ अतिशय क्षेत्र से लगी हुई है, जिसमें वैवाहिक, धार्मिक एवं अन्य सामाजिक आयोजनों हेतु पूर्ण सुविधाएँ उपलब्ध हैं। साथ ही बाहर से आए यात्रियों के ठहरने का समुचित प्रबन्ध भी है। श्री शांतिनाथ दिगम्बर जिनालय की धर्मशाला में भूतल पर कमरे तथा विशाल बरामदा, एवं प्रथम तल पर कक्षों के अतिरिक्त एक सभाकक्ष है । क्षेत्र पर स्थित एक अन्य धर्मशाला में आचार्य श्री विद्यासागरभवन के नाम से एक विशाल सभाकक्ष है। इस खण्ड में पाँच कमरे, स्नानघर तथा शौचालय की सुविधायुक्त, तीन कमरे भोजन बनाने की व्यवस्था सहित तथा छह अन्य कमरे भी हैं । समस्त कक्ष पलंग, बिस्तर, टेबिल कुर्सी, पंखों से सुसज्जित हैं।
वृद्धाश्रम
बाजारमंदिर स्थित धर्मशाला में जैन युवा संगठन, गुना द्वारा वृद्धाश्रम का निर्माण किया गया है। सांसारिक वृत्तियों से उदासीन हो अपने जीवन का अंतिम समय वृद्धजन आत्मकल्याण हेतु व्यतीत कर सकें, इस भावना से निर्मित वृद्धाश्रम शीघ्र ही प्रारंभ किया जा रहा है।
प्रस्तावित निर्माण
बड़े मंदिर में लगा हुआ 90 द 140 फीट का एक भूखंड क्षेत्र समिति द्वारा क्रय किया गया है, जिस पर संतों एवं विद्वजनों के परामर्शानुसार निर्माण कार्य किया जावेगा । इसकी बाउण्ड्री का कार्य वर्तमान में चल रहा है। | यातायात की उपलब्ध सुविधाएँ
1. गुना नगरी, आगरा - बम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। ग्वालियर, इन्दौर, उज्जैन और भोपाल से प्रत्येक समय गुना तक आने के लिये यात्री बसें उपलब्ध रहती हैं। गुना, सिरोंज व आरोन से बजरंग गढ़ आने के लिये बसें एवं छोटे वाहन (ऑटो, जीप इत्यादि) हर समय उपलब्ध रहते हैं।
2. गुना नगरी मध्य रेलवे के बीना-कोटा रेल्वे लाइन पर स्थित है। यहाँ आने के लिए बीना, उज्जैन व कोटा से रेल सुविधा उपलब्ध है । इन्दौर से गुना होते हुए ग्वालियर तक इंटरसिटी एक्सप्रेस, मालवा एक्सप्रेस, देहरादून एक्सप्रेस यातायात के प्रमुख साधन के रूप में हैं, जो दिल्ली से गुना को सीधे जोड़ते है।
सादा जीवन, उच्च विचार
गाँधी जी - राष्ट्रपिता के नाम से विख्यात हुए। एक दिन की बात है, वे घूमने जा रहे थे । वे एक तालाब के किनारे से निकले। उनकी दृष्टि तालाब की ओर गयी। उन्होंने देखा कि एक बुढ़िया ने आधी धोती पहिन रखी है और आधी धो रही है। उसे देखते ही वे करुणासागर में डूब गये । उनकी आँखों में आँसू आ गये।
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गाँधी जी ने बुढ़िया की हालत देखकर सोचा कि अरे ! इसके पास तो ठीक से पहिनने के लिए भी वस्त्र नहीं है। ओढ़ने की बात तो बहुत दूर है। कितना अभावग्रस्त जीवन है इसका, फिर भी इसने किसी से जाकर अपना दुख नहीं कहा। इतने में ही काम चला रही है ।
क्षेत्र की प्रबन्धकारिणी समिति द्वारा प्रकाशित विवरण के आधार पर ।
गाँधी जी ने जब से जनता के दुख भरे जीवन को देखा, तब से उन्होंने “सादा जीवन प्रारंभ कर दिया "। वे छोटी सी धोती पहनते थे, जो घुटने तक आती थी ।
उनका सादा जीवन, उनके उच्च विचार आदर्श हैं, जनता के लिए। उनके पास ऐसी आँखें थीं जिनमें करुणा का जल छलकता रहता था । यथार्थ में धर्म यही है कि दीन दुखी जीवों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलक आये, अन्यथा छिद्र तो नारियल में भी हुआ करते हैं। दयाहीन आँखें नारियल के छिद्र के समान
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'विद्याकथकुञ्ज'
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प्रश्नकर्ता : नवीन चन्द्र जैन, दिल्ली । जिज्ञासा : क्या उपशम सम्यक्त्व के साथ मतिज्ञान
संभव है?
जिज्ञासा - सामाधान
समाधान : उपशम सम्यक्त्व दो प्रकार का होता है । १. प्रथमोपशम सम्यक्त्व- मिथ्यादृष्टि जीव को जो उपशम सम्यक्त्व होता है, वह प्रथमोपशम कहलाता है। 2. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व- क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव को उपशम-श्रेणी आरोहण से पूर्व जो उपशमसम्यक्त्व होता है, वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है ।
उपर्युक्त दोनों उपशम सम्यक्त्वों में से, प्रथमोपशम सम्यक्त्वी के मन:पर्ययज्ञान नहीं हो सकता, जब कि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के मनःपर्यायज्ञान संभव है। इसका कारण बताते हुए श्री धवला पु. 2, पृष्ठ 727 में इस प्रकार कहा है - " जो वेदकसम्यक्त्व के पीछे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व
प्राप्त होता है, उस उपशमसम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में भी मनः पर्ययज्ञान पाया जाता है, किन्तु मिथ्यात्व से पीछे आये हुए (प्रथम) उपशमसम्यग्दृष्टि जीव में मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यात्व से पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि के उत्कृष्ट उपशमसम्यकत्व के काल से भी ग्रहण किये गये संयम के प्रथम समय से लगाकर सर्वजघन्य मन:पर्ययज्ञान को उत्पन्न करनेवाला संयम काल बहुत बड़ा है। "
जिज्ञासा : एक जीव के क्या केवल मतिज्ञान ही होना संभव है, जब कि प्रत्येक जीव में कम से कम मति और ये दो ज्ञान तो पाये ही जाते हैं। श्रुत,
समाधान: तत्त्वार्थ सूत्र (अध्याय 1/30 ) में कहा है, 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः'। अर्थ - एक आत्मा में एक को आदि लेकर एक साथ चार ज्ञान तक भजनीय हैं। भावार्थ - यदि एक ज्ञान तो केवलज्ञान, दो हों तो मति एवं श्रुत, तीन हों तो मति, श्रुत, अवधि या मति, श्रुत एवं मन:पर्यय तथा चार हों तो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय ।
उपर्युक्त सामान्य अर्थ के अनुसार प्रत्येक संसारी जीव के मति एवं श्रुत ये दोनों ज्ञान अवश्य पाये जाते हैं। परन्तु राजवार्तिक में इस सूत्र की टीका करते हुए अकलंकदेव ने एक विशेष व्याख्या इस प्रकार भी दी है
पं. रतनलाल बैनाड़ा
'संख्यावचनोऽयमेकशब्दः । ' एकमादिर्येषां तानीमान्येकादीनि । कथम् ? मतिज्ञानमेकस्मिन्नत्मनि एकम्, यदक्षरश्रुतं द्व्यनेकद्वादशभेदमुपदेशपूर्वकं तद्भजनीयम् स्याद्वा न वेति । ' अर्थ एक शब्द संख्यावाची है। इसलिए एक है आदि में जिसके वह एकदीनि है। इससे आत्मा में एक अकेला मतिज्ञान भी हो सकता है, क्योंकि उपदेशपूर्वक होनेवाला जो दो- अनेक बारह भेद रूप अक्षरश्रुत है वह भजनीय है, अर्थात् किसी के होता है और किसी के नहीं। भावार्थ तात्पर्य यह है कि किसी आत्मा में मतिज्ञान तो हो, परन्तु श्रुतज्ञान के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट, इन दोनों भेदों में से कोई भी ज्ञान न हो, तो इस जीव के केवल एक मतिज्ञान भी संभव है।
यहाँ यह भी जानने योग्य है कि उपर्युक्त कथन आत्मा में लब्धि की अपेक्षा होने वाले ज्ञानों की अपेक्षा है। उपयोग में तो प्रत्येक जीव के एक समय में एक ही ज्ञान हो सकता है, इससे अधिक नहीं। जैसे जब अवधिज्ञानरूप उपयोग रहता है, तब अन्य कोई भी ज्ञान उपयोग में नहीं रहता ।
प्रश्नकर्ता: पं. बसंतकुमार शास्त्री, शिवाड़ । जिज्ञासा : तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् होती है या अलग-अलग ?
