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________________ हैं स्वामी कुन्दकुन्दाचार्य भी अपने दर्शनपाहुड में लिखते | अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि कुल और जाति के | घमंड का यह महारोग जैनियों में भी जोर-शोर के साथ घुस णवि देहो वन्दिजइ ण वि य कुलोण वि य जाइसंजुत्तो। | गया, जिसका फल यह हुआ कि नवीन जैनी बनते रहना तो , को वंदमि गुणहीणो ण हुसवणो णेव सावओ होई ॥२७॥ | दूर रहा, लाखों-करोड़ों मनुष्य, जिनको इन महान् आचार्यों अर्थात् न तो देह को बन्दना की जाती है, न कुल की | ने बड़ी कोशिश से जैनी बनाया था, उच्च कुल का घमंड और न जाति-सपन्न की। गुणहीन कोई भी, वन्दना किये | | रखने वाले जैनियों में प्रतिष्ठा न पाने के कारण जैन धर्म को जाने के योग्य नहीं; जो न तो श्रावक ही होता है और न मुनि | | छोड़ बैठे! इसके सबूत के तौर पर अब भी अनेक जातियाँ ही। भावार्थ - वन्दना अर्थात् पूजा-प्रतिष्ठा के योग्य या तो | ऐसी मिलती हैं, जो किसी समय जैनी थीं, परन्तु अब उनको श्रावक होता है और या मुनि; क्योंकि ये दोनों ही धर्म-गुण से | जैनधर्म से कुछ भी वास्ता नहीं है। और यह तो स्पष्ट ही है विशिष्ट होते हैं। धर्म-गुण-विहीन कोई भी कुलवान् तथा | कि जहाँ इस भारतवर्ष में किसी समय जैनी अधिक और ऊँची जातिवाला अथवा उसकी हाड़माँस भरी देह । अन्यमती कम थे, वहाँ अब पैंतीस करोड़ मनुष्यों में कुल पूजाप्रतिष्ठा-योग्य नहीं है। ग्यारह लाख ही जैनी रह गये हैं ' और उनको भी अनेक . श्री शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णाव के अध्याय 21 श्लोक | प्रकार के अनुचित दण्ड-विधानों आदि के द्वारा घटाने की नं. 48 में लिखा है कि = कोशिश की जा रही है। कुलजातीश्वरत्वादिमद-विध्वस्तबुद्धिभिः। __घटे या बढ़ें, जिनको धर्म से प्रेम नहीं है, जिनको धर्म सद्यः संचीयते कर्म नीचैर्गतिनिबन्धनम्॥ की सच्ची श्रद्धा नहीं है और जो सम्यक्त्व के स्थितीकरण अर्थात् कुलमद, जातिमद, ऐश्वर्यमद आदि मदों से | तथा वात्सल्य अङ्गों के पास तक नहीं फटकते उन्हें ऐसी जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है ऐसे लोग बिना किसी विलम्ब | बातों की क्या चिन्ता और उनसे क्या मतलब! हाँ, जो सच्चे - के शीघ्र ही उस पाप कर्म का संचय करते हैं जो नीच गति | श्रद्धानी हैं, धर्म से जिनको सच्चा प्रेम है, वे जरूर मनुष्यमात्र का कारण है, नरक-तिर्यंचादि अनेक कुगतियों और कुयोनियों | | में उस सच्चे जैन धर्म को फैलाने की कोशिश करेंगे, जिस में भ्रमण कराने वाला है। पर उनकी दृढ़ श्रद्धा है। अर्थात् कोई छूत हो वा अछूत, ऊँच इन्हीं शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव के 9वें अध्याय के हो वा नीच सभी को वे धर्म सिखाएँगे, सबही को जैनी श्लोक नं. 30 में यह भी प्रकट किया है कि जो लोग | बनाएंगे और जो जैनधर्म धारण कर लेगा, उसके साथ वात्सल्य विकलाङ्गी हों, खण्डितदेह हों, विरूप हों, बदसूरत हों, | रखकर हृदय से प्रेम भी करेंगे, उसकी प्रतिष्ठा भी करेंगे दरिद्री हों, रोगी हों और कलजाति आदि से हीन हों, वे सब | और उसे धर्म-साधना की सब प्रकार की सहलियतें भी शोभासम्पन्न हैं, यदि सत्य-सम्यक्त्व से विभूषित हैं। अर्थात् | | प्रदान करेंगे तथा दूसरों से भी प्राप्त कराएंगे। उनके लिए धर्मात्मा पुरुष कुल, जाति आदि से हीन होने पर भी किसी | स्वामी समन्तभद्र का निम्न वाक्य बड़ा ही पथ-प्रदर्दक होगा, प्रकार तिरस्कार के योग्य नहीं होते। जो जाति आदि के मद | जिसमें स्पष्ट लिखा है कि जो श्री जिनेन्द्रदेव को नतमस्तक में आकर उनका तिरस्कार करता है, वह पूर्वोक्त श्लोकानुसार | होता है, उनकी शरण में आता है, अर्थात् जैनधर्म को ग्रहण अपने को नीच गति का पात्र बनाता है। यथा - करता है, वह चाहे कैसा ही नीचातिनीच क्यों न हो, इसी खंडितानां विरूपाणां दुर्विधानां च रोगिणाम्। लोक में, इस ही जन्म में, अति ऊँचा हो जाता है; तब फिर कुलजात्यादिहीनानां सत्यमेकं विभूषणम्॥ कौन ऐसा मूर्ख है अथवा कौन ऐसा बुद्धिमान् है, जो जिनेन्द्रदेव स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की 430 वीं गाथा में भी लिखा | की शरण में प्राप्त न होवे अर्थात् उनका बताया हुआ धर्ममार्ग है कि उत्तमधर्मधारी तिर्यंच-पशु भी उत्तम देव हो जाता है | ग्रहण न करे? सभी जैन धर्म की शरण में आकर अपना तथा उत्तम धर्म के प्रसाद से चांडाल भी देवों का देव सुरेन्द्र | इहलौकिक तथा पारलौकिक हित साधन कर सकेंगे। बन जाता है। यथा यो लोके त्वानतः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुर्यतिः। उत्तमधम्मेणजदोहोदि तिरक्खो विउत्तमो देवो। बालोऽपि त्वा श्रितं नौति को नो नीतिपुरः कुतः॥ चंडालो वि सुरिंदो उत्तमधम्मेण संभवदि॥ आचार्यों की ऐसी स्पष्ट आज्ञाओं के होने पर भी, | 11. यह लेख 1938 ई. में लिखा गया था। -सम्पादक 24/ अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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