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आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे
कल्पवृक्ष से अर्थ क्या? कामधेनु भी व्यर्थ। चिन्तामणि को भूल अब, सन्मति मिले समर्थ॥
२ तीर उतारो, तार दो, त्राता! तारक वीर। तत्त्व-तन्त्र हो तथ्य हो, देव देवतरु धीर॥
दृष्टि मिली पर कब बनूँ, द्रष्टा सब का धाम। सृष्टि मिली पर कब बनें, स्रष्टा निज का राम॥
११ गुण ही गुण, पर में सदा, खोनँ निज में दाग। दाग मिटे बिन गुण कहाँ, तामस मिटते राग।
१२ सुनें वचन कटु पर कहाँ, श्रमणों को व्यवधान। मस्त चाल से गज चले, रहें भोंकते श्वान ॥
३
पूज्यपाद गुरुपाद में, प्रणाम हो सौभाग्य। पाप ताप संताप घट, और बढ़े वैराग्य॥
भाररहित मुझ, भारती! कर दो सहित सुभाल। कौन सँभाले माँ बिना, ओ माँ! यह है बाल॥
५
सर्वोदय इस शतक का, मात्र रहा उद्देश्य। देश तथा परदेश भी, बने समुन्नत देश॥
पंक नहीं पंकज बनूँ, मुक्ता बनूँ न सीप। दीप बनूँ जलता रहूँ, प्रभु-पद-पद्म-समीप॥
मत डर, मत डर मरण से, मरण मोक्ष-सोपान। मत डर, मत डर चरण से, चरण मोक्षसुख-पान ।।
१४ सागर का जल क्षार क्यों, सरिता मीठी सार। बिन श्रम संग्रह अरुचि है, रुचिकर श्रम उपकार॥
१५ देख सामने चल अरे, दीख रहे अवधूत। पीछे मुड़कर देखता, उसको दिखता भूत॥
१६ पद पंखों को साफ कर, मक्खी उड़ती बाद। सर्व-संग तज ध्यान में, डूबो तुम आबाद।
१७ अँधेर कब दिनकर तले, दिया तले वह होत। दुखी अधूरे हम सभी, प्रभु पूरे सुख-स्रोत ॥
प्रमाण का आकार ना, प्रमाण में आकार। प्रकाश का आकार ना, प्रकाश में आकार ॥
एक नजर तो मोहिनी, जिससे निखिल अशान्त। एक नजर तो डाल दो, प्रभु! अब सब हों शान्त ॥
९ भास्वत मुख का दरस हो, शाश्वत सुख की आस। दासक-दुख का नाश हो, पूरी हो अभिलाष॥
१८
यथा दुग्ध में घृत तथा, रहता तिल में तैल। तन में शिव है, ज्ञात हो, अनादि का यह मेल॥
"सर्वोदयशतक" से साभार
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