________________
लघु चैत्यभक्ति चार बार पढ़कर सिद्धभक्ति, योगिभक्ति, | तीस दिन तक आगे भी सकारण एक स्थान पर ठहर सकते पंचगुरूभक्ति और शान्तिभक्ति करते हुए आचार्य आदि | हैं। अधिक ठहरने के प्रयोजनों में वर्षा की अधिकता, साधुओं को वर्षायोग-ग्रहण करना चाहिए। आगे बताया है | शास्त्राभ्यास, शक्ति का अभाव अथवा किसी की वैयावृत्य कि वर्षायोग के सिवाय अन्य हेमन्त आदि ऋतुओं में | करना आदि है।11 आचारांग में भी कहा है कि वर्षाकाल के ऋतुबद्धकाल में श्रमणों का एक स्थान में एक मास तक | चार माह बीत जाने पर अवश्य विहार कर देना चाहिए , यह रुकने का विधान है। जहाँ चातुर्मास करना अभीष्ट हो, वहाँ | तो श्रमण का उत्सर्ग मार्ग है। फिर भी यदि कार्तिक मास में आषाढ़ मास में वर्षायोग के स्थान पर पहुँच जाना चाहिए तथा | पुनः वर्षा हो जाए और मार्ग आवागमन के योग्य न रहे तो मार्गशीर्ष महीना बीतने पर वर्षायोग के स्थान को छोड़ देना | चातुर्मास के पश्चात् वहाँ पन्द्रह दिन और रह सकते हैं। 12 चाहिए। कितना ही प्रयोजन होने पर भी वर्षायोग के स्थान में | । स्थानांगसूत्र की दृष्टि से वर्षावास के जघन्य, मध्यम श्रावण कृष्णा चतुर्थी तक अवश्य पहुँच जाना चाहिए। इस | और उत्कृष्ट ये तीन भेद बताये हैं। इनमें सांवत्सरिक प्रतिक्रमण तिथि का उल्लंघन नहीं करना चाहिए तथा कितना ही प्रयोजन (भाद्रपद-शुक्लापंचमी) से कार्तिक पूर्णमासी तक, सत्तर होने पर भी कार्तिक शुक्ला पंचमी तक वर्षायोग के स्थान से | दिनों का जघन्य वर्षावास कहा जाता है। श्रावण से कार्तिक अन्य स्थान को नहीं जाना चाहिए। यदि किसी दुर्निवार | तक, चार माह का मध्यम चातुर्मास है तथा आषाढ़ से मृगसरउपसर्ग आदि के कारण वर्षायोग के उत्तम प्रयोग में अतिक्रम | छह माह का उत्कृष्ट वर्षावास कहलाता है। इसके अन्तर्गत करना पड़े, तो साधु को प्रायश्चित लेना चाहिए।
आषाढ़ बिताकर वहीं चातुर्मास करें और मार्गशीर्ष में भी वर्षायोग-धारण के विषय में श्वेताम्बरपरम्परा के | वर्षा चालू रहने पर उसे वहीं बिताएँ।13 स्थानांग वृत्ति में कल्पसूत्र में कहा है कि मासकल्प से विचरते हुए निर्ग्रन्थ | कहा है कि प्रथम प्रावृट् (आषाढ़) में और पर्युषणाकल्प के
और निर्ग्रन्थियों को आषाढ़ मास की पूर्णिमा को चातुर्मास के द्वारा निवास करने पर विहार न किया जाए , क्योंकि 'लिए बसना कल्पता है। क्योंकि निश्चय ही वर्षाकाल में | पर्युषणाकल्पपूर्वक निवास करने के बाद भाद्रशुक्ला पंचमी मासकल्प विहार से विचरनेवाले साधुओं और साध्वियों के | से कार्तिक तक साधारणतः विहार नहीं किया जा सकता, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की विराधना | किन्तु पूर्ववर्ती पचास दिनों में उपयुक्त सामग्री के अभाव में होती है। कल्पसूत्रनियुक्ति में भी कहा है कि आषाढ़ मास | विहार कर भी सकते हैं।14 की पूर्णिमा तक नियत स्थान पर पहुँच कर श्रावणकृष्णा | बृहत्कल्पभाष्य में वर्षावास समाप्ति तक विहार करने पंचमी से वर्षावास प्रारम्भ कर देना चाहिए। उपयुक्त क्षेत्र न | के समय के विषय में कहा है कि जब ईख बाड़ों के बाहर मिलने पर श्रावणकृष्णा दशमी से पाँच-पाँच दिन बढ़ाते- | निकलने लगें, तुम्बियों में छोटे-छोटे तुंबक लग जायें, बैल बढ़ाते भाद्रशुक्ला पंचमी तक तो निश्चित ही वर्षावास प्रारम्भ | शक्तिशाली दिखने लगें, गाँवों की कीचड़ सूखने लगे, रास्तों कर देना चाहिए, फिर चाहे वृक्ष के नीचे ही क्यों न रहना | का पानी कम हो जाए, जमीन की मिट्टी कड़ी हो जाय तथा पड़े। किन्तु इस तिथि का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। जब पथिक परदेश को गमन करने लगें तो श्रमण को भी
वर्षावास का समय - सामान्यत: आषाढ़ से कार्तिक | वर्षावास की समाप्ति और अपने विहार करने का समय पूर्वपक्ष तक का समय वर्षा और वर्षा से उत्पन्न जीव- | समझ लेना चाहिए।15 जीवाणुओं तथा अनन्त प्रकार के तृण, घास तथा जन्तुओं के वर्षावास के मुख्य स्थान - श्रमण को वर्षायोग के पूर्ण परिपाक का समय रहता है। इसीलिए चातुर्मास (वर्षावास) धारण का उपयुक्त समय जानकर धर्म-ध्यान और चर्या की अवधि आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की पूर्वरात्रि से आरम्भ | आदि के अनुकूल योग्य प्रासुक स्थान पर चातुर्मास व्यतीत होकर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि तक मानी | करना चाहिए। आचारांगसूत्र में चातुमोस योग्य स्थान के जाती है।
विषय में कहा है कि वर्षावास करने वाले साधु या साध्वी वर्षावास के समय में एक सौ बीस दिन तक एक | को उस ग्राम-नगर, खेड़, कर्वट, मडंव, पट्टण, द्रोणमुख, "स्थान पर रहना उत्सर्ग मार्ग है। विशेष कारण होने पर अधिक | आकर (खदान), निगम, आश्रय, सन्निवेश या राजधानी की
और कम दिन भी ठहर सकते हैं।10 अर्थात् आषाढ़ शुक्ला | स्थिति भलीभाँति जान लेनी चाहिए। जिस ग्राम-नगर यावत् दसमी से चातुर्मास करनेवाले कार्तिक की पूर्णमासी के बाद | राजधानी में एकान्त में स्वाध्याय करने के लिए विशाल भूमि
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 31
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org