Book Title: Jinabhashita 2006 04 05 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 32
________________ जैन परंपरा में वर्षावास जैन श्रमणपरम्परा में वर्षावास का अत्यन्त महत्त्व है । मेघोदय को । और यह आध्यात्मिक जागृति का महापर्व है, जिसमें स्वपरहित-साधन का अच्छा अवसर प्राप्त होता है। यही कारण है कि वर्षावास को मुनिचर्या का अनिवार्य अंग और महत्त्वपूर्ण योग माना गया है। इसीलिए इसे वर्षायोग अथवा चातुर्मास भी कहा जाता है। श्रमण के दस स्थितिकल्पों में अन्तिम पर्युषणाकल्प है, जिसके अनुसार वर्षाकाल के चार महीने भ्रमण का त्याग करके एक स्थान पर रहने का विधान है। 1 वर्ष के बारह महीनों को छह ऋतुओं में विभाजित किया गया है । यथा 1. बसंत ऋतु (चैत्र वैशाख माह ), 2. ग्रीष्म ऋतु ( ज्येष्ठ-आषाढ़), 3. वर्षा ऋतु (श्रावण-भाद्रपद), 4. शरद् ऋतु (आश्विन - कार्तिक), 5. हेमन्त ऋतु (मार्गशीर्ष पौष) तथा 6. शिशिर ऋतु (माघ-फाल्गुन माह ) । तथा वर्ष को मौसम की दृष्टि से प्रमुख तीन भागों में विभाजित किया गया है । यथा - 1. ग्रीष्म- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ । 2. वर्षा - श्रावण, भाद्रपद, आश्विन तथा कार्तिक । 3. शीतमार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन । यद्यपि ये तीनों ही विभाजन चार-चार माह के हैं, किन्तु वर्षाकाल के चार महीनों का एकत्र नाम " चातुर्मास", वर्षावास आदि रूप में प्रसिद्ध है। श्वेताम्बरपरम्परा में "पर्युषणा कल्प" नाम से वर्षावास का वर्णन प्राप्त होता है । बृहत्कल्भाष्य में इसे "संवत्सर' कहा गया है । 2 वस्तुतः वर्षाकाल में आकाश मण्डल में घटाएँ छायी रहती हैं। तथा प्राय: वर्षा भी निरन्तर होती रहती है। इससे यत्र-तत्र भ्रमण या विहार के मार्ग रुक जाते हैं, नदी-नाले उमड़ पड़ते हैं । वनस्पतिकाय आदि हरितकाय मार्गों और मैदानों में फैल जाती हैं। सूक्ष्म-स्थूल जीव-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। अतः किसी भी परजीव की विराधना तथा आत्मविराधना (घात) से बचने के लिए श्रमणधर्म में वर्षाकाल में एकत्र - वास का विधान किया गया है। यही समय एक स्थान पर स्थिर रहने का सबसे उत्कृष्ट समय होता है। 1 श्रमण और श्रावक, दोनों के लिए इस चातुर्मास का धार्मिक तथा आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्त्व है। इसीलिए श्रमण या उनके संघ के चातुर्मास (वर्षा योग) को श्रावक उसी प्रकार प्रिय और हितकारी अनुभव करते हैं, जिस प्रकार चकवा चन्द्रोदय को, कमल सूर्य को और मयूर 30 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International डॉ. फूलचन्द जैन, प्रेमी, वाराणसी वर्षावास का औचित्य अपराजित सूरि ने कहा है कि वर्षाकाल में स्थावर और जंगम सभी प्रकार के जीवों से यह पृथ्वी व्याप्त रहती है। उस समय भ्रमण करने पर महान् असंयम होता है। वर्षा और शीत वायु (झंझावात) से आत्मा की विराधना होती है। वापी आदि जलाशयों में गिरने का भय रहता है। जलादि में छिपे हुए ठूंठ, कण्टक आदि से अथवा जल, कीचड़ आदि से कष्ट पहुँचता है। 3 आचारांग में कहा है- वर्षाकाल आ जाने पर तथा वर्षा हो जाने से बहुत से प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, बहुत से बीज अंकुरित हो जाते है । मार्गों में बहुत से प्राणी तथा बीज उत्पन्न हो जाते हैं । बहुत हरियाली उत्पन्न हो जाती है। ओस और पानी बहुत स्थानों में भर जाता है । पाँच प्रकार की काई आदि स्थानस्थान पर व्यास हो जाती है। बहुत से स्थानों पर कीचड़ या पानी से मिट्टी गीली हो जाती है। मार्ग रुक जाते हैं, मार्ग पर चला नहीं जा सकता । मार्ग सूझता नहीं है। अतः इन परिस्थितियों को देखकर मुनि को वर्षाकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार नहीं करना चाहिए। अपितु वर्षाकाल में यथावासर वसति में ही संयत रहकर वर्षावास व्यतीत करें बृहत्कल्भाष्य के अनुसार वर्षावास में गमन करने में षट्कायिक जीवों का घात तो होता ही है, साथ ही वृक्ष की शाखा आदि सिर पर गिरने, कीचड़ मे रपट जाने, नदी में बह जाने, काँटा आदि लगने के भय रहते हैं। श्रमण को प्रत्येक कल्पनीय कार्य करते समय अहिंसा और विवेक की दृष्टि रखना अनिवार्य है । वर्षाकाल में विहार करते रहने में अनेक बाधाओं के साथ ही जीव - हिंसा की बहुलता सदा रहती है। इसीलिए वर्षाकाल के चार माह तक एक स्थान पर स्थिर रहकर वर्षा योग धारण का विधान है। जैन परम्परा के साथ ही प्रायः सभी भारतीय परम्पराओं के धर्मों में साधुओं को वर्षाकाल के चार माह में एक स्थान पर स्थित रहकर धर्म-साधन करने का विधान है। वर्षायोग ग्रहण एवं उसकी समाप्ति यद्यपि मूलाचार आदि ग्रन्थों में वर्षायोग-ग्रहण आदि की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, किन्तु उत्तरवर्ती ग्रन्थ ' अनगार- धर्मामृत' में कहा है कि आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर में पूर्व आदि चारों ओर दिशाओं में प्रदक्षिणा -क्रम से For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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