Book Title: Jinabhashita 2006 04 05 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ नहीं करता कि "आज तुम मेरे लिए अमुक आहार बना | कि दाता के आश्रित। लेना, मैं तुम्हारे यहाँ ही आऊँगा" और न मन में ही इस । आचार्यप्रणीत मूलग्रंथों को नहीं पढ़ने से तथा मात्र प्रकार का चिन्तन करता है कि "अमुक सेठ के या सामान्य | हिन्दी ग्रंथों को पढ़ने से कई बन्धुओं की यह धारणा बन रही भी गृहस्थ के घर नानाविध व्यंजनयुक्त उत्तम आहार बनाया, | है कि उद्दिष्टदोष केवल आहार से ही सम्बन्धित है, अन्य सो आज मैं उसी के यहाँ आहार ग्रहण करूँगा।" इत्यादि | औषधि, वसतिका आदि से नहीं। किन्तु यह मान्यता भूल नवकोटि से अपने लिये स्वयं आहार बनवाकर उसको ग्रहण | भरी है, क्योंकि आचार्यों ने वसतिका, उपकरण आदि पदार्थों नहीं करता वह उद्दिष्ट त्यागी है। को भी उद्दिष्टादि दोषों से रहित ग्रहण करने की आज्ञा बतलाई उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उद्दिष्टत्यागी | है और उसी के अनुसार अपनी समाचर्या मुनिजन करते हैं। स्वयं अपने लिए मन-वचन और काय से किसी श्रावक को | कहा भी है - आहार बनाने की प्रेरणा नहीं देता, न दूसरों से कहलवाता पिण्डं सेजं उवधिं उग्गमउप्पायणेसणदीहिं। और न कहकर बनाये गये की अनुमोदना ही करता है। चारत्तिरक्खणहं सोधधयं होदि सुचरितं॥ आहार सम्बन्धी समस्त संकल्प-विकल्पों का मन-वचन (मूलाचार-द्वि. भाग-समाचार विभाग) काय, कृत-कारित और अनुमोदनारूप नवकोटिपूर्वक त्याग "पिण्ड, शय्या, उपकरण, उद्गम, उत्पादनादि दोषों होता है। से रहित ही ग्रहण करने से मुनिगणों के चारित्र की रक्षा व श्रावक का मुख्य कर्तव्य ही यह है कि अपने ग्राम या | शुद्धि होती है। अथवा उद्दिष्टादि दोषों से रहित पिण्ड, शय्या, नगर में साधुओं का आगमन होने पर अपने घर भक्तिपूर्वक | उपकरणादि पदार्थ ग्रहण करनेवाला मुनि ही विशुद्ध चारित्र साधुओं का आहार देवे। जो अपने आवश्यक कर्तव्यस्वरूप | का धारी होता है।" दान नहीं देता वह वास्तव में श्रावक ही नहीं है। कुन्दकुन्दाचार्य | पिण्ड (आहार-पानी औषधादि), शय्या (वसतिका, ने रयणसार में कहा भी है - "दाणं पूया मुक्खं सावयधम्मे, | चटाई, फलक, तृणादि), उपकरण (शास्त्र, पच्छिका, णा सावया तेण विणा" दान और पूजा श्रावक का मुख्य | कमण्डलु आदि)। मूलाचार ग्रन्थ मुनियों के आचारसम्बन्धी कर्तव्य है उसके बिना श्रावक, श्रावक नहीं कहा जा सकता। ग्रन्थों में प्रधानग्रन्थ है, उक्त प्रकरण के संबंध में पुनः वहाँ अतः श्रावक को चाहिए कि वह अपने नगर या ग्राम में आये | कहा है किहुए मुनिजनों एवं अन्य त्यागीजनों को आहारदान अवश्य | "जो साधु पिण्ड, उपधि और शय्या आदि का उद्गमदेवे। व्यर्थ के झमेले में पड़कर आहारदान से वंचित न रहे। | उत्पादनादि दोषों से सहित ग्रहण करता है, वह अपने मूलगुणों मुनिजन प्रायः वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप के अन्तर्गत | से रहित होता हुआ मूलस्थान (श्रावकपद) को प्राप्त हो जाता विभिन्न प्रकार की प्रतिज्ञाएँ लेकर आहार को जाते हैं। यदि | है तथा वह लोक में यति धर्मविहीन होकर श्रमणों में तुच्छ यथाचिंतित वृत्तिपरिसंख्यान जिस भी श्रावक के यहाँ मिल | समझा जाता है।" जाता है वहाँ 46 दोष और 32 अन्तराय टालकर निर्दोष- | अतः जो दाता प्रासुक दान (आहारदानादि) और एषणासमिति-युक्त आहार ग्रहण करते हैं। फिर श्रावकों द्वारा | उपधि(वसतिका, तृणदि) अपने हाथ से शोधकर देता है यह कल्पना करना कि "हमने तो महाराज के लिए आहार | एवं जो पात्र (मुनि) ऐसे आहार अथवा उपधि को ग्रहण बनाया" बिल्कुल अयथार्थ है, क्योंकि यदि महाराज के | करते हैं, तो दाता और पात्र दोनों को महाफल की प्राप्ति होती लिए ही आहार बनाया होता, तो महाराज का आहार अवश्य | है। कहा भी है - ही उस घर में होना चाहिए था, किन्तु ऐसा तो हुआ नहीं।। फासुगदाणं फासुग-उवधिं तह दोवि सोधीए। अतः उक्त प्रकार मिथ्या कल्पना करना व्यर्थ है। जो देदि जो य गिण्हदिदोण्हं वि महाफलं होई॥ यदि उद्दिष्ट शब्द की उक्त व्याख्या न मानी जावे, तो • दाता को उद्दिष्ट का त्याग नहीं होता, पात्र को होता है, आगम और व्यवहार के लोप की सम्भावना होगी। दूसरी | क्योंकि दाता तो पिच्छिका, कमण्डलु, औषधि आदि समस्त बात यह है कि उद्दिष्टदोष मात्र आहारदान में ही नहीं होता, | वस्तुएँ पात्र को लक्ष्य करके ही तैयार करता है। यदि वह वरन् चारों ही प्रकार के दानों में माना गया है। यह बात पहले | उद्दिष्ट समझकर दान ही नहीं करे, तो दान का अभाव होगा भी बतायी जा चुकी है कि उद्दिष्टदोष पात्र के आश्रित है, न | तथा बहुत बड़ी अव्यवस्था हो जावेगी, कारण कि दाता और -अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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