________________
क्या 'सकांक्ष पूजा' मिथ्यात्व है? एक विवेचन
प्रश्न- क्या 'नवग्रह अरिष्ट निवारक विधान' करना उचित है ?
"जिनभाषित" नवम्बर 2005 के अंक में प्रकाशित | में कोढ़ आदि ऐसी व्याधियाँ, जो धार्मिक क्रियाकलापों के संपादकीय लेख “साकांक्ष पूजा" पर बहुत से लोगों से, करने में बाधा उत्पन्न करती हैं आदि, तो इन संकटों के अनेक प्रकार के प्रश्न प्राप्त हुए हैं। उन सब प्रश्नों का इस निवारणार्थ, सम्यग्दृष्टि जीव पूजा-अनुष्ठान आदि कर सक लेख के माध्यम से समाधान प्रस्तुत किया जा रहा है है। इसके अलावा शुद्ध सम्यग्दृष्टि तो आत्मकल्याण के लिए ही पूजा-अनुष्ठान आदि करता है। उसका मुख्य कारण विषयकषायों को रोकना और शुद्धात्म भावना की सिद्धि करना होता है । अत: नवग्रह द्वारा दिये गये दुःखों के निवारण के लिये कोई भी विधान करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ।
उत्तर - इस प्रश्न के उत्तर में यह विचार करना अति आवश्यक है कि क्या जैन शास्त्रों में सूर्य, चन्द्र आदि नवग्रह मान्य हैं, या नहीं ? लोक में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू, केतु ये नवग्रह माने जाते हैं। जबकि जैनप्रश्न क्या ये 'नवग्रह' हम संसारी जीवों को दुख आगम में चन्द्रमा इन्द्र, सूर्य को प्रतीन्द्र और बुध, शुक्र देने की सामर्थ्य रखते हैं ? आदि 88 ग्रहों का वर्णन पाया जाता है। इससे यह सिद्ध है। कि नवग्रह मानने की परम्परा वैदिक है, जैन आगम सम्मत नहीं। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है
उत्तर
इसके उत्तर में कार्तिकेयानुप्रेक्षा की निम्न गाथा बहुत उपयोगी है :
वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ 23 ॥
अर्थ - जो अपने को अच्छा लगता है उसे वर कहते हैं । वर की इच्छा करके आशावान् होकर जो रागद्वेष से मलिन देवताओं का सेवन करता है, पूजन करता है, उसे देवतामूढ़ कहते हैं और उसका कार्य देवमूढ़ता कहलाता है। अर्थात् किसी भी आशा से सहित होकर सूर्य-चन्द्र आदि की पूजा करना देवमूढ़ता है। अब आप स्वयं सोचें कि क्या देवमूढ़ता के सेवन से कष्टों का निवारण करना संभव है ? उत्तर - कदापि संभव नहीं ।
यद्यपि 'नवग्रह अरिष्ट निवारक विधान' में चौबीस तीर्थंकरों की पूजा का ही वर्णन है। परन्तु उनको 'सर्वग्रह अरिष्ट निवारक' कहना आगमसम्मत नहीं है । 'नवम्बर 2005 के जिनभाषित' के पेज नं. 3 पर लिखा है, 'मिथ्यादृष्टि तो भोगाकांक्षा के निदानबंधस्वरूप शुभपरिणाम करता है, जबकि सम्यग्दृष्टि जीव ख्याति - पूजा - लाभ- भोगाकांक्षा-निदान-बंधरहित होकर पंचपरमेष्ठी के गुणस्मरणादिरूप शुभोपयोग करता है।' पूजा-पाठ आदि शुभ कार्य करने के तीन कारण होते हैं- 1. सांसारिक भोगों की प्राप्ति 2. आए हुए कष्टों से मुक्ति 3. आत्मकल्याण। इनमें सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिए धार्मिक अनुष्ठान करनेवाला जीव तो मिथ्यादृष्टि ही है। यदि कोई जीव कष्ट निवाराणार्थ, जैसे यदि मंदिर से मूर्ति चोरी हो जाए, यदि कोई धार्मिक संकट उपस्थित हो जाये, यदि शरीर
Jain Education International
-
पं. सुनील कुमार 'शास्त्री '
-
For Private & Personal Use Only
णय को विदेदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणादि ॥ 319 ॥ भत्तीए पुज्जमाणो विंतर देवो वि देदि जदि लच्छी । तो किं धम्मं कीरदि एवं चिंतेद सद्दिट्ठी ॥ 320 ॥
अर्थ - न तो कोई (शिव-विष्णु- ब्रह्मा-यक्ष- क्षेत्रपाल तथा सूर्य-चन्द्रमा एवं ग्रह आदि) जीव को लक्ष्मी देता है। और न कोई उसका उपकार करता है। शुभाशुभ कर्म ही जीव का अपकार और उपकार करते हैं । 319 ॥
सम्यग्दृष्टि विचारता है कि यदि भक्तिपूर्वक पूजा करने से व्यंतर देवी-देवता भी यदि लक्ष्मी दे देते, तो फिर धर्म करने की क्या आवश्यकता ॥ 320 ॥
उपर्युक्त दोनों गाथाएँ तो यह स्पष्ट उल्लेख कर रही हैं कि सूर्य-चन्द्र व ग्रह आदि जीव का उपकार या अपकार नहीं करते। सच तो यह है कि इन सूर्य-चन्द्र आदि की गति आदि के द्वारा जीवों का भविष्य जाना जा सकता है, और यही ज्योतिष विद्या का कार्य है। ऐसा नहीं है कि यदि कोई ज्योतिषी ग्रह आदि के आधार से किसी के बुरे भविष्य को बताये, तो उस ग्रह आदि की पूजा करने से वह संकट टल जायेगा । असातावेदनीय कर्म के उदय से आया हुआ संकट, इन ग्रहों की पूजा करने से बढ़ तो सकता है, परन्तु घटना कदापि संभव नहीं है । उदाहरणार्थ पूज्य आ. श्री विद्यासागर जी महाराज का निम्न संस्मरण उपादेय है- पूज्य आचार्य श्री से एक सज्जन ने पूछा 'महाराज, मुझ पर नवग्रह का प्रकोप है। मुझे इससे बचने के लिए क्या करना चाहिए।' आचार्य
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 33
www.jainelibrary.org