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________________ श्री ने कहा 'ग्रह नौ क्यों मानते हो दस मानो। दसवाँ ग्रह | इसे पापकर्मों के उदय का फल जानकर शांति से, समतापूर्वक परिग्रह है। इसको छोड़ दो, तो कोई ग्रह तुम्हारा कुछ बिगाड़ सहन करता है। ज्ञानी जीव विषय-कषायों की इच्छा रहित नहीं सकेगा। सारांश यह है कि ये 'नवग्रह' हमें दुख देने | होता हुआ पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि करता है, क्योंकि की सामर्थ नहीं रखते। वह जानता है कि 1. प्रभुभक्ति से असातवेदनीय का साता में प्रश्न - क्या शांतिविधान करना उचित है ? संक्रमण हो जाता है। 2. असातावेदनीय का अनुभाग क्षीण उत्तर - इस संबंध में यदि आप गौर से 'शांतिविधान' | हो जाता है। 3. सातावेदनीय का बंध होता है। ये तीनों कारण के सभी अर्थों को देखेंगे, तो उनमें यह कहीं भी नहीं लिखा | सांसारिक दुखों के नाश एवं सुखों की प्राप्ति में हेतु है। है कि मेरी सांसारिक परेशानियाँ दूर करें या मुझे सांसारिक | इसलिए ज्ञानीजीव विषय-कषाय दूर करने के लिए तथा सुखों की प्राप्ति कराएँ। 'शांतिविधान' के सभी अक़ का | शुद्धात्मभावना की साधना के लिए पंचपरमेष्ठी के तात्पर्य यही है कि सभी सांसारिक दुःखों को दूर करनेवाले | गुण्स्मरणादिरूप शुभोपयोगपरिणाम करता है। उदाहराणार्थ तथा सभी प्रकार के सांसारिक एवं आत्मिक सुखों को प्रदान | इस संबंध में पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का करने वाले 'शांतिनाथ भगवान्' को अर्घ समर्पित करता हूँ। | निम्न संस्मरण परम उपादेय है - एक प्रतिमाधारी सज्जन इन अर्षों में कही भी सांसारिक सुखों की कामना नहीं है। बड़े दुःखी मन से पूज्य आचार्य श्री से कह रहे थे, 'मैंने केवल भक्तिभाव से पूजा करने के फल का वर्णन है। अतः आपसे पाँच लाख रुपये की संपत्ति का नियम लिया था और 'शांतिनाथ विधान' करना अनुचित कैसे कहा जा सकता है? | व्यापार छोड़ दिया था। जिसके पास ब्याज की आमदानी के प्रश्न - प्रतिक्रमण पाठ तथा अन्य स्तोत्र आदि भी तो | लिए रुपये जमा करवाए थे, वह पार्टी फेल हो गई है। अब आचार्यों ने दु:खों के नाश के लिए फिर क्यों लिखे? मैं बड़ा दुःखी हूँ, क्या करूँ? कोई मन्त्र आदि बता दीजिए उत्तर - प्रतिक्रमण पाठ में जो 'दुक्खक्खओ | ताकि संकट दूर हो जाये।' पूज्य आचार्य श्री यह सब सुनकर कम्मक्खओ' आदि पाठ आता है, उसमें 'दु:खों का क्षय हो' | मुस्कराए और बोले 'अब तो आनंद आ गया। रुपयों से तो इसके अन्तर्गत जन्म-जरा और मृत्यु इन दुखों के नाश होने | पीछा छूट ही गया, कपड़ों को और छोड़ दो और मेरे पास आ की भावना है अर्थात् संसार भ्रमण के नष्ट होने की भावना है, जाओ।सारे संकट तुरंत समाप्त हो जायेंगे।' आगमनिष्ठ शुद्ध कोई पुत्रसंबंधी, धनसंबंधी या परिवारसंबंधी दुखों के नाश | चारित्र पालनेवाले आचार्यों एवं मुनि-आर्यिकाओं का उत्तर होने की भावना नहीं है। मैनासुंदरी से भी मुनिराज ने यही | उपर्युक्त प्रकार ही होना चाहिए ताकि लौकिकजन सांसारिक कहा था कि तुम सिद्धचक्रविधान करो, इससे समस्त पाप | | सुखों में उपादेयता मानना छोड़ दें। कर्मों का नाश होता है। मैनासुंदरी ने यदि बिना निदान के, | वर्तमान में मुनिभक्ति का रूप एकदम बदल गया है। विधान न किया होता तो शायद ऐसा फल देखने में न आता। अधिकांश साधर्मी भाइयों का लक्ष्य यही रहता है कि महाराज आ. शांतिसागर महाराज ने भी एक व्यक्ति के सफेद दाग दर की भक्ति से हमारे सांसारिक धन-संबंधी, शरीर संबंधी, करने के लिए एकीभाव स्तोत्र पाठ करने के लिए उपदेश | कोर्ट-कचहरी संबंधी दुख नष्ट हो जायें। ये महाराज कोई दिया था, क्योंकि वह सफेद दाग के कारण धार्मिक अनुष्ठान | ऐसा मंत्र दे दें, जिससे हमें अमुक कार्य की सिद्धी हो जाय। नहीं कर पाता था। सीताजी ने भी अग्निशिखा को जल बनाने | इस माहौल को देखकर अधिकांश साधु भी श्रावकों को के लिए प्रभुस्तवन नहीं किया था। इन सब प्रसंगों में दुःखों | आकर्षित करने के लिये, उनको यंत्र-मंत्र आदि देने लगे हैं, के नाश के लिये भक्ति नहीं की गई थी। ये सब प्रसंग बताते | जो आगमदृष्टि से कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यह हैं कि निष्कांक्ष भक्ति करने वालों के दःख स्वयमेव नाश को | हमारे समाज के दुर्भाग्य का सूचक है। वीतरागता का पाट प्राप्त हो जाते हैं। पढ़ाने वाले निर्ग्रन्थ साधु ही यदि हमें भोगों की प्राप्ति में प्रश्न - वर्तमान में बहुत से साधु एवं आर्यिकाएँ | सहायक बन जायेंगे, तो फिर त्याग-तपस्या का पाठ कौन फिर हमारे दुःखों को दूर करने के लिए मंत्र क्यों देते हैं ? | पढ़ायेगा? उत्तर - वर्तमान में बहुत से साधु एवं आर्यिका आदि| अत: सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिये 'साकांक्ष' पुत्रप्राप्ति के लिए , व्यापारसमृद्धि या धनप्राप्ति के लिए, | पूजा करना मिथ्यात्व ही है और सम्यक्त्व को नष्ट करने में मुकदमा जीतने के लिए जो मंत्र-जाप आदि करने की राय | कारण है। देते हैं वह आगमदृष्टि से उचित नहीं है। 972, सेक्टर-7 आवास विकास कालोनी, आगरा उपर्युक्त परिस्थितियों के उपस्थित होने पर ज्ञानी तो मो. -9411206855 34 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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