समाधान : उपर्युक्त विषय पर श्री धवला पु. 1/ 279 तथा श्री धवला पु. 7/77 में अच्छा प्रकाश डाला गया है, जिसका भावार्थ यह है कि तीनों योगों की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती है, अन्यथा एक साथ मानने पर आत्मा में योग नहीं बन सकेगा । यदि कोई कहे कि लोक में सिनेमा आदि देखते समय या क्रिकेट का मैच आदि देखते समय तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् दिखाई देती है ? इसका उत्तर यह है कि योग और प्रवृत्ति में अन्तर होता है। मन-वचनकाय के व्यापार को प्रवृत्ति कहते हैं, जब कि आत्मा के प्रयत्न को योग कहा जाता है। प्रवृत्ति तो तीनों योगों की एक साथ हो सकती है, परन्तु आत्मा का प्रयत्नरूप योग एक समय में एक ही होता है। जैसे किसी यात्री की अटैची कोई चोर लेकर भाग जाता है। वह यात्री उस चोर के पीछे दौड़ भी रहा है, चीख भी रहा है और सोच भी रहा है कि अटैची कैसे मिले। यहाँ तीनों योगों की प्रवृत्ति एक साथ हो
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रही है, परन्तु आत्मा का प्रयत्नरूप योग केवल एक ही हो | नहीं आता।" सकता है, ताना नहा। अर्थात् जब उसका प्रयत्न चीखने | 4. श्री धवला पु.1, पृष्ठ 191 पर इस प्रकार शंका रूप रहता है, तब वचन रूप प्रयत्न रहता है, मन एवं काय | की गई है कि जिन जीवों की कषाय क्षीण (नष्ट) अथवा रूप नहीं। जब तेज दौड़ने रूप प्रयत्न रहता है, तब कायरूप | उपशान्त हो गई है, उनके शुक्ललेश्या का होना कैसे संभव प्रयत्न है, मन एवं वचन रूप नहीं, आदि। इससे यह स्पष्ट | है ? इसका समाधान - नहीं, क्योंकि जिन जीवों की कषाय है कि योगों की प्रवृत्ति एक साथ होते हुए भी, आत्मा का | क्षीण अथवा उपशान्त हो गई है, उनमें कर्मलेप का कारण प्रयत्नरूप योग तो एक समय में एक योग का ही होता है। योग पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से उनके शुक्ललेश्या
जिज्ञासा : कषायों के उदय की अपेक्षा लेश्यायें | मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। होती हैं, तो क्षीणकषाय अवस्था में किसी भी प्रकार की | उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार जो आत्मा को कर्मों से लेश्या का अभाव होना चाहिए , जबकि वहाँ शुक्ल लेश्या | लिप्त करती है, उसे लेश्या कहते हैं। कषाय रहित 11वें, कही गई है, वह कैसे?
12वें और 13वें गुणस्थान में योग होने के कारण आस्रव समाधान : उपर्युक्त के संबंध में स्वार्थसिद्धि 2/6 | निरन्तर पाया जाता है, इसलिए इन गुणस्थानों में लेश्या का में इस प्रकार कहा गया है - 'ननु च उपशान्तकषाये | सद्भाव मानना उचित है। सयोगके वलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागमः। तत्र प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र कुमार जैन एम.ए., देहरादून। कषायानुरञ्जनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोषः जिज्ञासा : श्रवणवेलगोला-स्थित भगवान् बाहुबलि पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता | की मर्ति से पर्व भी क्या ऐसी ही मर्तियों की उपलब्धि होती सैवेत्यपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यलेश्य | है या यह मर्ति सर्वाधिक प्राचीन है. स्पष्ट करें। इति निश्चीयते।'
समाधान : पूरे भारतवर्ष मे जितनी भी भगवान प्रश्न -- उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और
बाहुबली की मूर्तियाँ पाई जाती हैं, उनमें सुंदरता की दृष्टि से सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ललेश्या है ऐसा आगम है,
श्रवणबेलगोला स्थित भगवान् बाहुबली का जिनबिम्ब अनुपम, परन्तु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है, इसलिए औदयिकपना
अद्वितीय एवं सर्वश्रेष्ठ है, परन्तु इससे पूर्व भी भगवान् नहीं बन सकता। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो
बाहुबली की मूर्तियों के प्रमाण एवं मूर्तियों का सद्भाव पाया योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है। इस
जाता रहा है। कुछ ज्ञात मूर्तियाँ इस प्रकार हैं - प्रकार पूर्वभावप्रज्ञापननय की अपेक्षा उपशान्तकषाय आदि
___1. चम्बल क्षेत्र में मन्दसौर जिले के घुसई स्थान से गुणस्थानों में भी लेश्यारूप औदयिक भाव कहा गया है।
प्राप्त भ. बाहुबलि की मूर्ति चौथी-पाँचवी शताब्दी की अनुमान किन्तु अयोगकेवली के योग प्रवृत्ति नहीं है इसलिए वे लेश्या
की जाती है। रहित हैं, ऐसा निश्चय है।
2. संभवतः कदम्बराज रविवर्मा द्वारा पाँचवी शताब्दी 1. श्री धवला पु.1, पृष्ठ 150 में इस प्रकार कहा है
| में निर्मित 'मन्मथनाथ' (कामदेव या बाहुबलि) का मंदिर "अकषाय वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह
| सर्वाधिक प्राचीन बाहुबली मंदिर सिद्ध होता है। इससे संबंधित सकते, ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में
शिलालेख उत्तर कर्नाटक जिले के बनवासी के निकट गुदनापुर योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि वह योग
ग्राम में प्राप्त हुआ है । प्रवृत्ति का विशेषण है।"
3. ऐहोल की गुफा में भगवान् बाहुबली की मूर्ति 2. श्री धवला पु. 5, पृष्ठ 105 पर कहा है, "सचमुच
स्थित है, जो लगभग 7 फीट ऊँची है और 7 वीं शताब्दी की क्षीण-कषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता,
मानी जाती है। इसमें भ. बाहुबली की जटायें कन्धों तक यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती।
प्रदर्शित हैं और उनकी बहिनें लताओं को हटाते हुए दिखाई किन्तु शरीरनामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या |
गई हैं। माना गया है, क्योंकि यह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है।
4. बादामी के जैन गुफा मंदिर में भी एक आठ इस कारण कषायों के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है,
| फुट ऊँची प्रतिमा है, जो सातवीं-आठवीं शताब्दी की मानी इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध
जाती है।
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5. ऐलोरा-स्थित जैन गुफाओं में भ. बाहुबली की । के स्थानों में पाये जाने वाले असंख्यात त्रस जीवों का घात कई प्रतिमाएँ हैं, जो आठवीं-नौंवी शताब्दी की मानी जाती | होता है।
प्रश्नकर्ता : पं. वसन्तकुमार जी सिवाड़ 6. हमचा में 898 ईसवी में राजा विक्रम सान्तर ने | जिज्ञासा : क्या भ महावीर के मोक्ष जाने के बाद एक विशाल 'बाहुबली वसदि'बनवाई थी, जिसकी अब | हुए पाँच श्रुतकेवली उसी भव से मोक्ष गये थे, या अन्य केवल चौकी ही शेष रह गई है और बाहुबलि की जीर्ण 5 | भव से? फुट ऊँची प्रतिमा अब कुन्दकुन्द विद्यापीठ भवन में रखी
समाधान : श्रुतकेवली उनको कहते हैं, जो सम्पूर्ण हुई है। इस मूर्ति पर भी जटाएँ प्रदर्शित हैं, किन्तु लताएँ
श्रुत के अर्थात् अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट के सम्पूर्ण ज्ञाता केवल पैरों तक ही उत्कीर्ण हैं।
होते हैं। जबकि केवली वे कहलाते हैं, जिनको केवलज्ञान 7. कर्नाटक के गोलकुंडा के खजाना-बिल्डिंगसंग्रहालय में भी 1.73 मीटर ऊँची काले वेसाल्ट पाषाण की
प्राप्त हो गया होता है। जो केवली होते हैं, वे तो चार मूर्ति है, जो दसवीं शताब्दी की कही जाती है।
अघातिया कर्मों को नष्ट करके उसी भव से नियम से मोक्ष 8. जनागढ संग्रहालय मे एक मर्ति प्रदर्शित की गई | प्राप्त करते हैं, परन्तु श्रुतकेवलियों के उसी भव से मोक्ष है, जो नौवीं शताब्दी की कही जाती है।
प्राप्त करने का नियम नहीं है। श्रतकेवलियों को उसी भव 8. खजुराहो में पार्श्वनाथ मंदिर की बाहरी दक्षिणी | से भी मोक्ष हो सकता है अथवा वे कुछ ही भव में मोक्ष दीवाल पर भी भ. बाहुबली की मूर्ति उत्कीर्ण है, जो दसवीं | प्राप्त कर सकते हैं। श्रुतकेवलियों के लिये श्री धवला पु.शताब्दी की है।
| 9 पृ.-69 से 71 के अनुसार लिखा है कि उनको मिथ्यात्व 10. लखनऊ संग्रहालय में भ. बाहुबली की मूर्ति | में गमन होने का अभाव है, अर्थात् उनका सम्यक्त्व शेष है, जिसका मस्तक और चरण खण्डित है, यह भी 10 वीं | संसारकाल में कभी भी नहीं छूटता है। शताब्दी की है।
यहाँ विशेष यह भी है कि पंचमकाल में उत्पन्न ___11. इसके अलावा महोबा, देवगढ़, श्रवण गिरि | जीवों को, उसी भव में मोक्ष प्राप्त होने का निषेध है। अतः आदि में भ. बाहुबली की कई मूर्तियाँ हैं, जो लगभग 10 वीं |
इस कारण से भी भ. महावीर के बाद होनेवाले पाँचों शताब्दी की हैं।
श्रुतकेवलियों को, पंचमकाल में उत्पन्न होने के कारण इस प्रकार भ. बाहुबलि की चढ़ी हुई बेलवाली |
उसी भव से मोक्ष होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। विशिष्ट शैली की मूर्तियों के निर्माण की परम्परा ईसा की । चौथी शताब्दी से माननी चाहिए।
जिज्ञासा : अगुरुलघुत्व तो जीव का स्वाभाविक प्रश्नकर्ता : कामता प्रसाद जैन, मुजफ्फरनगर।
गुण कहा गया है। फिर इसे नामकर्म के भेद में क्यों गिना जिज्ञासा : सक्ष्मजीव न तो किसी से मरते हैं और | गया ह। न किसी को मारते हैं, फिर कामसेवन मे हिंसा क्यों?
