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________________ के कारण उसका निरन्तर पतन ही होता रहेगा और वह अन्त | धर्म की बात उसके मुख से निकल जाय तो उसकी जीभ को दुर्गति का पात्र बनेगा। समन्तभद्र का वह गम्भीरार्थक | काट ली जाय, ऐसे विधान भी बने। प्रत्युत इसके, ब्राह्मण श्लोक इस प्रकार है चाहे कुछ धर्म कर्म जानता हो या न जानता हो और चाहे वह यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्। कैसा ही नीच कर्म करता हो, तो भी वह पूज्य माना जावे। अथ पापास्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम्॥ ऐसा होने पर एकमात्र हाड़मांस की ही छटाई-बड़ाई रह गई। इसके बाद का निम्न श्लोक नं. 28 भी इसी बात को | किसी का हाड़ मांस पूज्य और किसी का तिरस्कृत समझा पुष्ट करने के लिए लिखा गया है और उसमें यह स्पष्ट गया। बतलाया गया है कि चाण्डालका पुत्र भी यदि सम्यग्दर्शन फल इसका यह हुआ कि धर्म-कर्म सब लुप्त हो ग्रहण कर ले, धर्म पर आचरण करने लगे, तो कुलादि | गया। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तो धर्म-ज्ञान से वंचित कर ही सम्पत्ति से अत्यन्त गिरा हुआ होने पर भी पूज्य पुरुषों ने | दिये गए थे; किन्तु ब्राह्मणों को भी अपनी जाति के घमण्ड में उसको 'देव' अर्थात् आराध्य बतलाया है, तिरस्कार का पात्र | आकर ज्ञानप्राप्ति और किसी प्रकार के धर्माचरण की जरूरत नहीं; क्योंकि वह उस अंगार के सदृश होता है, जो बाह्य में | | न रही। इस कारण वे भी निरक्षर-भट्टाचार्य तथा कोरे बुद्ध राख से ढका हुआ होने पर भी अन्तरंग में तेज तथा प्रकाश | रहकर प्रायः शूद्रों के समान बन गए और अन्त को रोटी को लिए हुए है और इसलिए कदापि उपेक्षणीय नहीं होता - बनाना, पानी पिलाना, बोझा ढोना आदि शूद्रों की वृत्ति तक सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम्। | धारण करने के लिए उन्हें बाधित होना पड़ा। देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम्॥ संक्रामक रोग की तरह यह बीमारी जैनियों में भी फिर इसी को अधिक स्पष्ट करते हुए श्लोक नं. 29 | फैलनी शुरू हुई, जिससे बचाने के लिए ही आचार्यों को यह में लिखते हैं कि "धर्म धारण करने से तो कत्ता भी देव हो सत्य सिद्धान्त खोलकर समझाना पडा कि जो कोई अपनी 'जाता है और अधर्म के कारण-पापाचरण करने से-देव भी | जाति व कुल आदि का घमण्ड करके किसी नीचातिनीच, कुत्ता बन जाता है । तब ऐसी कौन सी सम्पत्ति है जो धर्मधारी | यहाँ तक कि चाण्डाल-रज-वीर्य से पैदा हुए चाण्डाल-पुत्र को प्राप्त न हो सके?" ऐसी हालत में धर्मधारी कत्ते को को भी, जिसने सम्यग्दर्शनादि के रूप में धर्म धारण कर क्यों नीचा समझा जाय और अधर्मी देव को तथा अन्य किसी | लिया है, नीचा समझता है, तो वह वास्तव में उस चाण्डाल ऊँचे वर्णा वा जातिवाले धर्महीन हो क्यों ऊँचा माना जाय? | का अपमान नहीं करता है, किन्तु अपने जैन-धर्म का ही वह श्लोक इस प्रकार है - अपमान करता है, उसके हृदय में धर्म का श्रद्धान रंचमात्र भी श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात्। नहीं है। धर्म का श्रद्धान होता, तो जैन-धर्मधारी चांडाल को कापि नाम भवदेन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम्॥ क्यों नीचा समझता ? धर्म धारण करने से तो वह चाण्डाल इस प्रकार आठों प्रकार के मदों का वर्णन करते हुए | बहुत ऊँचा उठ गया है; तब वह नीचा क्यों समझा जाय ? श्री समन्तभद्र स्वामी ने जाति और कुल के मद का विशेष | कोई जाति से चाण्डाल हो वा अन्य किसी बात में हीन हो, रूप से उल्लेख करके इन दोनों मदों के छुड़ाने पर अधिक | यदि उसने जैन धर्म धारण कर लिया है, तो वह बहुत कुछ जोर दिया है। कारण इसका यही है कि हिन्दुस्तान को एक | ऊँचा तथा सम्माननीय हो गया है। सम्यग्दर्शन के वात्सल्य मात्र इन्हीं दो मदों ने गारत किया है। ब्राह्मणों का प्राबल्य होने | अङ्ग-द्वारा उसको अपना साधर्मी भाई समझना, प्यार करना, पर कुल और जाति का घमण्ड करने की यह बीमारी सबसे | लौकिक कठिनाइयाँ दूर करके सहायता पहुँचाना और धर्मपहले वेदानयायी हिन्दुओं में फूटी। उस समय एकमात्र | साधन में सर्व प्रकार की सहूलियतें देना, यह सब सच्चे ब्राह्मण ही सब धर्म-कर्म के ठेकेदार बन बैठे, क्षत्रिय और | श्रद्धानी का मुख्य कर्त्तव्य है। जो ऐसा नहीं करता उसमें धर्म वैश्य के वास्ते भी वे ही पूजन-पाठ और जप-तप करने के | का भाव नहीं, धर्म की सच्ची श्रद्धा नहीं और न धर्म से प्रेम ही अधिकारी रह गए; शूद्र न तो स्वयं ही कुछ धर्म कर सकें | कहा जा सकता है। धर्म से प्रेम होने का चिह्न ही धर्मात्मा के और न ब्राह्मण ही उनके वास्ते कुछ करने पावें, ऐसे आदेश | साथ प्रेम तथा वात्सल्य भाव का होना है। सच्चे धर्म-प्रेमी निकले; शूद्रों की छाया से भी दूर रहने की आज्ञाएँ जारी | को यह देखने की जरूरत ही नहीं होती कि अमुक धर्मात्मा हुई। अचानक भी यदि कोई वेद का वचन शूद्र के कान में | का हाड़मांस किस रजवीर्य से बना है, ब्राह्मण से बना है या पड़ जाय, तो उसका कान फोड़ दिया जाय और यदि कोई | चाण्डाल से? -अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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