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________________ प्रश्नकर्ता : नवीन चन्द्र जैन, दिल्ली । जिज्ञासा : क्या उपशम सम्यक्त्व के साथ मतिज्ञान संभव है? जिज्ञासा - सामाधान समाधान : उपशम सम्यक्त्व दो प्रकार का होता है । १. प्रथमोपशम सम्यक्त्व- मिथ्यादृष्टि जीव को जो उपशम सम्यक्त्व होता है, वह प्रथमोपशम कहलाता है। 2. द्वितीयोपशम सम्यक्त्व- क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव को उपशम-श्रेणी आरोहण से पूर्व जो उपशमसम्यक्त्व होता है, वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है । उपर्युक्त दोनों उपशम सम्यक्त्वों में से, प्रथमोपशम सम्यक्त्वी के मन:पर्ययज्ञान नहीं हो सकता, जब कि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के मनःपर्यायज्ञान संभव है। इसका कारण बताते हुए श्री धवला पु. 2, पृष्ठ 727 में इस प्रकार कहा है - " जो वेदकसम्यक्त्व के पीछे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उस उपशमसम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में भी मनः पर्ययज्ञान पाया जाता है, किन्तु मिथ्यात्व से पीछे आये हुए (प्रथम) उपशमसम्यग्दृष्टि जीव में मन:पर्ययज्ञान नहीं पाया जाता है, क्योंकि, मिथ्यात्व से पीछे आये हुए उपशमसम्यग्दृष्टि के उत्कृष्ट उपशमसम्यकत्व के काल से भी ग्रहण किये गये संयम के प्रथम समय से लगाकर सर्वजघन्य मन:पर्ययज्ञान को उत्पन्न करनेवाला संयम काल बहुत बड़ा है। " जिज्ञासा : एक जीव के क्या केवल मतिज्ञान ही होना संभव है, जब कि प्रत्येक जीव में कम से कम मति और ये दो ज्ञान तो पाये ही जाते हैं। श्रुत, समाधान: तत्त्वार्थ सूत्र (अध्याय 1/30 ) में कहा है, 'एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्यः'। अर्थ - एक आत्मा में एक को आदि लेकर एक साथ चार ज्ञान तक भजनीय हैं। भावार्थ - यदि एक ज्ञान तो केवलज्ञान, दो हों तो मति एवं श्रुत, तीन हों तो मति, श्रुत, अवधि या मति, श्रुत एवं मन:पर्यय तथा चार हों तो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय । उपर्युक्त सामान्य अर्थ के अनुसार प्रत्येक संसारी जीव के मति एवं श्रुत ये दोनों ज्ञान अवश्य पाये जाते हैं। परन्तु राजवार्तिक में इस सूत्र की टीका करते हुए अकलंकदेव ने एक विशेष व्याख्या इस प्रकार भी दी है Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा 'संख्यावचनोऽयमेकशब्दः । ' एकमादिर्येषां तानीमान्येकादीनि । कथम् ? मतिज्ञानमेकस्मिन्नत्मनि एकम्, यदक्षरश्रुतं द्व्यनेकद्वादशभेदमुपदेशपूर्वकं तद्भजनीयम् स्याद्वा न वेति । ' अर्थ एक शब्द संख्यावाची है। इसलिए एक है आदि में जिसके वह एकदीनि है। इससे आत्मा में एक अकेला मतिज्ञान भी हो सकता है, क्योंकि उपदेशपूर्वक होनेवाला जो दो- अनेक बारह भेद रूप अक्षरश्रुत है वह भजनीय है, अर्थात् किसी के होता है और किसी के नहीं। भावार्थ तात्पर्य यह है कि किसी आत्मा में मतिज्ञान तो हो, परन्तु श्रुतज्ञान के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट, इन दोनों भेदों में से कोई भी ज्ञान न हो, तो इस जीव के केवल एक मतिज्ञान भी संभव है। यहाँ यह भी जानने योग्य है कि उपर्युक्त कथन आत्मा में लब्धि की अपेक्षा होने वाले ज्ञानों की अपेक्षा है। उपयोग में तो प्रत्येक जीव के एक समय में एक ही ज्ञान हो सकता है, इससे अधिक नहीं। जैसे जब अवधिज्ञानरूप उपयोग रहता है, तब अन्य कोई भी ज्ञान उपयोग में नहीं रहता । प्रश्नकर्ता: पं. बसंतकुमार शास्त्री, शिवाड़ । जिज्ञासा : तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् होती है या अलग-अलग ? समाधान : उपर्युक्त विषय पर श्री धवला पु. 1/ 279 तथा श्री धवला पु. 7/77 में अच्छा प्रकाश डाला गया है, जिसका भावार्थ यह है कि तीनों योगों की प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती है, अन्यथा एक साथ मानने पर आत्मा में योग नहीं बन सकेगा । यदि कोई कहे कि लोक में सिनेमा आदि देखते समय या क्रिकेट का मैच आदि देखते समय तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् दिखाई देती है ? इसका उत्तर यह है कि योग और प्रवृत्ति में अन्तर होता है। मन-वचनकाय के व्यापार को प्रवृत्ति कहते हैं, जब कि आत्मा के प्रयत्न को योग कहा जाता है। प्रवृत्ति तो तीनों योगों की एक साथ हो सकती है, परन्तु आत्मा का प्रयत्नरूप योग एक समय में एक ही होता है। जैसे किसी यात्री की अटैची कोई चोर लेकर भाग जाता है। वह यात्री उस चोर के पीछे दौड़ भी रहा है, चीख भी रहा है और सोच भी रहा है कि अटैची कैसे मिले। यहाँ तीनों योगों की प्रवृत्ति एक साथ हो - -अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 37 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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