समाधान : आगम में अगुरुलघुत्व शब्द का प्रयोग समाधान : कामसेवन में सूक्ष्मजीवों की हिंसा | तीन स्थानों पर किया गया है - 1. अगुरुलघुत्व सामान्य नहीं होती, बल्कि बादर त्रस जीवों की हिंसा होती है। ये त्रस | गुण 2. अगुरुलघुनामकर्म 3. गोत्रकर्म के क्षय से उत्पन्न जीव आँखों से दिखाई नहीं पड़ते, इस दृष्टि से इनको सूक्ष्म | होनेवाला अगुरुलघुत्व गुण । ये तीनों भिन्न-भिन्न परिभाषा कहा है। सूक्ष्म जीवों का कोई आधार नहीं होता, अतः | वाले हैं, जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - किसी भी वस्तु या पदार्थ में पाये जाने वाले जीव बादर ही | 1. अगुरुल सामान्यगुण - आलापपद्धति में इसका होते हैं। आलू की सब्जी बनाने में भी बादर निगोदिया जीवों | लक्षण इस प्रकार कहा है 'अगुरुलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम्। का ही घात होता है। बिजली का पंखा चलाने पर भी बादर
सूक्ष्मावाग्गोचराः प्रतिक्षणं वर्तमाना आगमप्रमाणादभ्युपगम्या वायुकायिक जीवों का तथा अन्य बादर जीवों का ही घात | अगुरुलघुगुणाः।' अर्थ - अगुरुलघुभाव अगुरुलघुपन है। होता है। हिंसा बादर जीवों की ही होती है, सूक्ष्म जीवों की | अर्थात जिस गुण के निमित्त से द्रव्य का द्रव्यपना सदा नहीं। कामसेवन में, रज-वीर्य में पाये जाने वाले तथा सेवन
बना रहे, अर्थात् द्रव्य का कोई गुण न तो अन्य गुणरूप हो
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सके और न कोई द्रव्य अन्य द्रव्य रूप हो सके, अथवा न | और 63 ऋद्धियों से सम्पन्न कहे गये हैं। तीर्थंकर प्रभु तो द्रव्य के गुण बिखरकर पृथक्-पृथक् हो सकें और जिसके | दिव्यध्वनि के कारण अर्थकर्ता कहे गये हैं और ये सभी निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में तथा उसके गुणों में समय समय | गणधर द्वादशांगरूप ग्रन्थ कर्ता कहे गये है। ऐसा नहीं है प्रति षट् गुण हानि वृद्धि होती रहे उसे, अगुरुलघु गुण | कि केवल मुख्य गणधर ही तीर्थंकर भगवान् की वाणी को । कहते हैं । अगुरुलघु गुण का यह सूक्ष्म परिणमन वचन के | झेलते हों। ये सभी गणधर समान रूप से तीर्थंकर भगवान् अगोचर है, केवल आगम-प्रमाणगम्य है। यह द्रव्य का | की वाणी को अपनी ऋद्धियों के द्वारा ग्रहण करते हैं और सामान्य गुण है और प्रत्येक द्रव्य में पाया जाता है। । विस्तरित भी करते हैं। श्री उत्तरपुराण पर्व 60 श्लोक नं.
2. अगुरुलघुनामकर्म - श्री सर्वार्थसिद्धि 8/11 में | 37 में भगवान् अनंतनाथ के जीवनचरित्र में इस प्रकार इस प्रकार कहा है - 'यस्योदयादयःपिण्डवत् गुरुत्वान्नाधः | कहा हैपतति न चार्कतूलवल्लघुत्वादूर्ध्वं गच्छति तद्गुरुलघुनाम।अर्थ "जयाख्यमुख्यपंचाशद्गणभृवृंहितात्मवाक्" - जिसके उदय से लोहे के पिण्ड के समान गुरु होने से न अर्थ - भ. अनन्तनाथ के सभी जयदि पचास तो नीचे गिरता है और न रुई के समान लघु होने से ऊपर | गणधरों के द्वारा उनकी दिव्यध्वनि का विस्तार होता था। जाता है।' यह कर्म पुद्गलविपाकी है, इस कारण से प्रश्नकर्ता : पं. अनुराग शास्त्री मडावरा । इसका विपाक शरीर में प्राप्त होता है अर्थात् इस कर्म से जिज्ञासा : निश्चय-व्यवहार-सम्यग्दर्शन एक शरीरविषयक अगुरुपना एवं अलघुपना होता है, जिसके साथ होते हैं या आगे पीछे ? कारण ही जीव अपने शरीर को उठाकर अन्यत्र जाने व समाधान : व्यवहारसम्यग्दर्शन साधन है व निश्चय इच्छित स्थान पर रुकने में सर्वत्र समर्थ होता है। सम्यग्दर्शन साध्य है। अत: व्यवहारसम्यग्दर्शन पहले होता
3. गोत्र कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाला है व निश्चय सम्यग्दर्शन वाद में। कुछ आगमप्रमाण इस अगुरुलघुत्व गुण श्री पद्मनन्दिपंचविंशतिका के अनुसार | प्रकार हैं - 1. वृहद्रव्यसंग्रह गाथा 41 की टोका में इस इस गुण से सिद्धों को, गोत्र कर्म का नाश होने से, उच्च | प्रकार कहा है - "अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चय गोत्र व नीचगोत्र इन दोनों से रहितपना युगपत् प्राप्त होता सम्यक्त्वं किमर्थं व्याख्यातमिति चेदव्यवहारसम्यक्त्वेन है। इससे आचरणकृत महत्व यानि उच्चगोत्रपना तथा
निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकतुच्छत्व यानि नीचगोत्रपने का अभाव एक साथ पाया
भावज्ञापनार्थमिति।" अर्थ - यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्व जाता है। यह संसारी अवस्था में गोत्रकर्म के उदय के
के व्याख्यान में निश्चयसम्यक्त्व का वर्णन क्यों किया कारण वैभाविक अवस्था में रहता है और मुक्तजीवों में |
जाता है ? व्यवहारसम्यक्त्व से निश्चयसम्यक्त्व सिद्ध स्वाभाविक अवस्था में पाया जाता है।
किया जाता है, इस साध्यसाधकभाव को बतलाने के लिये __ इस प्रकार उपर्युत्त अगुरुलघु नामक दो गुण भिन्न ।
किया गया है। हैं और अगुरुलघुनामकर्म भिन्न है। यह भी जानने योग्य
2. श्री पंचास्तिकाय गाथा 107 की टीका में आचार्य है कि उपर्युक्त अगुरुलघु नामक स्वाभाविक गुण का |
जयसेन ने कहा है - "इदं तु नवपदार्थविषयभूतं सांसारिक अवस्था में वैभाविक परिणमन ही पाया जाता
व्यवहारसम्यक्त्वं । किं विशिष्टम् । शुद्धजीवास्तिकाय
रुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य छद्मावस्थायामात्महै। (राजवर्तिक 8/11/12)
विषयस्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परया बीजम्। अर्थ - यह जो जिज्ञासा : क्या तीर्थकर भगवान् की वाणी मुख्य
नव पदार्थ का विषयभूत व्यवहार सम्यक्त्व है, वह शुद्ध गणधर ही झेलते हैं? तो फिर अन्य गणधरों का क्या कार्य
जीवास्तिकाय की रुचिरूप जो निश्चयसम्यक्त्व है, उसका
तथा छद्मस्थ अवस्था में आत्मविषयक स्वसंवेदनज्ञान का ) समाधान : सभी गणधर ऋद्धियों की अपेक्षा समान
परम्परा से बीज है।" होते हैं। ये सभी सम्पूर्ण श्रुत के ज्ञाता अर्थात् श्रुतकेवली
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3. श्री प्रवचनसार चारित्राधिकार गाथा 2 की टीका । शिखरेऽभिसूर्यमवस्थानम् ।"
में आ. अमृतचन्द्र स्वामी ने इस प्रकार कहा है- "अहो अर्थ - गर्मी में पर्वत के शिखर पर सूर्य के सामने $ निःशङ्कितत्वनिःकांक्षितत्व-निर्विचकित्सत्वनिर्मूढष्टित्वोप- खड़े होकर ध्यान करना आतापन नामक कायक्लेश तप बृंहण-स्थितीकरण-वात्सल्य-प्रभावनालक्षण- दर्शनाचार, न है । चतुर्थ काल में तो आतापनयोग में स्थित साधुओं के शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां बहुत से प्रमाण प्रथमानुयोग शास्त्रों में उपलब्ध होते तावदासीदामि यावत् त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । " हैं । इस पंचमकाल में भी चा.च. आ. शान्तिसागर जी अर्थ - अहो निःशंकितत्व, नि:कांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, महाराज आदि के द्वारा भी आतापनयोग किये जाने की निर्मूढदृष्टित्व, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना-स्वरूप, दर्शनाचार, तू शुद्धात्मा का स्वरूप नहीं है, ऐसा कथाएँ चरित्र - ग्रन्थों में पाई जाती हैं। श्री भगवतीआराधना में आतापन योग के अतिचारों का वर्णन इस मैं निश्चय से जानता हूँ, तो भी तुझको तब तक स्वीकार करता हूँ, जब तक तेरे प्रसाद से शुद्ध आत्मा को प्राप्त हो प्रकार पाया जाता है - "उष्ण से पीड़ित होने पर ठण्डे पदार्थों के संयोग की इच्छा करना, यह मेरा संताप कैसे जाऊँ । नष्ट होगा " ऐसी चिन्ता करना "पूर्व में अनुभव किये गये शीतल पदार्थों का स्मरण होना" "कठोर धूप से द्वेष करना" शरीर को बिना झाड़े ही शीतलता से एकदम गर्मी में प्रवेश करना तथा शरीर को पिच्छी से स्पर्श करके ही धूप से शरीरसंताप होने पर छाया में प्रवेश करना इत्यादि आतापनयोग के अतीचार हैं
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उपर्युक्त आगमप्रमाणों के अनुसार व्यवहारसम्यग्दर्शन पहले होता है, तदुपरांत वीतरागचारित्र का अविनाभावी निश्चयसम्यग्दर्शन होता है।
जिज्ञासा : आतापन योग क्या 'क्या वर्तमान में यह किया जा सकता है ?
