________________
कुण्डलपुर के बडे बाबा का मूल स्थान यह नहीं है, न मूलवेदी और न मूलनायक-प्रतिमा
ब्र. अमरचंद जैन दिगम्बरपरम्परा में तीर्थंकर आदि के चरित्र के तथ्यों । 'इति ह आस' अर्थात् 'ऐसी बात हुई थी', इस प्रकार श्रुति का प्राचीन संकलन हमें प्राकृत भाषा के 'तिलोयपण्णति' | का वचन होने से उसे इतिहास कहना भी इष्ट है । इसे ग्रन्थ में मिलता है। ईस्वी संवत् से कई शताब्दी पूर्व | आम्नाय कहने की भी प्रथा है । अतः जो इतिहास है, वह भारतवासियों की जनभाषा प्राकृतभाषा रही है। उस समय | श्रुतपरम्परा से वर्णित है। जैनआम्नाय में ये गुरुशिष्यपरम्परा जैनाचार्यों की तत्त्वदेशना प्राकृत में ही हुआ करती थी ।। | से चलते रहे हैं। उन्हीं के पश्चात् जैनपुराण रचे गये। उनमें आगमग्रन्थ इसी प्राकृतभाषा में लिखे गये हैं
ईसापूर्व ५२७ में अंतिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण तक मनुष्य के विभिन्न अनुभवों में सबसे अधिक | त्रेसठ शलाकापुरुषों का विवरण दिया गया है, इतिहासकाल प्रभावशाली उन पुरुषों के चरित्र सिद्ध हुए हैं, जिन्होंने | से वैदिक एवं श्रमण परंपराएँ क्षेत्र व काल की दृष्टि से लोककल्याण का कुछ विशेष कार्य किया, चाहे वह संकट | | साथ-साथ विकसित होती आई हैं। से मुक्तिसंबंधी हो या भौतिक या आध्यात्मिक उत्कर्ष के | . आइये, अब हम अपने विषय की परिपुष्टि के लिए रूप में। राष्ट्र के कुछ महापुरुषों के चरित्र, क्षेत्र एवं काल की | उपर्युक्त संदर्भ में हरिवंशकथा का उल्लेख करते हैं। सीमा को पार कर व्यापकरूप से लोकरुचि के विषय बन | हरिवंशपुराण (स्व. डॉ. पन्नालाल जी द्वारा अनुवादितगये हैं। राम और कष्ण के चरित्र इसी प्रकार के हैं। प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ) के पष्ठ नं ५०९ पर वर्णन है वैदिकपरम्परा में रामायण-महाभारत विविध साहित्यिक | कि सत्यभामा के व्यवहार से कपित होकर नारद आकाशमार्ग धाराओं के स्रोत सिद्ध हुए हैं, वैसे ही जैन साहित्य में | से उस कुण्डिनपुर जा पहुँचे, जहाँ शत्रुओं के लिए भयंकर पद्मपुराण या पद्मचरित्र और हरिवंशपुराण या अरिष्टनेमिचरित्र | महाकुलीन राजा भीष्म रहते थे। उनकी नीति और पौरुष को भी सिद्ध हए हैं। हमारा प्रयोजन विशेषतः हरिवंशसंबंधी | पृष्ट करने वाला रुक्मी नाम का पत्र था एवं कला और गुणों कथानक से है।
में निपुण रुक्मिणी नाम की शुभ कन्या थी। अवधिज्ञान के जैनहरिवंशपुराण में यादवकुल और उसमें उत्पन्न | धारक अतिमुक्तक मुनि ने रुक्मिणि को देखकर कहा था - हुए दो शलाकापुरुषों का चरित्र विशेषरूप से वर्णित हुआ है। | "कृष्ण के अंत:पुर में सोलह हजार रानियाँ होंगी। उन सब एक बाईसवें तीर्थंकर नेमीनाथ और दूसरे नवें नारायण कृष्ण, | में यह प्रभुत्व को प्राप्त होगी, उन सब में प्रधान बनेगी।" ये दोनो चचेरे भाई थे । एक ने अपने विवाह के अवसर पर | (पृष्ठ ५०८) निमित्त पाकर संन्यास ले लिया और दूसरे ने कौरवपांडवयुद्ध जैन और हिन्दू पुराणों के अनुसार रुक्मिणी के भाई में अपना बल-कौशल दिखाया । एक ने आध्यात्मिक उत्कर्ष | राजकुमार रुक्म ने अपनी बहिन का विवाहसम्बन्ध चेदिका आदर्श उपस्थित किया और दूसरे ने भौतिक लीला का। नरेश शिशुपाल से तय कर दिया था। अपने अपमान का एक ने निवृत्ति-परायणता का मार्ग प्रशस्त किया और दूसरे | बदला लेने नारद ने श्री कृष्ण को रुक्मिणी के चित्र द्वारा ने प्रवृत्ति का। इसी प्रसंग में हरिवंशपुराण में महाभारत का | उसके प्रति मोहित कर दिया एवं कृष्ण ने स्वयं रुक्मिणी कथानक सम्मिलित पाया जाता है। हरिवंशपुराण के रचयिता | को वरण करने की ठान ली। रुक्मिणी ने कृष्ण के चित्र को आचार्य जिनसेन पुन्नाट संघ (पुन्नाट कर्नाटक का प्राचीन | देखकर अपने मन में कृष्ण को प्रियतम के रूप में विराजमान नाम था) के थे । इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण था। उन्होंने | कर लिया। पत्र द्वारा रुक्मिणि ने कृष्ण जी को द्वारका संदेश यह रचना शकसंवत् ७०५ (वि. सं. ८४०) में समाप्त की | भेजकर बुलाया। कृष्ण चेदिनरेश शिशुपाल के साथ विवाह थी। उस पुरानी बात को पुराण कहते हैं, जो महापुरुषों के | की तिथि पर कुण्डलपुर के उद्यान में उपस्थित होकर पूर्व विषय में कही जाती है या महान् आचार्यों द्वारा उपदेश के | निश्चित स्थान से रुक्मिणि को हरकर ले गये और गिरनार रूप में बतलायी जाती है अथवा महाकल्याण का अनुशासन | पर्वत पर विवाह सम्पन्न किया तथा रास्ते में जाते समय करती है। ऋषिप्रणीत होने से पुराण "आर्ष" कहलात पाल की सेना पर विजय प्राप्त कर निश्चिन्त हए। यही 16/ अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org