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न हो, मल-मूत्र त्याग के लिए योग्य विशाल भूमि न हो, पीठ (चौकी) फलक, शय्या एवं संस्तारक की प्राप्ति सुलभ न हो और न प्रासु (निर्दोष) एवं एषणीय आहार- पानी M सुलभ हों, जहाँ बहुत से श्रमण ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र और भिखारी पहले से आए हुए हों और भी आने वाले हों, जिससे सभी मार्गों पर जनता की अत्यन्त भीड़ हो, और साधु साध्वी को भिक्षाटन, स्वाध्याय, शौच आदि आवश्यक कार्यों से अपने स्थान से सुखपूर्वक निकलना और प्रवेश करना भी कठिन हो, स्वाध्याय आदि क्रिया भी निरुपद्रव न हो सकती हो, ऐसे ग्राम-नगर आदि में वर्षाकाल प्रारम्भ हो जाने पर भी वर्षावास व्यतीत न करे। 16 कल्पसूत्र कल्पलता के अनुसार वर्षावास के योग्य स्थान में निम्नलिखित गुण होना चाहिए - जहाँ विशेष कीचड़ न हो, जीवों की अधिक उत्पत्ति न हो, शौच-स्थल निर्दोष हो, रहने का स्थान शान्तिप्रद एवं स्वाध्याय योग्य हो, गोरस की अधिकता हो, जनसमूह भद्र हो, राजा धार्मिक वृत्ति का हो, भिक्षा सुलभ हो, श्रमण-ब्राह्मण का अपमान न होता हो आदि ।
वर्षावास में भी विहार करने के कारण = अपराजितसूरि के अनुसार वर्षायोग धारण कर लेने पर भी यदि दुर्भिक्ष पड़ जाय, महामारी फैल जाये, गाँव अथवा प्रदेश में किसी कारण से उथल-पुथल हो जाय, गच्छ का विनाश होने के निमित्त मिल जायें, तो देशान्तर में जा सकते हैं। क्योंकि ऐसी स्थिति में वहाँ ठहरने से रत्नत्रय की विराधना होगी। आषाढ़ की पूर्णमासी बीतने पर प्रतिपदा आदि के दिन देशान्तरगमन कर सकते हैं। 18 स्थानांगसूत्र में इसके पाँच कारण बताये हैं. - 1. ज्ञान के लिए, 2. दर्शन के लिए, 3. चारित्र के लिए, 4. आचार्य या उपाध्याय की मृत्यु के अवसर पर तथा, 5. वर्षा क्षेत्र के बाहर रहे हुए आचार्य अथवा उपाध्याय की वैयावृत्य करने के लिए। 19 और भी कहा है कि निर्बंध और निर्ग्रन्थियों को प्रथम प्रावृट् चातुर्मास के पूर्वकाल में ग्रानानुग्राम विहार नहीं करना चाहिए। किन्तु इन पाँच कारणों से विहार किया भी जा सकता है
1. शरीर, उपकरण आदि के अपहरण का भय होने पर, 2. दुर्भिक्ष होने पर, 3. किसी के द्वारा व्यथित किये जाने
32 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित
पर अथवा ग्राम से निकाल दिये जाने पर, 4. बाढ़ आ जाने पर तथा 5. अनार्यों द्वारा उपद्रव किये जाने पर 120
इस प्रकार वर्षावास के विषय में जैन आचार शास्त्रों में यह विवेचन प्राप्त होता है। श्रमण के वर्षावास का समय उसी प्रकार कषायरूपी अग्नि को एवं मिथ्यात्व रूपी ताप को त्याग एवं वैराग्य की शीतल धारा से तथा स्वाध्याय और ध्यान की जलवृष्टि से शान्त करने का होता है, जिस प्रकार जल की शीतल धारा बरस कर धरती की तपन शान्त करती है।
सन्दर्भ -
1.
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"वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेषु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः । " भगवती आराधना । वि. टी. 421 / पृष्ठ 618, मूलाचार वृत्ति
10/18 I
बृहत्कल्पभाष्य 1 / 36 |
भ. आ./वि. टीका 421, पृ. 618 ।
19.
20.
आचारांग सूत्र 2/3/1/1111
बृहत्कल्पभाष्य भाग 3 गाथा 2736-27371
अनगारधर्मामृत 9/66-671
अनगार धर्मामृत 9/68-691
"कप्पइ णिग्गंथाणं वा णिग्गंथीणं वा एवं विहेणं विहाररेणं विहरमाणाणं आसाढपुण्णिमाए वासावासं वसित्तए ।" कल्पसूत्र सूत्र 17, पृ. 74 (कल्पमंजरी टीका सहित) ।
कल्पसूत्र नियुक्ति गाथा 16, कल्पसूत्र चूर्णि पृ. 89 ।
भ. आ. वि. टीका 4211
वही।
10.
11.
12. आचारांग 2/3/1/113, पृ. 1064 13. स्थानांग 5/61-621
14. स्थानांग वृत्ति पत्र 294, 295।
15. बृहत्कल्पभाष्य भाग, 2, 1 / 1539-401
16. आचारांग सूत्र 2/3/1/465।
17. कल्पसूत्र - कल्पलता पं. 3/1 तथा कल्पसमर्थनम् गाथा26 | 18. भ. आ. वि. टीका 421, अनगारधर्मामृत ज्ञानदीपिका 9
80-81, पृ. 6891
ठाणं 5/100, पृ. 575 1
वही 5/99, पृ. 5741
जीव और कर्म इन दोनों का जो अनादिकाल से सम्बन्ध सिद्ध है, उसे नष्ट करने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय के अलावा दूसरा और कोई भी समर्थ नहीं है ।
'वीरदेशना'
'डॉ. लालबहादुर शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार
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