समाधान : श्री अनगारधर्मामृत 7/32 की टीका में इस प्रकार कहा है- "आतपनमातापनं ग्रीष्मे गिरि
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स्वतन्त्रता संग्राम में जैन ग्रन्थ को महावीर पुरस्कार
श्री महावीरजी (राज.) । महावीर जयन्ती पर आयोजित विशाल मेला के अन्तिम दिन 14 अप्रैल को ज्योति जैन द्वारा लिखित 'स्वतन्त्रता संग्राम में जैन ग्रन्थ को महावीर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भा. दि. जैन तीर्थ कमेटी तथा दि. जैन अति. क्षेत्र श्री महावीरजी के अध्यक्ष श्री नरेश सेठी ने लेखक दम्पत्ति का तिलक लगाकर, शाल ओढ़ाकर सम्मान किया। जैन विद्या संस्थान के संयोजक डॉ. कमल चन्द जैन सौगानी ने पुरस्कार की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डाला और कहा कि चयन प्रक्रिया के बाद हम पुरस्कार का निर्णय करते हैं। यही कारण है कि यह पुरस्कार कभी विवादों के घेरे में नहीं आया। डॉ. कपूरचन्द जैन ने कहा कि इस पुस्तक में 20 जैन शहीदों, संविधान सभा के छह जैन सदस्यों तथा उ. प्र. म. प्र. व राजस्थान के 750 जैन जेलयात्रियों का परिचय है। डॉ. ज्योति जैन ने जैन विद्या संस्थान और क्षेत्र कमेटी
का आभार माना ।
१/२०५, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा (उ.प्र.)
सांगानेर मन्दिर में भगवान ऋषभदेव ग्रंथमाला का लोकार्पण
जयपुर, 30 अप्रैल 2006, विश्व विख्यात श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र मन्दिर संघी जी सांगानेर में भगवान् ऋषभदेव ग्रन्थमाला एवं विशाल सिंहद्वार कपाटों का लोकार्पण मुनि श्री 108 सुधासागरजी महाराज के जयघोष के साथ हुआ। प्रातः 8.30 बजे मन्दिर परिसर में भगवान् ऋषभदेव ग्रन्थमाला का लोकार्पण आर. के. मार्बल के कंवरीलाल | अशोककुमार पाटनी ने मंत्रोच्चारण के साथ किया। तत्पश्चात् 19' x 12 फीट उतुंग सिंहद्वार के कपाटों का लोकार्पण सेवाराम जैन दिल्ली वालों ने किया ।
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डा. कस्तूरचन्द्र सुमन
निर्मल कासलीवाल मानद मंत्री
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 41
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निर्ग्रन्थो निरतात्मसौख्यनिलयो मुक्त्यातुरस्तारकः, तीर्थोद्धाकर! वीतकामकलहो, विज्ञोपि गोरक्षकः । सन्मार्ग हृदि शान्तितो नयति यो, भव्यञ्च मुक्तिश्रिये,
विद्यासागर - पूज्यपाद - कमलं, संस्थाप्य सम्पूजये ॥ ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
आचार्य श्रीविद्यासागर - पूजनम्
1
जन्मान्तकापन्नभयातिभीता, जवञ्जवे जन्तव आर्तनीता । विद्यागुरोर्चन्ति हरोपविद्या, भवन्तमद्भिश्चरणं हि सर्वाः ॥
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशयाय जलं नि० स्वाहा ।
2
कृतं मया चन्दनपूतलेपं, न शीतमाप्तं मनसापि किञ्चित् । ततो घसन्तप्तमनो विशान्त्यै तवायते
मङ्गलपादपद्मम्॥
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय संसारताप
विनाशनाय चन्दनं नि० स्वाहा ।
3
ज्ञेयप्रभावेन हि खण्डितो यदखण्डितज्ञानविमण्डनाय । विधौ तविद्योतनतण्डु लौघे : पादाम्बुजं वै सगुरोर्च्यते ते ॥
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि० स्वाहा ।
4
लोके तु सत्वाः कुसुमास्त्रदोषैर्भ्रमन्ति नित्यं भवभूमिमध्ये | कामाष्टकं शर्तुममर्त्य शत्रु, पुष्पैस्त्वदीयं चरणं यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय कामबाण - विनाशनाय पुष्पं नि० स्वाहा ।
42 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
रचियता - मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
5
वरं विशुद्धं रूचिरं मयेदं, भुक्तं मुहुर्मोहवशेन सर्वम् । क्षुद्ररोगशान्त्यै भुवि नात्र वैद्यो, नैवेद्यमानीय पदे यजेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि० स्वाहा ।
6
उत्मत्तवन्मोहतमः प्रसारान् निधाय दुःखं भवभार ऊढः । अलब्धभूतिं चरणं विलब्धु, मयार्च्यते दीपकरोचिषा ते ॥ ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं नि० स्वाहा ।
7
एकं निमित्तं भवरोगसूते र्देहात्ममध्ये - विपरीतबुद्धिः । भक्त्यानले कल्मषमोह धूपं क्षिप्त्वा पवित्रं शरणं दधेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं नि. स्वाहा ।
8
वातादमक्षोट मनूनमैलां,
प्रस्थाप्य शुद्धं तपनीयपात्रे ।
अमूल्य - निर्वाण- फलं समाप्त, पदानुरागी तव पूजयेऽहम् ॥
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्य विद्यासागरमुनीन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि० स्वाहा
9
विद्याम्बुधे ! ते हिमचन्दनं वाः, सुतण्डुलं वा कुसुमं प्रदीपम् । धूपं फलं चारुचारुं मिलित्वा, प्रपूज्यते प्राप्तुमनर्घ धाम ॥
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागर मुनीन्द्राय अनर्घपद- प्राप्तये अर्घं नि० स्वाहा ।
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दोहा
जयमाला (चौपाई)
अवतरितो भुवि भुवनहितार्थं यथा कौमुदी जलेरुहार्थम्। गुरूगुणधामगुरो भुवि भक्तः, को गातुं गुणगानं शक्तः। कल्याणाभिनिवेशकचक्षुः शिथिलाचरण-विनाशकभिक्षुः॥16॥ नामालापोपि यतः पापं, हन्ति ततोऽहं ब्रूवे प्रतापम्॥ 1 ॥
दोहा दक्षिणभागे भारतदेशे, रम्ये कर्नाटकप्रदेशे। महाव्र ताभूषितवपुर्विद्याब्धस्त्वं नाम । ग्रामे सदलगि सत्कुलगेहे, बहुलक्षणयुतजननी-देहे ।। 2 ।। सत्यवचोगुण-धारको देहि शान्तिसुखधाम ॥ 17 ॥ शरत्रियामावसिते दिव्यः शिशुरजनि हि शशिकान्तिर्भव्यः।
चौपाई पितुर्मलप्पासीत्सुनाम, सुश्रीमतिश्च मातुर्नाम ॥ 3 ॥ रूप्यसमं रूपं ते रुचितं, सकलजनानामते ललितम्।
धर्मध्याने तत्त्वे सारे संवेगे चिन्मयसंसारे । नासया हि जितचम्पकपुष्पं, रागाकीर्णकपोलं रक्तं ॥4॥
यस्य मनो लगति श्रुतपाठे परहितसम्पादनकरणार्थे ।। 18 ।। ज्ञानगुरूणां प्रथमः शिष्यः त्वं, सुशोभित : पट्टे यस्य।
सम्प्रति त्वमन्तरमतियोगी मनोजनानामक्ष-विभोगि॥19॥ कण्ठे नो रेखात्रयं किन्तु रत्नमयधाम।
संस्कतपद्ये कृतमनवद्यं, षट्शतकं बहु-हिन्दी-पद्यम्। विद्याधर भूमौ ततो विश्रुतनामाभाणि ॥ 5 ।।
मूकमाटीकृतिरद्भुतपात्री पराध्यात्म-जिनदर्शनदात्री ॥ 20 ॥
क्षुद्रकान्तगिरामयिभेत्ता, जन्मजरारीणामतिहर्ता चौपाई
जय जय जय जिनशासनभक्त, जय जय निमर्म चानासक्त 101 || सुखतो विगते सति शिशुकाले, किं सत्यं किं हेयमिहाले।
दय दय दय रत्नत्रय-भूतिं भवतु भवतु मम तवानुभूतिः। इत्यूहापोहं मम चित्तं, तुदते किं करणीयं युक्तम्॥6॥
नय नय नय मे श्रीप्रासादं भव भव भव हर्षाय सदा त्वम्।। 22 ॥ सहकालेने हि जातं वित्तं, क्षययुतमघखानिर्वै चित्तम्।
