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पर भी उस दोष को भी टालने की आगम= आज्ञा है। | होना चाहिए कि महाराज को आहार देने के पश्चात् उस भोजन औद्देशिक दोष के सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण में से स्वयं नहीं खावे। यदि ऐसा करता है तो वह आहार तो
पात्र विशेष के निमित्त से बना भोजन औद्देशिक है। मुनिराज का उद्देश्य कर बना हुआ ही कहलावेगा।औद्देशिक पात्रविशेष के सम्बन्ध में कहा गया है कि "अन्य पाखण्डी
| दोष का परिहार मात्र आहार के सम्बन्ध में नहीं, वसतिका, जो कोई आवेंगे उनको सभी को दूंगा, परिव्राजक आदि जो
उपकरण आदि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। भी आवेंगे, उन सभी निर्ग्रन्थ साधुओं को दूंगा।" इस प्रकार
जैसा कि पूर्व में कहा गया है, निग्रंथ दिगम्बर मुनियों भिन्न-भिन्न प्रकार के पात्रों को उद्देश्य करके बनाया हुआ
में भी जितने आवेंगे, उन सभी को भी दूंगा, ऐसा उद्देश्य अन्नादि औद्देशिक दोष से दषित होता है। उक्त कथन का करना समादेशदोष-युक्त है। इसी बात पर लोगों की यह मूल अभिप्राय यह है कि किसी खास व्यक्ति के लिए
धारणा बन गई है कि मुनियों के उद्देश्य से बनाया आहार संकल्पपूर्वक कोई उत्तम वस्तु तैयार की गई हो, तो वह
उद्दिष्ट है, किन्तु यह धारणा आगम का रहस्य समझे बिना उद्देश्ययुक्त होने से निर्दोष नहीं है। यदि वह अन्य पात्र को
भ्रान्तियुक्त है। आगम में ऐसा अभिप्राय सर्वथा नहीं है। चार दान में दे दी जावे, तो वह वस्तु जिनके लिए तैयार की गई
प्रकार के उद्देश्यों में "मुनिजनों के लिए बनाया गया भोजन थी उनके परिणाम में मोह-लोभ आदि के निमित्त से असूया
ओद्देशिक दोष युक्त है" उसका अभिप्राय आचार ग्रन्थों में के भाव उत्पन्न हो सकते हैं, जिससे उनके मन को आघात
इस प्रकार कहा है - पहुँच सकता है और दाता के मन में भी अनेक प्रकार के
"जो मुनि मेरी वसतिका (गृह) में ठहरे हैं या मेरी संकल्प-विकल्प होने की सम्भावना बनी रहती है। अतः | धर्मशलादि में ठहरे हैं, उन्हें ही मैं आहार दूंगा, अन्य मुनियों किसी विशेष व्यक्ति को लक्ष्यकर बनाई वस्तु अन्य को दे | को नहीं " इस प्रकार किसी कारणवश मुनिविशेष को देना औद्देशिक दोष से दूषित है, ऐसा श्रावक आश्रित दोष है।
| लक्ष्यकर उनके उद्देश्य से भोजन बनाकर उन्हें ही देना, सो यदि मुनिराज को ज्ञात हो जावे, तो वे उस आहार को ग्रहण
औद्देशिकदोषयुक्त है। अथवा किसी नवीन वसतिका का नहीं करते हैं। इतना ही नहीं यदि श्रावक अपने को उद्देश्य
निर्माण कराकर यह संकल्प करना कि अमुक मुनिराज को करके भी कोई विशेष भोज्य पदार्थ बनाता है और उसमें यह
ही ठहराऊँगा, अन्य को नहीं। इसी प्रकार उपकरण आदि के संकल्प कर लेता है कि यह मैं ही खाऊँगा, तत्पश्चात् पात्र
तथा आर्यिका, क्षुल्लक, ऐलक के वस्त्रों के सम्बन्ध में भी का निमित्त मिलने पर वह वस्तु उन्हें दे देता है, तो वह
जानना चाहिए। इस सम्बन्ध में मूलाचार, आचारसार, भगवती औद्देशिक होने से ज्ञात होने पर मुनिराज ग्रहण नहीं करते
आराधना, चारित्रसार, मूलाचार प्रदीप, प्रवचनसार तृतीय और यदि ज्ञात नहीं हो सकने पर श्रावक दे भी देता है, तो
अधिकार, षट्प्राभृत, अनगार धर्मामृत, आदि साध्वाचार श्रावक-आश्रित वह दोष होता है। इसी प्रकार नाग, यक्षादि
सम्बन्धी ग्रन्थों का परिशीलन कर उद्दिष्ट-मीमांसा करते हुए के संकल्प पूर्वक बनाया भोजन, पाखण्डी, कुलिंगियों के
अपनी भ्रान्त धारणाओं को मिटाना चाहिए। उद्देश्य से बनाया भोजन भी मुनिराज आदि पात्रों को देना
___ जिस प्रकार वस्त्रादि परिग्रह का अभाव साधु के औद्देशिकदोष युक्त है।
लिए आवश्यक है, उसी प्रकार उद्दिष्ट या औद्देशिक दोष "श्रावक अपने लिये भोजन बनावे और उसमें ही
युक्त आहार, शय्या, उपधि आदि का परित्याग भी परमावश्यक मुनिराज को भी आहार दे" इसका यही अभिप्राय है कि
|है। इस प्रकार आगमग्रन्थों के स्वाध्याय से उद्दिष्ट-मीमांसा श्रावक किसी वस्तुविशेष में खास व्यक्ति का उद्देश्य कर |
| करके यथार्थ मार्ग का अनुकरण करना ही हमारा परमकर्तव्य भोजन न बनावे, सामान्य से भोजन बनावे और पात्रदान के पश्चात् शेष बचे उस भोजन को स्वयं भी खावे। ऐसा नहीं |
'आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दन ग्रन्थ' से साभार
गुरु जिसका शरीर वैराग्य से विभूषित है और जो परिग्रह के दुष्ट संसर्ग से रहित होता हुआ अपरिमित ज्ञान का स्वरूप है, उसे गुरु जानना चाहिए।
'वीरदेशना'
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित /29
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