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________________ पहिले वर्राट के जीर्ण-शीर्ण जैन मंदिर से यहाँ लाई गई थीं। नीचे तलहटी के मंदिरों में भी मूर्तियाँ समोशरण (चौमुखी) (रुक्मिणीमठ पुरातत्त्व विभाग से संरक्षित है, पर वहाँ से | पधराई गयीं। सैकड़ों स्तंभ तथा अन्य शिलाएँ अभी भी पड़ी मूर्तियाँ चोरी चली गईं)। हैं, तथा काम में लायी गयी हैं। यहाँ यह बात गौर करने लायक है कि आज हम | इसके अतिरिक्त तलहटी में वैष्णवमंदिर में (सपाट पुरातत्त्व विभाग द्वारा प्रकाशित रिपोर्टों तथा सरकारी गजटों | छतवाला रुक्मिणीमठ जैसा, ऐसा ही सपाट छत का मंदिर का उल्लेख कर इतिहाप्रसिद्ध घटनाओं की सच्चाई कहते हैं, नोहटा में भी है, वहाँ भी जैन मूर्तियाँ तथा मंदिर के अवशेष प्रमाणित मानते हैं। यह भी सच है कि इन रिपोर्टों का तथा | पाये गये हैं, यह एक शोध का विषय है) भगवान आदिनाथ गजटों में प्रकाशित तथ्यों का आधार (जैसा कि ऊपर कहा | | की यक्षिणी अम्बिका की प्राय 4' की सुन्दर मूर्ति वहाँ गया है), हमारे जैनग्रंथ हैं, जनश्रुतियाँ हैं, जो प्रकारांतर से | स्थापित कर पूजी जा रही है/थी। अभी हाल में पुरातत्त्व श्रुतपरम्परा से जुड़ी हैं। विभाग द्वारा संरक्षित इस तलहटी के मंदिर से यह मूर्ति चोरी ___अपने अतीत को श्रवण और स्मरण के आधार पर | चली गई थी, यह सतर्कता व सुरक्षण दिया हमारे पुरातत्त्व याद रखते आने की परम्परा प्रायः विश्व के प्रत्येक सभ्य | विभाग ने मंदिरों को? । कहे जाने वाले देश में रही है। भारतवर्ष में भी इन आख्यानों और भी जैसा कि गजट में उल्लेख है कि का विपुल भंडार है, जिसे एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को धरोहर | | रुक्मिणिमठ से भी मूर्तियाँ, शिला एवं यक्ष-यक्षिणी की के रूप में सौंपती रही है। इसी कड़ी में "पटेरा के ग्रामीण | प्रतिमाएँ चोरी चली गई हैं, वहाँ अब पत्थर के ढेर मात्र बचे व्यापारी को सपना आना तथा बैलगाड़ी द्वारा बड़े बाबा की | हैं, यह हालात है पुरातत्त्व के संरक्षित स्थानों का। कौन मूर्ति को पटेरा ले जाना, पर्वत पर एक स्थान पर ठहर जाना" | अधर्मी होगा जो मंदिरों, मूर्तियों को इनके संरक्षण में छोड़ेगा, ऐसी भारतवर्ष में अनेकानेक घटनाएँ है, चाँदखेड़ी की | अपने पूज्य भगवान को इन्हें सौंप, निश्चित हो सो सकेगा। इतिहास प्रसिद्ध घटना, आदिनाथ भगवान का जंगल से आकर | हमने हजारों वर्षों से इनकी पूजा की है, रक्षित किया, जीर्णोद्धार (बैलगाड़ी में) रूपाली नदी के तट पर ठहर जाना और वहीं | किया, स्थानान्तर किया, नवीन निर्माण किया है एवं उनकी मंदिर बनाना जहाँ कभी चन्द्रप्रभु भगवान का ध्वस्त मंदिर | पूज्यता अक्षुण्ण रखने के लिए आज भी हम कटिबद्ध हैं। था। तथा वे तथ्य भी घटनानुसार हमारे सामने हैं, अतः इससे | इसलिए कि वे हमारी आस्था के प्रतीक हैं, पूज्य हैं, हमारे कभी इन्कार नहीं किया जा सकता कि "बड़े बाबा" अन्यत्र | जीवन से भी मूल्यवान हैं। अतः हम क्या नौकरशाही से से आकर (वर्राट) उसके आसपास-रुक्मिणीमठ, कुँवरपुर, | प्रणीत पुरातत्त्व विभाग के संरक्षण को स्वीकार करके ये रनेह आदि स्थानों में तथा मंदिर में आकर स्थापित हुए थे। अनर्थ देखते रहेंगे? कभी नहीं। हमें अपने धर्मस्थानों का यह प्रथम स्थानान्तर बड़े बाबा का कुण्डलगिरि पर था। । पूज्य भगवंतों की पूजा-वंदना करने का मौलिक अधिकार _मंदिर की संरचना तथा अब जब बड़े बाबा के | है, इसमें किसी का दखल वांछनीय नही हैं, भले हम सुरक्षित सुदृढ़ मंदिर में दूसरे स्थानांतर के बाद यह सच भी | | अल्पसंख्यक हैं, पर हम अपनी पहिचान अपनी आस्था के सामने आया है कि "बड़े बाबा एक पत्थर की शिला में | केन्द्रों को सुरक्षा-प्रबंध एवं स्थायित्व प्रदान करने में सक्षम उत्कीर्ण हैं" शासन देव-देवियाँ तथा इन्द्रादि अलग-अलग हैं। चाहे जो भी शासन रहा हो, यह हमारा इतिहास है। शिलाओं में उत्कीर्ण हैं तथा यथास्थान दीवाल पर चिपकाये | वर्तमान में यही सत्य है और भविष्य में भी यही सच्चाई गये हैं, सिंहासन के चार भाग (दो नहीं है) हैं। पार्श्वनाथ | रहेगी। भगवान की दोनों तरफ की मूर्तियाँ भी अलग पाषाण खंडों बड़े बाबा की मूर्ति की प्राचीनता में अब संदेह में उत्कीर्ण होकर बड़े बाबा के दाएँ बाएँ और दीवालों पर | | नहीं, इसका काल निश्चित ही ईसापूर्व पाँचवी-छठवीं शताब्दी चिपकाई गयी थीं। तथा अन्य 3 तरफ की दीवालों पर भी | है। श्रीधर केवली के चरण-चिन्हों की छतरी के पास मूर्ति शिलाओं पर उत्कीर्ण तीर्थंकर प्रतिमाएँ, जहाँ जितना स्थान का ठहरना पाँचवीं शती ईसापूर्व का संकेत करती है, क्योंकि मिला बाहर से लाकर चिपका दी गई। इतनी मूर्तियाँ और वह विराटनगरादि के ध्वस्त मंदिर से कुण्डलगिरी जाने शिल्पावशेष आसपास के जैन मंदिरों के खण्डहरों से लाये | बैलगाड़ी पर स्वप्न के अनुसार आई थी, अतः पार्श्वनाथ गये थे जो ऊपर पर्वत के अन्य मंदिरों में रखे गये थे तथा | भगवान के समय या उनके पूर्व की प्रतिमा है। यह ध्वस्त 18 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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