कलिकाले भो! महद् विचित्रं, दर्शनमेतादृशमाचार्यम्। काले कालौ कलिः प्रतिपादे, कालो व्यर्थमेति संवादे ॥7॥
बहूक्तेन किं धन्यमन्यः शमभावाय हि पुनः 'प्रणम्य' ॥ 23 ।।
ॐ ह्रीं श्री 108 आचार्यविद्यासागरमुनीन्द्राय अनर्घ पद-प्राप्तये कारागारं वनितापत्यं, भोगं भंगुरमखिलमसत्यम्।
अर्घ नि० स्वाहा। गृहतो मनसि मराले मत्वा, पुरमजेमरं प्रति लघु गत्वा ॥8॥ भवता देशव्रतं गृहीतं, देशभूषणाद्यते: समीपम्।।
पूजार्ह पूजा कृता गुणपुझं प्रणमामि। रुचितो यजतः पाठतो वीतं, वर्ष मुक्त्वा तत् सामीप्यम् ॥9॥ |
पूजातः पूज्यस्य यत् पूज्योऽहं विभवामि ॥ 24 ॥ किशनगढेगमदथ पठनार्थं, तत्रस्थितसुमुनेः करुणार्थम्।
॥ पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्॥ याचते स्म संज्ञं ज्ञानाब्धिं, कविं वरिष्ठञ्चागम-विज्ञम्॥ 10॥
प्रस्तुति - विक्रम चौधरी (जबलपुर)
दोहा
नमो ज्ञानसागरचिदे, विगतमोहरतिमान शान्तचित्त! नि:स्पृहबुधे, निखिलगणौघनिधान ॥ 11॥
चौपाई सम्प्राप्यारं पदं प्रशीतं, हष्टस्तृषातुरैर्वाः पीतम्। ।। शुभलक्षणाञ्छनयुतगात्रं, दृष्ट्वाभूदुपकारक पात्रम्।। 12 ॥ शिष्टमधुरमितनप्रैक्यैिर्भक्त्याचरणसपर्याकार्यैः। लब्ध्वा हृदये परां प्रसत्तिं, संप्रवर्ध्य गुरुवचनसुभक्तिम्॥13॥ कामाक्रोशरीन्विदित्वा, बाह्यन्तरसङ्ग हि त्वा। तत्पादे मुनिदीक्षावाप्ता, सर्वसिद्धिदा जिनरूपाप्ता ॥ 14॥ यथाजातदैगम्बररूपं भवता हितं ततं चिद्रूपम्।। चेतनसूतसुधां सुपातुं, त्रासितसर्वजनानवपातुम् ॥ 15 ॥
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सम्पर्क सूत्र
ब्र. भरत जैन धर्मोदय साहित्य प्रकाशन स्लीमनाबाद, जिला कटनी (म.प्र.)
मो. : 098936-31671
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 43
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मुनि श्री क्षमासागर जी को मस्तक झुकाकर
नमस्कार करती हूँ
सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्
डॉ. कुसुम पटोरिया अन्तर्बहीरूपमखण्ड मे कं, रागादिकालुष्यविमुक्तचित्तं । सद्धर्मधौरे यमनुत्तरन्तं सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्॥1॥ सम्पूर्णविद्यासद्धद्भहमनदीष्णं, ज्ञानप्रभादीढनो यदीयं । संसारसिन्धूत्तरणे तरीन्तं, सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्॥2॥ वीरस्य सद्वर्त्मनि सञ्चरन्तं, लोकात्मकल्याणसुसाधयन्तं । भक्त्या गुरौ पूरितमानसं तं, सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्॥3॥ अध्यात्मक्षीरोदसमुत्थमथ्यं, ज्ञानामृतं वर्षक म्बुदन्तं । स्फूर्तिं हि प्राणेषु सुचारयन्तं, सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्॥4॥ गाम्भीर्यमाधुर्य विशेषवाचा, भव्यान् हि सभ्यान् खलु पावयन्तं। तेषामघौघं परिक्षालयन्तं, सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्॥5॥ भक्तान् तु सन्मार्गमुपादिशन्तं, वात्सल्यभावेन विबोधयन्तं । आकण्ठतृप्तिमनुभावयन्तं सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्॥ 6 ।। धर्माय बालान् प्रतिबोधयन्तं, मैत्रीसमूहं च विवर्द्ध यन्तं दुस्साध्यसाधुव्रतमाचारन्तं, सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहम्॥7॥ रोगैस्सदा तीव्र परीक्ष्यमाणं, क्षीणं तपोतप्तवपु : दधानं धैर्येणं ज्ञानेन च तं तरन्तं, सिन्धुं क्षमायाः शिरसा नताहय॥8॥
जिनका व्यक्तित्व अन्तर्बाह्य अखण्डित एकरूप है, जिनका चित्त रागादि कलुषताओं से विमुक्त है, जो सद्धर्म की धुरा को धारण करनेवाले अनुपम अनुत्तर हैं, उन क्षमासागर मनिराज को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करती हूँ।
2 सम्पूर्ण विद्यारूपी नदी के जो पारंगत हैं, जिनका मन ज्ञानप्रभा से दीप्त है, जो संसारसिन्धु को पार करने के लिए नौका के समान हैं, उन क्षमासागर मुनिराज को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करती हूँ।
3 महावीर द्वारा निर्दिष्ट सन्मार्ग पर जो चल रहे हैं, आत्मकल्याण के साथ लोक कल्याण की भी सुन्दर साधना कर रहे हैं, जिनका मन गुरु की भक्ति से लबालब भरा हुआ है, उन क्षमासागर मुनिराज को मेरा प्रणाम है।
4 जो अध्यात्मरूपी क्षीरोनिधि के मंथन से उत्पन्न ज्ञानामृत की वृष्टि करने वाले मेघ हैं, जो प्राणों में स्फूर्ति का संचार करते हैं, उन क्षमासागर मुनिराज को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करती हूँ।
जो गाम्भीर्य व माधुर्य गुण से युक्त वाणी के द्वारा सभा में स्थित भव्यों को पवित्र करते हुए उनके पापसमूह का प्रक्षालन करते हैं, उन क्षमासागर मुनिराज को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करती हूँ।
6 जो भक्तों को सन्मार्ग का उपदेश दे रहे हैं, वात्सल्य भाव से उनको संबोधित कर रहे हैं तथा आकण्ठ तृप्ति का अनुभव करा रहे हैं, उन क्षमासागर मुनिराज को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करती हूँ।
बालकों को धर्म के विषय में प्रतिबोधित करनेवाले, मैत्रीसमूह नामक संस्था को वृद्धिंगत करनेवाले, कठिनता से साध्य मुनिव्रत का आचरण करनेवाले क्षमासागर मुनिराज को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करती हूँ।
8 रोग सदा तीव्रता से जिनकी परीक्षा लेते रहते हैं, उन तपस्या से तप्त क्षीणकाया को धारण करनेवाले तथा धैर्य व ज्ञान से रोगों द्वारा ली गई परीक्षा को उत्तीर्ण करनेवाले क्षमासागर मुनिराज को मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करती हूँ।
रीडर, संस्कृत विभाग नागपुर विद्यापीठ, नागपुर (महाराष्ट्र)
44 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
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समाचार
। नागपुर में 'आचार्य विद्यासागर संस्कार केन्द्र' । चरित्र-निर्माण के लिए अच्छे संस्कार जरूरी का शुभारंभ
व्यक्ति के चरित्र निर्माण के लिए अच्छे संस्कारों अक्षय तृतीया के पावन अवसर पर दि. 30 मई | का होना जरूरी है। ये विचार संतशिरोमणि आचार्य श्री 2006 को श्री दि. जैन परवार मंदिर ट्रस्ट नागपुर के अंतर्गत | विद्यासागर महाराज के परम शिष्य मनि श्री समतासागर जी संस्था महावीर दि. जैन पाठशाला द्वारा आयोजित विशाल | महाराज ने व्यक्त किये। वे श्री दिगंबर जैन परवार मंदिर धर्मसभा में मुनि श्री समता सागर जी महाराज, ऐलक निश्चय परवारपुरा इतवारी के प्रांगण में आयोजित दस दिवसीय सागर जी महाराज एवं प्रो. रतनचन्द्र जी जैन भोपाल व अन्य पूजन प्रशिक्षण शिविर के समापन पर श्री महावीर दि. जैन आमंत्रित सदस्यों के सान्निध्य में हजारों जैन धर्मप्रेमियों के पाठशाला के विद्यार्थियों को संबोधित कर रहे थे। बच्चे बीच "आचार्य विद्यासागर संस्कार केन्द्र" के नये भवन का | गीली मिट्टी की तरह होते हैं। उन्हें अच्छे ढाँचे में ढालना उद्घाटन सम्पन्न हुआ।
