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________________ पुरावैभव के सच्चे रक्षक डॉ. स्नेहरानी जैन, सागर समूचा भारत विश्व के सामने अपने "पुरा" वैभव | पुरातत्त्व के विषय में लोगों में बेहद भ्रामक मान्यताएँ के लिए एक विशाल "खान' है। विदेशों में प्राचीनता के | चल रही हैं। इससे भारतीय नेता और विद्वान तो ग्रसित हैं ही, नाम पर जो कुछ भी देखने में आता है, भारतीय उससे | हमारे न्यायविद् भी अंधेरे में जी रहे हैं। तब एक ही कहावत इसलिए विशेष प्रभावित नहीं दिखते कि विश्व की सबसे | याद आती है- "अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी प्राचीन 'मानव-सभ्यता' की पुरा वस्तुयें भारत में जहाँ-तहाँ | टके से खाजा।" यात्रियों को सहज ही देखने को मिल जाती है। जिस बावरी मस्जिद को लेकर भारत में इतना तूफान जहाँ भी खुदाई होती है, कुछ न कुछ रहस्यमय | उठा कि "वह रामलला की जन्मस्थली थी" किसी नेता ने 'जिनधर्म के अवशेष' दिखाई पड़ ही जाते हैं। म्यूजियम भी एक बार भी न सोचा कि वह "राम से पूर्व ऋषभ की उन 'जैन अवशेषों' को सहेजने का स्थान नहीं बना पाते हैं | | जन्मस्थली और जैनियों का महातीर्थ है," कि अब भी वहाँ और बागों में बिम्बों को पड़ा रख छोड़ते हैं अथवा यदि | कोनेवाली मस्जिद आज भी अपने कोने में जैन मंदिर को साधन मिला तो स्थापित करा देते हैं। कितनी ही 'जिन- रौंदे खड़ी है। जितने भी प्राचीन तीर्थ थे, मूलतः वे सब मूर्तियाँ' नदियों की रेत में दबीं, और जंगलों में खड़ी, कभी | जैनियों के ही थे। प्रथम उन्हें बौद्धों ने फिर कुछ को शंकराचार्य सड़क की खुदाई से निकली और कभी चोरों की गिरफ्त से | ने और बाद में मुगलों ने और ईसाई धर्मावलंबियों ने हथिया बचाई गई सुनने में आती हैं। उतनी ही मूर्तियाँ विदेशों में लिया। आज भी प्रजातंत्र पर कलंक बनी गुजरात सरकार ने प्राचीनता सँजोए शौकीन लोगो के ड्रॉइंग रूमों की सज्जा बनी | गिरनार की जैन टोंकों पर आतंकवादी पंडे बिठाल कर देखी जा सकती हैं। उनके सुपुर्द करा दिया है। ये प्रजातंत्र की आड़ में गहरा सन् 1999 में मैं जर्मनी की यात्रा पर जब विशेष | कुचक्र और अन्याय है। खोज अभियान पर निकली थी, तब मैंने देखा कि हमारी ऐसा लगता है कि बड़ी सुनियोजित योजना बनाकर मूर्तियाँ मंदिरों से उठकर किस प्रकार विदेशियों के हाथ | जैन तीर्थों को हड़पने का अभियान बहुसंख्यक समुदाय की लगीं, ठीक पांडुलिपियों की तरह हमारी ही अपनी अज्ञानता | शासन-प्रणाली ने ठान लिया है। सारे ही जैनतीर्थ प्राचीन के कारण। सैलानी आए और उनके सहज ठिकानों से उन्हें होने के कारण पुरातत्त्व के कब्जे में पहले से ही कर लिए ले गए। गए हैं, किंतु इसका यह मतलब तो कदापि नहीं होना चाहिए ईजिप्त की 'ममी' की तरह भारत के 'जिनों' ने | | कि जैनों को उनके पूजन, दर्शन और धार्मिक अधिकारों से विदेशी संग्रहालयों में अपना विशेष महत्त्व बनाया है। तिस | उनके ही तीर्थ स्थानों पर वंचित किया जावे। उनके तीर्थों के पर भी सिंधु घाटी सभ्यता की सीलों में झाँकती जिन-मुद्राएँ | मूलनायकों को विद्रूप और नष्ट कर दिया जावे, जैसा कि पुरातत्त्वज्ञों के लिए अजूबा बनी रही हैं। जितनी भी 'पुरा| गिरनार पर, केशरियाजी में, खण्डगिरि में और अंजनेरी में सामग्री' है, उतने ही भिन्न-भिन्न 'पुरा अंकन', फिर भी | किया गया है। जिसे भी उन बिम्बों को पूजना हो, अवश्य उनके अंदर से झाँकती + चतुर्गति और स्वस्तिक, चाँद | पूजें, किंतु उन क्षेत्रों का अधिकार मूल (दिगंबर) जैनों के और सूरज, बैल और दिगम्बर मुद्राएँ । मुहरों पर उकरे चित्र | हाथ में । पहचाने न जा सके। आश्चर्य है कि चक्र और पश बौद्ध | पूजा जावे। अन्यथा इस वर्तमान में चल रही अराजक स्थिति संकेत पुकारे गए, किंतु उनका अस्तित्व जैन आधार पर | को प्रजातंत्र कहलाने का अधिकार नहीं है। नहीं समझा जा सका। बोधिगया के मंदिर के स्तूपों की तरह बुंदेलखण्ड के क्षेत्र भी अति प्राचीन क्षेत्र हैं, जिन पर उन्हें प्राचीन तो आँका गया पर खंडित सहस्रकूटों के टुकड़े | पुरातत्त्व की 'शनिदृष्टि' पड़ी है। देवगढ़ के पुरातत्त्व को ना दिखे, जिन्हें तोड़कर बौद्ध स्तूपों की रचना की गई। सभी खंडहर बनाकर मंदिर में पुलिस रह रही थी। वो तो अत्यंत प्रसिद्ध पुरातत्त्व हैं। सराहनीय रहा कि पू. आचार्य विद्यासागर जी एवं बाद में मुनि श्री सुधासागर जी ने वहाँ चातुर्मास करके उस क्षेत्र को 12 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524306
Book TitleJinabhashita 2006 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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