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________________ पात्र परस्पर में यथायोग्य एक दूसरे पर आश्रित होते हैं, तभी | नहीं होते हैं। तब फिर मुनिराजों के निमित्त से कमण्डलु दोनों गृहस्थ-मुनिधर्म निर्बाधगति से चल सकते हैं। साथ ही | मँगवाकर प्रदान करते हैं अथवा मयूर पिच्छिका तो खासकर निम्न शंकाओं की सन्तति को भी नहीं रोका जा सकेगा। | दिगम्बर साधुओं के लिए ही बनाई जाती है और उन्हें यदि कहा जावे कि वर्तमान में तो उद्दिष्ट आहार होता | संयमोपकरण के रूप में प्रदान की जाती हैं, तो यदि उनको है, क्योंकि हम नीरस भोजन नहीं करते, गर्मपानी नहीं पीते, | उद्दिष्टदोष से दूषित माना जावेगा, तब उपकरणदान कैसे शुद्ध भोजन नहीं करते इत्यादि कारण कहे जाते हैं। इस | बनेगा और पिच्छिका आदि उपकरण के बिना तो मुनिराज प्रकार की शंकाओं की प्रतिशंकाएँ की जा सकती हैं और वे | का आवागमन भी नहीं बन सकेगा। ही समाधान स्वरूप भी होंगी। 5. इसी प्रकार आर्यिकागण की साड़ी, क्षुल्लक, ऐलक 1. न तो सभी चतुर्थकाल में गरमपानी पीते थे और न | आदि के रंगीन वस्त्र उनके उद्देश्यपूर्वक बनाये जाते हैं। कोई ही आज पीते हैं, तो गरमपानी करना ही उद्दिष्ट माना जावे | भी श्राविका मात्र 16 हस्तप्रमाण एक साटिका नहीं पहनती अथवा मुनिराज चतुर्थकाल में भी एक-दो-तीन या समस्त और न ही श्रावकागण मात्र लंगोट-चादर का उपयोग करते रसों का परित्याग कर भोजन ग्रहण करते थे और आज प्रायः हैं। अतः वे उक्त वस्त्र आर्यिका आदि के निमित्त ही तैयार मुनिराज रसपरित्यागतप के अन्तर्गत रसों का यथासमय कुछ करवाकर उन्हें प्रदान करते हैं। यदि इन्हें उद्दिष्टदोष से दूषित काल की मर्यादा पर्यंत या जीवनपर्यंत एक-दो-तीन या माना जावे, तो फिर वस्त्रदान का अभाव होगा। समस्त रसों का त्याग कर भोजन ग्रहण करते हैं। श्रावक तो इत्यादि अन्य अनेकों शंकाओं का परित्याग होना चतुर्थकाल में प्रायः सभी सरस भोजन करते थे और अब भी | | दुस्तर होगा, तथा आगम मर्यादा का भी लोप हो जावेगा। सरस भोजन ही प्रायः करते हैं। चतुर्थकाल में रसरहित अतः आगम के परिप्रेक्ष्य में उद्दिष्ट का स्वरूप भली भाँति भोजन की व्यवस्था होती थी और अब भी होती है तब फिर | समझकर उद्दिष्ट का त्यागी पात्र होता है, यह निर्णय करके उद्दिष्ट दोष मानने से आहारदान का ही अभाव हो जावेगा। अपने आपको आहारदान आदि में प्रवृत्त करते हुए गृहस्थ 2 किसी मुनिराज को कोई व्याधि विशेष हो जाने पर | धर्म के आवश्यक कर्तव्य का परिपालन अवश्य करना श्रावक अपना परम कर्तव्य समझते हुए उनके रोग निवारण | चाहिए। हेतु औषधोपचार की व्यवस्था बनाता है और मात्र वह तद्रोग " अब यह तो अच्छी प्रकार सिद्ध हो गया है कि उद्दिष्ट से ग्रसित मुनिराज के लिये ही बनाता है, श्रावक स्वयं तो | दोष पात्र के आश्रित होता है, किन्तु उद्गम आदि 16 दोषों में उस रोग से ग्रसित नहीं है। अत: इस प्रकार तैयार की गई | औद्देशिक नाम का एक दोष है, जो पात्र के आश्रित न होकर औषधि को उद्दिष्टदोष से दूषित माना जावेगा, तो फिर | दाता के आश्रित होता है। उस औद्देशिक दोष से दूषित औषधदान का ही अभाव मानना पड़ेगा। ऐसी व्यवस्था | भोजन की जानकारी मिलने पर साधु उसका परित्याग करते वर्तमानवत् ही चतुर्थकाल में भी होती थी,क्योंकि रोगादि तो | हैं और आहार ग्रहण के पश्चात् ज्ञात होने पर उसका प्रतिक्रमण उस समय भी होते थे। करके आत्मविशुद्धि करते हैं। 3. वसतिका दान का भी अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि | औद्देशिक के सम्बन्ध में मूलाचारादि आचारग्रन्थों में वसतिका भी उद्दिष्ट दोष से दूषित नहीं होना चाहिए, ऐसी | कहा गया है कि जो आहार, वसतिका, उपकरणादि किसी आगम-आज्ञा है, तब फिर कोन्नूर के राजा ने साधुओं के | भी एक पात्रविशेष का उद्देश्य करके तैयार किये जावें, वह लिये 700 गुफाओं को बनवाया था। तेरदाल आदि स्थानों में | औद्देशिक कहलाता है। ऐसे औद्देशिक आहारादि का पता भी सैकड़ों की संख्या में वसतिकाएँ मुनिराजों के लिये चलने पर साधु उस आहार का परित्याग करते हैं। इस .बनवाई गई थीं। उड़ीसा प्रान्त में भी खण्डगिरि-उदयगिरि | प्रकार उद्गम के 16 दोषों में दाता आश्रित जो औद्देशिक दोष क्षेत्र पर दिगम्बर मुनिश्वरों के लिये महाराजा खारवेल ने | है वह स्वल्प दोष है। "अध:कर्मणः पश्चात् औद्देशिकं अनेकों गुफाएँ बनवाईं थीं, जिनका अस्तित्व आज भी है। | सूक्ष्मदोषमपि परिहर्तुकामः प्राह" अर्थात् “अध:कर्म के यदि इसमें भी उद्दिष्टदोष माना जावे, तो अभयदान के | पश्चात् औद्देशिक नामक स्वल्प दोष को भी दूर करने के प्रतिस्वरूप वसतिकादान भी नहीं बन सकेगा। लिए कहते हैं।" इन वचनों का यही अभिप्राय है कि 4. पिच्छी-कमण्डलु आदि उपकरण गृहस्थों के लिए | औद्देशिक दोष बहुत बड़ा दोष नहीं है। सूक्ष्म या स्वल्प होने 28 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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