समाज के नेतृत्व की जिम्मेदारी है। टी. वी. संस्कृति समाज धर्म सभा में मुनि श्री समता सागर जी महाराज ने | के लिए बहुत बड़ा खतरा है। इस अवसर पर एलक श्री अपने उद्बोधन में कहा कि अक्षय तृतीया का पर्व जैनधर्म | निश्चयसागर जी ने संबोधित करते हुए कहा कि उसे रोकने में विशेष महत्त्व रखता है। आज के दिन किसी भी शुभ के लिए धार्मिक पाठशालाएँ समय की आवश्यकता हैं। कार्य का शुभारंभ श्रेष्ठ माना जाता है एवं आज के ही दिन | ज्ञातव्य हो की परवार मंदिर में पाठशाला का संचालन विगत आहार दान की क्रिया का शुभारंभ हुआ था। मुनिराज आदिनाथ | 50 वर्षों से श्री दिगंबर जैन परवार मंदिर ट्रस्ट द्वारा किया जा को राजा श्रेयांस ने जातिस्मरण के आधार पर प्रात:कालीन | रहा है। किन्तु इस बार मुनि श्री समतासागर जी और ऐलक बेला में पड़गाहन कर इक्षुरस का दान दिया था। श्री विद्यासागर श्री निश्चयसागर जी ने बालकों को विशेष प्रशिक्षण दिया। संस्कार केन्द्र महावीर दि. जैन पाठशाला का उद्देश्य वर्तमान | अपने सरल स्नेही व्यवहार और आकर्षक विधाओं से पूजन पीढी को खेल-खेल में धर्म से संस्कारित करना है। अल्पकाल | प्रशिक्षण देना शिविर की विशेषता रही। 4 वर्ष से 16 वर्ष में 250 से ज्यादा बालक बालिकाओं का इसमें अध्ययन | तक के 250 विद्यार्थियों ने शिविर में भाग लिया। करना एवं उन्हें कम्प्यूटर इत्यादि साधनों से ज्ञान देना निश्चित ही सराहनीय है।
थेलेसीमिया का इलाज प्राकृतिक चिकित्सा ऐलक निश्चय सागर जी ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन
से संभव है में कहा कि अक्षय तृतीया के पावन प्रसंग पर नन्हें-नन्हें भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्सालय, सागर ने बालकों को संस्कारित कर वटवृक्ष के समान स्वरूप दें | विगत १० मई २००६ को थेलेसीमिया के मरीजों का दस जिससे वह समाज देश परिवार को शीतलता प्रदान कर दिवसीय प्राकृतिक चिकित्सा शिविर लगाया जिसका, समापन सके। प्रो. रतनचन्द्र जैन भोपालवालों ने कहा कि आचार्य | २० मई २००६ को किया गया। प्राकृतिक चिकित्सा से श्री विद्यासागर के आभामंडल की किरणें आज मंच पर | अभूतपूर्व परिणाम सामने आये। डॉ. संगीता जैन एवं उनकी विराजमान हैं एवं गाँव-गाँव, शहर-शहर में धर्म की प्रभावना | डाक्टर्स टीम डॉ. नीता जैन. डॉ. रश्मी जैन. डॉ. मदला एवं कर रही हैं। इस अवसर पर अनेक नगरों से गणमान्य | शिशुरोगविशेषज्ञ डॉ. नीलम जैन ने बताया कि पूर्व में अनेक उपस्थित थे, जिनमें प्रमुख सौ. मंजू संदीप जैन, सौ. मोहिनी | एनीमिया के मरीजों को उपचार दिया जिससे काफी लाभ सतीश जैन, हुकमचंद जैन, प्रमोद जैन, सतीश जैन, राजू व | मिला। तब इसी धारणा के आधार पर १० मई को थेलेसीमिया पंकज देवड़िया ब्र. ऋषभ जैन इत्यादि का ट्रस्ट की ओर से | के बच्चों को प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार देना प्रारंभ शाल, श्रीफल द्वारा सत्कार किया गया।
किया। इस शिविर में कुल १२ बच्चे आये जिनका प्रथम मंच संचालन श्री सतीश सिंघई ने सन्दर ढंग से | दिन हीमोग्लोबिन चैक कराया गया। बाद में उन्हें १० दिन किया। मंगलाचरण पाठशाला के बालकों द्वारा किया गया। | तक प्राकृतिक आहार एवं उपचार दिया गया। आहार के महेन्द्र जैन 'रूपाली' | रूप में उन्हें दिनभर में ९ बार खाने पीने को दिया जाता था।
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एवं प्रतिदिन सुबह से व्हीट ग्रास का जूस पिलाकर बच्चों को गीले पानी की टाबिल सिर पर रखकर वाकिंग कराई जाती थी एवं सन-बाथ कराया जाता था। बाद में बच्चों को अंकुरित अनाज एवं ड्रायफ्रूट दिया जाता था। बाद में बच्चों को उनकी शारीरिक स्थिति के अनुसार प्राकृतिक चिकित्सा का उपचार जिसमें स्टीम बाथ, लोकल स्टीम, मालिश, कटिस्नान, रीढ़स्नान, घर्षणस्नान, पेट-पीठ की पटटी, व्हीट ग्रास, लेमन का एनिमा इत्यादि अनेकों उपचार दिन में करीब ५-६ दिये जाते थे। बच्चों के फेफड़ों को एक्सरसाइज के लिए फिलोमीटर से प्रतिदिन दिन में करीब ५०-६० बार एक्सरसाइज कराई जाती थी। बच्चों के अनुकूल खुशनुमा माहौल बनाए रखने के लिए उनसे बच्चों जैसा व्यवहार करने के लिए गेम्स खिलाए गये। बच्चों को १० दिनों में पौष्टिक, एवं स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराया गया। बच्चों के अधिकांशतः लीवर, स्पलीन, पेनिक्रियाज, एवं पेट पर अधिक उपचार दिया गया। बच्चों की लगभग प्रतिदिन मालिश एवं घर्षण स्नान किया गया, जिसका नतीजा यह रहा कि सभी बच्चों के हीमोग्लोबिन में वृद्धि हुई । कुछ बच्चों का हीमोग्लोबिन स्टेबिल
रहा।
एक विशेष बात । थैलेसीमिया के जिले में संभवतः 22-24 मरीज है। लेकिन इनमें से अधिकांश गाँव में हैं और मध्यमवर्गीय हैं। इन बच्चों के लिए सरकार की ओर से मात्र बी. टी. के अलावा अन्य कोई सहयोग नहीं है। जैसे बच्चों को यदि प्राकृतिक चिकित्सालय में इलाज दिया जाये, तो 3000/- प्रतिमाह खर्च आयेगा। दो-तीन बच्चों को छोड़कर बाकी बच्चों की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है। यदि सरकार या एन. जी. ओ. संस्था या दानदाता इस ओर अपना ध्यान देवें, तो बच्चों का विकास किया जा सकता है। भाग्योदय तीर्थ में इन्हें लगातार उपचार दिया जायेगा, तो इन्हें काफी लाभ मिल सकता है। म. प्र. सरकार ने अभी तक प्राकृतिक चिकित्सकों का रजिस्ट्रेशन नहीं किया। अभी दिनांक 13/ 5/06 को भोपाल में म. प्र. प्राकृतिक चिकित्सा एसोसियेशन ग्रुप माननीय स्वास्थ्यमंत्री श्री अजय विशनोई जी से मिला । उन्होंने आश्वासन तो दिया, लेकिन कार्यरूप परिणत कब होगा कह नहीं सकते। सागर में 50 बिस्तरों का प्राकृतिक चिकित्सालय है। हमारे जिले के कलेक्टर एवं सी. एम. ओ. श्री वी. के. मिश्रा जी कोई सहयोग राशि देकर इन बच्चों को और प्राकृतिक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करा सकते हैं या माननीय सांसद जी, माननीय विधायक गण व अन्य
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राजनैतिक व औद्योगिक हस्तियाँ भी अपना सहयोग प्रदान कर इन बच्चों को जीवनदान जैसा बड़ा दान दे सकते हैं। डॉ. रेखा जैन भाग्योदय तीर्थ प्राकृतिक चिकित्यालय' खुरई रोड, सागर - 470001 (म.प्र.)
