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________________ कथानक जैन व हिन्दू पुराणों में मूलतः मिलता है।| उपयोग में लिया था। (श्रीमद्भागवत/सुखसागर बाबनवाँ अध्याय/रुक्मिणि पेज नं. गर्वनमेण्ट गजट के अनुसार मंदिर के परिसर में एक ७०३ से ७१३)। ऊँचे चबूतरे पर लगभग 0.152 मीटर लम्बे तथा छतरी से भीष्म को विदर्भ देश का राजा.कहा गया है। अतः | ढंके हये दो पद चिन्ह हैं। चबतरे के अधोभाग से प्राप्त कुण्डनपुर ग्राम विदर्भ में होना बताया गया है, किन्तु हरिवंश | कुण्डलगिरि के श्रीधरस्वामी के शिलालेख से इस विश्वास पुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि कुण्डनपुर में राजा भीष्म रहते | को बल प्राप्त हुआ है कि श्रीधरकेवली जो अंतिम अननुबुद्ध थे। (आदिपुराण प्रथम भाग (ज्ञानपीठ प्रकाशन) पेज नं ५ | केवली थे, ईसापूर्व पाँचवी शताब्दी में हुए थे, उन्हें कुण्डलपुर प्रस्तावना)। विदर्भ का आधुनिक नाम बरार है। इसकी | मूलतः कुण्डलगिरी में निर्वाण प्राप्त हुआ था। इस तथ्य का प्राचीन राजधानी विदर्भपुर (वीदर) अथवा कुंडिनपुर थी। उल्लेख कि श्रीधर स्वामी को कुण्डलगिरि में निर्वाण प्राप्त चेदिनरेश की राजधानी चंदेरी (बुंदेलखंड) में थी। राजनीतिक हुआ,यति-वृषभ द्वारा रचित प्राचीन प्राकृत ग्रंथ तिलोयपण्णत्ती दृष्टिकोण से राजधानियाँ समय-समय पर बदलती रहती | में मिलता है। हैं। इस बात का क्या प्रमाण है कि विदर्भ में रुक्मिणी का | कुण्डलगिरी के निर्वाण क्षेत्र होने का उल्लेख ईसाजन्म हुआ था और वहीं विवाह भी ? राजधानियाँ बदलना | पश्चात् पाँचवी या छठी शताब्दी के स्वामी पूज्यपाद द्वारा कोई नई बात नहीं थीं। अतः रुक्मिणीहरण कुण्डनपुर दमोह | रचित दशभक्ति तथा प्राकृत निव्यूहकन्दम में मिलता है। या कुण्डलगिरी पर्वत की तलहटी स्थित रुक्मिणीमठ से | यदि हमारा कुण्डलपुर ही प्राचीन कुण्डलगिरि है, तो यह हुआ था, ऐसी मेरी मान्यता साधार है। ऐसा भी लिखा गया है | जैनियों का एक सर्वाधिक प्राचीन तथा पवित्र निर्वाण क्षेत्रों में कि राजा भीष्म कुंडिनपुर में प्रजा का पालन करते थे। से एक है। उक्त गजट के अनुसार भी कुण्डलपुर में भौतिक दृष्टि से चंदेरी और विदर्भ में कथित कुण्डिनपुर में | श्रीधरकेवली के चरण चिन्ह/छतरी ईसापूर्व पाँचवी शताब्दी बहुत दूरी है। अतः रुक्मिणी के भाई रुक्मि ने सशक्त चेदिनरेश की है। भगवान महावीर के निर्वाण के १०० वर्ष के भीतर से अपने मधुर संबंध स्थापित करने के लिये बहिन रुक्मिणी श्रीधरकेवली को निर्वाण प्राप्त हुआ था, सो यह हमारे ग्रंथों का संबंध यहाँ निश्चित किया था, जो बुंदेलखंड में ही था- | से भी प्रमाणित है। अतः आधुनिक यही ग्राम कुण्डलपुर-श्रीधर केवली की | आइये, अब हम "बड़े बाबा" की मूर्ति की प्राचीनता निर्वाण कुण्डलगिरी-इसके पास रुक्मिणीमठ तथा ४ की बात करें। भगवान नेमीनाथ के काल में महाभारत के किलोमीटर दूर वर्रट पुराना नाम विराटनगर में तथा आसपास | प्रमुख श्री श्रीकृष्ण की कथा, रुक्मिणी के हरण का विस्तृत कँवरपुर - रनेह आदि जो सम्पन्न तथा विशाल विराटनगर | वृतांत, जैन पुराणों एवं वैष्णवपुराणों में मिलता है। अतः की सीमा थे। जहाँ बड़े-बड़े विशाल जैन मंदिर थे, जिनके घटनाओं के अनुसार रुक्मिणि का जन्म विराटनगर (आधुनिक अवशेष एवं मूर्तियाँ आज भी पाई जाती हैं। (देखिये नाम वर्राट, जो कुण्डलगिरी से 4 कि.मी. है) में हुआ था, न प्राचीनतीर्थ जीर्णोद्धार पत्रिका मार्च-अप्रैल २००४ पेज नं. | कि विदर्भ में । तथा रुक्मिणिमठ/मंदिर कुण्डगिरि की तलहटी ३१)। ग्राम रनेह में तीर्थंकरों की पाषाण प्रतिमाएँ सुरक्षा के | तथा विराटनगर के उद्यान में स्थित है, जहाँ से रुक्मिणि का अभाव में यत्र-तत्र पड़ी हैं। (देखिये गवर्नमेंट गजट आफ हरण हुआ था। ये मंदिर उद्यान में स्थित थे, जहाँ से कुण्डलगिरि इंडिया - म. प्र. दमोह जिला)। बड़े बाबा की मूर्ति बहुत | | के भी ध्वस्त मंदिर के शिल्पावशेष और मूर्तियाँ आई थीं। पहिले वर्राट के जीर्ण शीर्ण जैन मंदिर से यहाँ लाई गयी थी। | गजट के अनुसार इस मंदिर के परिसर के कुंवरपुर ग्राम से खण्डहर हो गये मंदिरों से प्रतिमाएँ लाई गयी थीं। इस बात | लाई गई 3 विशालकाय जैन प्रतिमाएँ रखी हुई हैं। इसके के आज भी पर्याप्त प्रमाण हैं कि न केवल बड़े बाबा की | निकट स्थित रुक्मिणिमठ तथा वर्राट आदि स्थानों में भी मूर्ति, बल्कि पार्श्वनाथ भगवान् की दोनों मूर्तियाँ एवं गर्भगृह | कुछ जैन मंदिर हैं, जो अब पूरी तरह खण्डहर हो चुके हैं। में चिपकाई गयी, शिलाओं पर उकेरी तीर्थंकरों की मूर्ति, | इन स्थानों की सुन्दर प्राचीन प्रतिमाएं काफी अरसे पहिले शिल्पावशेष-स्तंभ, सब इन्हीं उपनगरों से लाये गये तथा | वहाँ से लाकर कुण्डलपुर के मंदिर में प्रतिष्ठित कर दी गई मंदिरों के निर्माण कार्य में उपयोग किये गये। ध्वस्त मंदिरों र्तियाँ जो 23 वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और उनके के अवशेष इतनी अधिक मात्रा में बिखरे पड़े थे कि ठेकेदारों | यक्ष तथा यक्षणी आदि की हैं, अभी भी रुक्मिणिमठ में ही ने इन्हीं शिल्पाशेषों को गिट्टी बनाकर सड़क बनाने के | हैं। यह कहा जाता है कि ऋषभनाथ की प्रतिमा भी बहुत -अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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