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________________ रही है, परन्तु आत्मा का प्रयत्नरूप योग केवल एक ही हो | नहीं आता।" सकता है, ताना नहा। अर्थात् जब उसका प्रयत्न चीखने | 4. श्री धवला पु.1, पृष्ठ 191 पर इस प्रकार शंका रूप रहता है, तब वचन रूप प्रयत्न रहता है, मन एवं काय | की गई है कि जिन जीवों की कषाय क्षीण (नष्ट) अथवा रूप नहीं। जब तेज दौड़ने रूप प्रयत्न रहता है, तब कायरूप | उपशान्त हो गई है, उनके शुक्ललेश्या का होना कैसे संभव प्रयत्न है, मन एवं वचन रूप नहीं, आदि। इससे यह स्पष्ट | है ? इसका समाधान - नहीं, क्योंकि जिन जीवों की कषाय है कि योगों की प्रवृत्ति एक साथ होते हुए भी, आत्मा का | क्षीण अथवा उपशान्त हो गई है, उनमें कर्मलेप का कारण प्रयत्नरूप योग तो एक समय में एक योग का ही होता है। योग पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षा से उनके शुक्ललेश्या जिज्ञासा : कषायों के उदय की अपेक्षा लेश्यायें | मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। होती हैं, तो क्षीणकषाय अवस्था में किसी भी प्रकार की | उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार जो आत्मा को कर्मों से लेश्या का अभाव होना चाहिए , जबकि वहाँ शुक्ल लेश्या | लिप्त करती है, उसे लेश्या कहते हैं। कषाय रहित 11वें, कही गई है, वह कैसे? 12वें और 13वें गुणस्थान में योग होने के कारण आस्रव समाधान : उपर्युक्त के संबंध में स्वार्थसिद्धि 2/6 | निरन्तर पाया जाता है, इसलिए इन गुणस्थानों में लेश्या का में इस प्रकार कहा गया है - 'ननु च उपशान्तकषाये | सद्भाव मानना उचित है। सयोगके वलिनि च शुक्ललेश्यास्तीत्यागमः। तत्र प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र कुमार जैन एम.ए., देहरादून। कषायानुरञ्जनाभावादौदयिकत्वं नोपपद्यते। नैष दोषः जिज्ञासा : श्रवणवेलगोला-स्थित भगवान् बाहुबलि पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया यासौ योगप्रवृत्तिः कषायानुरञ्जिता | की मर्ति से पर्व भी क्या ऐसी ही मर्तियों की उपलब्धि होती सैवेत्यपचारादौदयिकीत्युच्यते। तदभावादयोगकेवल्यलेश्य | है या यह मर्ति सर्वाधिक प्राचीन है. स्पष्ट करें। इति निश्चीयते।' समाधान : पूरे भारतवर्ष मे जितनी भी भगवान प्रश्न -- उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और बाहुबली की मूर्तियाँ पाई जाती हैं, उनमें सुंदरता की दृष्टि से सयोगकेवली गुणस्थान में शुक्ललेश्या है ऐसा आगम है, श्रवणबेलगोला स्थित भगवान् बाहुबली का जिनबिम्ब अनुपम, परन्तु वहाँ पर कषाय का उदय नहीं है, इसलिए औदयिकपना अद्वितीय एवं सर्वश्रेष्ठ है, परन्तु इससे पूर्व भी भगवान् नहीं बन सकता। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो बाहुबली की मूर्तियों के प्रमाण एवं मूर्तियों का सद्भाव पाया योगप्रवृत्ति कषाय के उदय से अनुरंजित है वही यह है। इस जाता रहा है। कुछ ज्ञात मूर्तियाँ इस प्रकार हैं - प्रकार पूर्वभावप्रज्ञापननय की अपेक्षा उपशान्तकषाय आदि ___1. चम्बल क्षेत्र में मन्दसौर जिले के घुसई स्थान से गुणस्थानों में भी लेश्यारूप औदयिक भाव कहा गया है। प्राप्त भ. बाहुबलि की मूर्ति चौथी-पाँचवी शताब्दी की अनुमान किन्तु अयोगकेवली के योग प्रवृत्ति नहीं है इसलिए वे लेश्या की जाती है। रहित हैं, ऐसा निश्चय है। 2. संभवतः कदम्बराज रविवर्मा द्वारा पाँचवी शताब्दी 1. श्री धवला पु.1, पृष्ठ 150 में इस प्रकार कहा है | में निर्मित 'मन्मथनाथ' (कामदेव या बाहुबलि) का मंदिर "अकषाय वीतरागियों के केवल योग को लेश्या नहीं कह | सर्वाधिक प्राचीन बाहुबली मंदिर सिद्ध होता है। इससे संबंधित सकते, ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिए, क्योंकि लेश्या में शिलालेख उत्तर कर्नाटक जिले के बनवासी के निकट गुदनापुर योग की प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि वह योग ग्राम में प्राप्त हुआ है । प्रवृत्ति का विशेषण है।" 3. ऐहोल की गुफा में भगवान् बाहुबली की मूर्ति 2. श्री धवला पु. 5, पृष्ठ 105 पर कहा है, "सचमुच स्थित है, जो लगभग 7 फीट ऊँची है और 7 वीं शताब्दी की क्षीण-कषाय जीवों में लेश्या के अभाव का प्रसंग आता, मानी जाती है। इसमें भ. बाहुबली की जटायें कन्धों तक यदि केवल कषायोदय से ही लेश्या की उत्पत्ति मानी जाती। प्रदर्शित हैं और उनकी बहिनें लताओं को हटाते हुए दिखाई किन्तु शरीरनामकर्म के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या | गई हैं। माना गया है, क्योंकि यह भी कर्मबन्ध में निमित्त होता है। 4. बादामी के जैन गुफा मंदिर में भी एक आठ इस कारण कषायों के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है, | फुट ऊँची प्रतिमा है, जो सातवीं-आठवीं शताब्दी की मानी इसलिए क्षीणकषाय जीवों के लेश्या मानने में कोई विरोध जाती है। 38 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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