गृहणीरत्न पुष्पा जैन 'सरल' का वियोग जबलपुर निवासी श्रेष्ठ गृहणी श्रीमती पुष्पा जैन 'सरल' का आकस्मिक निधन 02-06-2006 को हृदयाघात से हो गया है, वे अपने धार्मिक आचार-विचार, गृह-संचालन की दक्षता एवं पारिवारिक मृदुव्यवहार के कारण समस्त रिश्तेदारों और परिचितों में गृहिणीरत्न के रूप में विख्यात, मिष्ट एवं शिष्ट वार्ता की धनी पुष्पा जी देश के विख्यात संत-चरित्रलेखक श्री सुरेश जैन 'सरल' की धर्मपत्नी थीं। 10 वर्षों से सरल जी के साथ देश के अनेक महान साधु-संतों, आचार्यों और आर्यिका माताओं के आशीष और वात्सल्य से अभिभूत थीं ।
भारत भूषण जैन
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द्वारा श्री सुरेश जैन 'सरल' 293, सरल कुटी, गढ़ाफाटक, जबलपुर
श्रीमती मदनमंजरीदेवी वर्धमान शास्त्री का स्वर्गवास
सोलापुर : जैनागम के प्रख्यात विद्वान् व्याख्यानकेसरी विद्यावाचस्पति तथा अनेक जैनपत्रों के संपादक, संशोधक स्व. पं. वर्धमान शास्त्री, सोलापुर की धर्मपत्नी श्रीमती मदनमंजरीदेवी का स्वर्गवास दि. 20/05/2006 को वृद्धाप्य के कारण हो गया है।
प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र दक्षिण जैन काशी मूडबद्री (कर्नाटक) इनका जन्मस्थल है। उन्होंने अपने जीवन को विविध तीर्थक्षेत्रों के विकासार्थ प्रदत्त दान, भारत के अधिकाधिक क्षेत्रों का दर्शन, विविध व्रताराधना, त्यागी सेवा इत्यादि कार्यों से सफल किया था ।
प्रा. सौ. सुजाता शास्त्री, सोलापुर.
श्री दौलतराम जैन तिजारिया के देवलोक गमन
परममुनिभक्त एवं समाज सेवी श्री दौलतराम जैन, तिजारिया का दिनांक 28 मई 2006 रविवार को जयपुर में णमोकारमंत्र का जाप करते हुए देहवसान हो गया। आप
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मूलतः तिजारा निवासी थे, आपका जन्म 9 अप्रेल 1917 को | द्वारा एवं ब्र. संदीप सरल द्वारा कराया गया। हुआ था।
पूज्य अनंतानंद सागर मुनिराज ने प्रतिदिन सांयकाल आपने तिजारा में यात्री विश्राम गृह का निर्माण, | मरणसमाधि साधना पर सारगर्भित प्रवचन दिए। चांदखेड़ी में आवास केशोरायपाटन में वेदी निर्माण, तलवंडी ब्र. संदीप सरल द्वारा रात्रिकालीन शिविर में प्राकृत जैन मंदिर में औषधालय कक्ष का निर्माण कराया। अनेकों | व्याकरण सिखाया गया एवं प्राकृत भाषा की सुंदरतम 51 जैन मंदिर एवं संस्थाओं को मुक्त हस्त से दान दिया। आप | गाथाएँ अर्थसहित पढ़ाई गईं। सकल जैन समाज कोटा एवं तलवंडी जैन समाज के संरक्षक अन्तिम दिन पूज्य मुनि श्री एवं क्षुल्लक जी के थे, आपका सम्पूर्ण व्यक्तित्व बहु आयामी प्रतिभा का धनी | आशीर्वाद से एवं ब्र. भैया की प्रेरणा से लगभग 50 बच्चों था। उनके निधन से समाज की अपूरणीय क्षति हुई है। जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की, जिसमें सभी बच्चों ने उत्साह
उनकी पुण्य स्मृति में परिवार ने ग्यारह पोलियो | पूर्वक अष्टमूल गुणधारण किए, सप्त व्यसनों के त्याग एवं आपरेशन के संकल्पसहित लगभग एक लाख रुपये विभिन्न | मांसाहारी होटलों में बना शाकाहारी भोजन न करने का मंदिर, संस्थाओं को प्रदान किए हैं।
संकल्प लिया। रमेश जैन तिजारिया समापन के अवसर पर प्रो. रतनचन्द्र जैन ने स्वाध्याय
में श्रावकों की रुचि के अभाव पर चिंता व्यक्त की। सचिव कासलीवाल जी के निधन से समाज को क्षति संतोष कुमार जैन ने सभी शिविरार्थियों को एवं आयोजकों
बाराँ (राज.) जैन समाज के शिरमोर, सबसे वृद्ध | को धन्यवाद ज्ञापन किया। शिविर के आयोजन में श्रीमती "ख्याति प्राप्त" धर्मवीर श्री मदनलाल जी कासलीवाल | संध्या जैन की भूमिका प्रशंसनीय रही। दिनांक 22.3.06 को दिन के 4.45 पर अपने परिजनों को
धरमचन्द बाझल्य छोड़कर अनन्त में विलीन हो गये। समाज ने उन्हें धर्मवीर की उपाधि से अंगीकार किया है। जब कभी समाज में
गुरूकुल ने पुनः इतिहास दुहराया विकास व अनुष्ठान की बात होगी, तब श्री कासलीवाल जी श्री वर्णी दिगम्बर जैन गुरुकुल पाण्डुकशिला परिसर की याद आये बिना नहीं रहेगी।
जबलपुर (म.प्र.) में हायरसेकेण्ड्री के शत प्रतिशत छात्रों ने प्रेमचन्द जैन अध्यक्ष परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ज्ञात इतिहास के नालंदा
और तक्षशिला नामक शिक्षा केन्द्रों की याद ताजा कर दी। अनेकान्त सम्यग्ज्ञान शिविर सम्पन्न । यह विद्यालय गत 5 वर्षों से 100 प्रतिशत परीक्षा परिणाम दे
पूज्य मुनि श्री अनंतानन्दसागर जी की पावन प्रेरणा से | रहा है। इस वर्ष विद्यालय के सर्वश्रेष्ठ छात्र धीरजकुमार जैन ऐलक श्री दिव्यानंद जी के सान्निध्य में उपर्युक्त शिविर | ने सभी छात्रों में प्रथम स्थान प्राप्त किया तथा रितुराज द्वितीय दिनांक 30.4.06 से 9.05.06 तक ब्रह्मचारी श्री संदीप सरल, | एवं बसंत ततीय स्थान पर रहे। इस विद्यालय में जहाँ छात्रों संस्थापक अनेकान्त ज्ञान मंदिर शोध संस्थान बीना (म.प्र.) | को भारतीय संस्कृति के अनुरूप नैतिक शिक्षा प्रदान की के निर्देशन में श्री पार्श्वनाथ दि. जैन मंदिर शाहपुरा भोपाल | जाती है, वहीं उनके व्यक्तित्व के निर्माण की दिशा में प्रेरक (म.प्र.) में सम्पन्न हुआ।
शिक्षा भी दी जाती है। गुरुकुल अधिष्ठाता ब्र. जिनेश जी के ब्र. संदीप सरल द्वारा, अक्षय तृतीया के पावन दिवस | निर्देशन में तथा अधीक्षक राजेश जी के मार्गदर्शन में विद्यालय पर, अमर कवि पं. दौलत राम जी की बेजोड़ रचना छहढाला | के छात्रों को उचित शिक्षा-दीक्षा प्रदान की जा रही है। परम के स्वाध्याय से शिविर आरंभ किया गया। यह वही दिन था | पज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से जिस दिन पंडित जी ने छहढाला की रचना पूर्ण की थी। छात्र सफलता अर्जित कर रहे हैं। अपराह्नकालीन शिविर में द्रव्य संग्रह एवं जिनागम
राजेश कुमार जैन प्रवेश का स्वाध्याय क्रमशः क्षुल्लक 105 श्री दिव्यानन्द जी
अधीक्षक
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 47
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कुण्डलपुर के विषय में उच्च न्यायालय का आदेश म. प्र. उच्च न्यायालय जबलपुर के न्यायाधीश माननीय | जिम्मेदारी ट्रस्ट की होगी। यदि प्रकरण के अन्तिम निर्णय में न्यायामूर्ति श्री के. के. लोहाटी ने कुण्डलपुर में निर्माणाधीन | न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि मूर्ति प्राचीन महत्त्व बड़े बाबा के नये मन्दिर के निर्माण के स्थगनादेश में संशोधन | की है या पुराना मंदिर संरक्षित स्मारक है तो कुण्डलपुर क्षेत्र कर दिनांक 20 मई 2006 को निम्न आदेश पारित किये : | कमेटी किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति आदि का दावा नहीं
1. पांच सदस्यों की एक कमेटी गठित की गई है | करेगी और पुरातत्त्व विभाग नये मंदिर और मूर्ति का अधिकारी जिसमें जिला न्यायाधीश दमोह, कलेक्टर दमोह, पुलिस | होगा। सुपरिटेन्डेन्ट दमोह, एक प्रतिनिधि आर्कलोजीकल विभाग 7. क्षेत्र कमेटी द्वारा न्यायालय के रजिस्ट्रार को उपर्युक्त
और एक प्रतिनिधि कुण्डलपुर सिद्धक्षेत्र कमेटी के सदस्य अंडरटेकिंग मिलने के पश्चात न्यायालय द्वारा गठित कमेटी होंगे। इस कमेटी का कार्य बड़े बाबा की मूर्ति के ऊपर | | की पहली मीटिंग एक सप्ताह के भीतर होगी, जिससे निर्माण पक्का डोम (Dome) बनवाना और मूर्ति की सुरक्षा, जहाँ | का कार्य शीघ्र प्रारम्भ किया जा सके। मूर्ति वर्तमान में स्थापित है, होगा।
8. यह अंतरिम व्यवस्था उस स्थान के संबंध में है 2. कमेटी डोम के निर्माण एवं उसकी Design की| जहाँ मूर्ति वर्तमान में स्थापित है। कमेटी निर्माणकार्य की स्वीकृति प्रदान करेगी। यदि आवश्यक हो तो कमेटी इस | अनुमति केवल उस भाग की देगी, जो मानचित्र में AA से सम्बन्ध में किसी वरिष्ठ तकनीकी विशेषज्ञ की सेवायें भी | दर्शाया गया है। शेष भाग के निर्माण की अनुमति नहीं दे ले सकेगी। कमेटी का यह दायित्व होगा कि मूर्ति को किसी | सकेगी। प्रकार की क्षति न हो।
9. कमेटी (न्यायालय द्वारा गठित) निर्माणकार्य की 3. यदि कमेटी में निर्णय लेने में मत-विभाजन हो, | देखरेख करेगी और समय समय पर स्थल निरीक्षण भी तो जिला न्यायाधीश का निर्णय अंतिम माना जावेगा। लेकिन | करेगी और यह निश्चित करेगी कि मूर्ति सुरक्षित है। इस ऐसा कोई भी निर्णय उच्च न्यायालय के आदेश के लिये सम्बन्ध में जिला न्यायाधीश उच्च न्यायालय में अपना न्यायालय के समक्ष किसी भी पार्टी द्वारा लाया जा सकेगा | प्रतिवेदन प्रतिमाह प्रस्तुत करेंगे और तीन माह पश्चात अंतिम और उच्च न्यायालय का फैसला ही मान्य होगा।
रिपोर्ट न्यायालय को देंगे। 4. निर्माणकार्य का सम्पूर्ण व्यय कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी न्यायालय ने यह भी कहा है कि यह एक अंतरिम को वहन करना होगा। कमेटी तकनीकी विशेषज्ञ एवं अन्य | आदेश है और अंतिम निर्णय बिना इस आदेश को ध्यान में सभी निर्माण साधन उपलब्ध करावेगी। सम्पूर्ण निर्माणकार्य | रखकर गुणदोष के आधार पर किया जावेगा। दोनों पक्ष उच्च न्यायालय द्वारा गठित कमेटी की देखरेख और अनुमोदन | अपने तर्क देने के लिये स्वतन्त्र होंगे। यदि कोई भी पक्ष इस से ही किया जावेगा। यदि न्यायालय अन्त में यह निर्णय देवे | निर्णय के सम्बन्ध में कोई वाद प्रस्तुत करना चाहे, तो वे कि कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी का मूर्ति या मंदिर के स्वामित्व | आठ सप्ताह तक ऐसा कर सकेंगे उसके पश्चात् इस वाद के का अधिकार नहीं है, तो कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी किसी | निर्णय के लिये केस लिया जावेगा। क्षति-पूर्ति की अधिकारी नहीं होगी।
न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी कहा कि पक्के 5. कुण्डलपुर क्षेत्र कमेटी को न्यायालय में | Dome का निर्माण मूर्ति के ऊपर न्यायालय द्वारा दर्शाये गये अण्डरटेकिंग (लिखित-वायदा) देना होगी कि मूर्ति के | भाग तक ही सीमित रहेगा, लेकिन पूजा करनेवालों के लिये ऊपर गुम्बज (Dome) बनाने का पूरा व्यय वे वहन करेंगे। अस्थाई शेड आदि की व्यवस्था की जा सकेगी। जिससे यह निर्माण मानचित्र में दर्शाये गये भाग का ही होगा। शेष | उन्हें धूप या वर्षा से परेशानी न हो। भाग का निर्माण नहीं किया जावेगा। क्षेत्र कमेटी १ करोड़ |
श्री हजारीलाल जी जैन का स्वर्गवास रूपये की स्योरिटी (जमानत) न्यायालय को प्रेषित करेगी
___ अ.भा.दि. जैन बघेरवाल समाज एवं श्री आदिनाथ कि निर्माण करते समय मूर्ति को किसी प्रकार की क्षति न
दि. क्षेत्र चाँदखेड़ी (झालावाड़) के संरक्षक स्व. श्री हो। यदि कोई क्षति होगी, तो कमेटी को क्षतिपूर्ति करनी
हजारीलाल जैन (खटोड़) का दिनांक 13 अप्रैल 2006 होगी।
को प्रात: 4:00 बजे अपने कोटा जं. स्थित निवास पर 6. कुण्डलपुर ट्रस्ट को एक ऐसा प्रस्ताव पारित कर
देहावसान हो गया है। न्यायालय को देना होगा, जिसमें निर्माणकार्य की पूरी
डॉ. राजेन्द्र कुमार जैन, कोटा (राजस्थना) 48 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
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वृषभनाथ - स्तवन (द्रुतविलम्बित छन्द)
१
वृषभदेव जिनेश्वर पूज्य हैं, कर रहे गुन गान सुरेन्द्र हैं। मुकुट तो पद पंकज में रहा, विषय को तजने मन हो रहा ॥
२
वृषभदेव हमें तुम तार दो, पतित हूँ तुम पावन देव हो। युग युगान्तर से भ्रमता रहा, इसलिए तव पाद सु आ गया ॥
३ अमर लोक सदा तब पाद में, स्तवन-वन्दन-कीर्तन में रमें। चरण में नतमस्तक हैं सदा, यह सुवर्ण घड़ी मिलती कदा ॥
४
त्रिजग-पंकज को तुम सूर्य हो, अमृत-धर्म पयोधर-आप हो । प्रभु निरंजन ज्ञान सुधामयी, वह सुगन्ध शरीर निरामयी ॥
५
गरल-पाप-निवारक आप हैं, जगत के हित चिन्तक आप हैं। प्रथम तीर्थ-प्रवर्तक आप हैं, परम-ब्रह्म-निवासक आप हैं ॥
६ सलिल उज्ज्वल शीतल पान से, तपनता मिटती अति शीघ्र ही । इस प्रकार जिनेश्वर भारती, भाविक की भव ताप निवारती ॥
● मुनि श्री योगसागर जी
अजितनाथ-स्तवन
(द्रुतविलम्बित छन्द)
१
अजितनाथ अजेय बलाढ्य ये, भव अनन्त भवाब्धि सुखा दिये। प्रबल मोह पिशाच हरा दिये, कृतकृतार्थ हुआ नर जन्म ये ॥
२
कनकवर्ण मनोहर रूप से, उदित बाल दिवाकर से लसे। जगत में अति सुन्दर कौन है, अमर लज्जित शीश झुका रहे ॥
३
सकल वैभव औ परिवार से, तज दिया ममता त्रय योग से। सघन कानन में तप को लिये, मन तरंग विलीन सदा हुये ॥
४
तव मुखाकृति स्वयमेव ही, अभय का वरदान मिले सही । इसलिए तव पाद-सरोज में, सकल जीव तजें चिर वैर को ॥ ५
नयन से उर में आ बसे, हृदय मन्दिर उज्ज्वल भवा से। सफल भक्त हुआ तव भक्ति से, सतत भक्ति करें तव नाम से ॥
प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन
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________________ 0 रजि नं. UPHIN/2006/16750 मुनिश्री क्षमासागर जी की कविताएँ गन्तव्य पहला कदम एक अनुभूति जितनी दूर देखता हूँ, उतनी ही रिक्तता पाता हूँ जितना निकट आता हूँ उतना ही भर जाता हूँ। सारे द्वार खोलकर बाहर निकल आया हूँ, यह यात्रा पर निकला हूँ, लोग बार-बार पूछते हैं, कितना चलोगे? कहाँ तक जाना है? मैं मुस्कराकर आगे बढ़ जाता हूँ, किससे कहूँ कि कहीं तो नहीं जाना, मुझे इस बार अपने तक आना है। मेरे भीतर प्रवेश का पहला कदम है। "अपना घर" से साभार मुनि श्री क्षमासागर जी के स्वास्थ्य में सुधार आचार्य श्री विद्यासागर जी के परम शिष्य मुनि श्री क्षमासागर जी एवं मुनि श्री भव्यसागर जी ने अपने मुरैना वर्षायोग के पश्चात् ग्वालियर होते हुए 18 दिसम्बर 2005 को शिवपुरी नगर में प्रवेश किया और वहाँ से 17 फरवरी 2006 को पदविहार करते हुए६ मार्च को गुना नगर में पदार्पण किया। आचार्यश्री के आदेशानुसार मुनि श्री अभयसागर जी एवं मुनि श्री श्रेयांससागर जी भी कुण्डलपुर से विहार कर 6 मार्च को गुना नगर में पधारे। मुनि श्री क्षमासागर जी, मुनि श्री भव्यसागर जी, मुनि श्री अभयसागर जी एवं मुनि श्री श्रेयांस सागर जी का स्थानीय स्टेडियम में गुना नगरवासियों ने भव्य स्वागत किया और जुलूस के साथ चौधरी मुहल्ले के मन्दिर परिसर तक समारोह पूर्वक उन्हें लाया गया। वहाँ जुलूस धर्मसभा में परिवर्तित हो गया। इस समय चारों मुनिराज इस परिसर में विराजमान हैं और धर्म प्रभावना कर रहे हैं। मुनि श्री क्षमासागर जी ने अस्वस्थता के बाबजूद शिवपुरी से गुना नगर को पद-विहार किया। आचार्य श्री के आशीर्वाद से उनके स्वास्थ्य में अब सुधार हो रहा है और आशा है कि वे शीघ्र ही पूर्ण स्वस्थ हो जावेंगे। ब्र. शन्तिलाल जैन स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, __Jain Education Internationaभापाल (म.प्र.) स मुद्रित एव 1/205 प्राफसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द जैन।