Book Title: Jinabhashita 2006 04 05 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ उद्दिष्ट - मीमांसा पं. छोटेलाल जी बरैया, धर्मालंकार, उज्जैन साध्वाचार या क्षुल्लक-ऐलक की चर्या से सम्बन्धित | कारित-अनुमोदना-रूप नवकोटी की प्रेरणा से उत्पन्न आहार उद्दिष्टत्याग सम्प्रति श्रावकों में विशेष चर्चणीय विषय हो गया | ग्रहण करता है, तो वह आहार उद्दिष्ट दोष से दूषित है। है। जो लोग उद्दिष्ट का शाब्दिक अर्थ भी नहीं जानते, वे भी | अभिप्राय यह है कि यदि साधु उक्त नवकोटी पूर्वक स्वयं इस चर्या में प्रायः संलग्न दिखाई देते हैं, किन्तु आचार- | आहार बनाने की प्रेरणा करते हैं तो वह उद्दिष्ट दोष होता है। सम्बन्धी ग्रंथों का अवलोकन कोई भी नहीं करना चाहता। | मुनिजन इस प्रकार के उद्दिष्ट के त्यागी होते हैं। कहा भी है - वस्तुत: यदि श्रावकाचार और साध्वाचार-सम्बन्धी पूर्वाचार्य- स्वनिर्मितं त्रिधा येन कारतोऽ नुमतः कृतः। प्रणीत मूलग्रन्थों का सूक्ष्म पठन-मनन चिन्तन किया जावे, नाहारो गृह्यते पुंसा त्यक्तोद्दिष्टः स भण्यते॥ तो उद्दिष्ट के सम्बन्ध में जो भ्रमपूर्ण वातावरण यत्र-तत्र (सुभा रत्न सं. श्लो. 843 पृ.96)। दिखाई देता है और जो वितर्कणाएँ उद्दिष्ट के सम्बन्ध में दी "जो दिव्य आत्मा अपने मन-वचन-काय और कृतजा रही हैं, उनको कोई अवकाश प्राप्त नहीं हो सकता है। कारित-अनुमोदना से अपने लिए उद्देश्यकर स्वयं आहार सर्वप्रथम उद्दिष्ट के सम्बन्ध में जो कछ एक वितर्कणाएँ | बनवाकर उस (अपने लिये बने हुए) आहार को ग्रहण नहीं हैं, उन्हीं को पाठकों के समक्ष करता, वह उद्दिष्ट-त्यागी कहलाता है।" 1. "आज हमारे गांव में मुनिश्वर आये हैं उनके सकलकीर्ति आचार्य के शब्दों में लिये हमने आहार बनाया है" इस प्रकार आहारदान देने में | "कृतादिभिर्महादोषैस्त्यक्ताहारावलोकिनः" (प्रश्नोत्तरउद्दिष्ट दोष होता है। उद्दिष्ट का जन-साधारण ने सामान्य से | श्रावकाचार) मुनिगण अपने लिए आहार बनवाने के लिए यही अर्थ समझ लिया है कि मुनिजनों के लिये ही आजकल | कृत-कारित-अनुमोदना नहीं करते, अतः वे उद्दिष्ट के त्यागी आहार बनाया जाता है और इस प्रकार उनके लिये बनाया | कहे जाते हैं। अथवा यदि श्रावक स्वयं आकर मुनिराज से गया आहार उद्दिष्ट दोष से दूषित है। अतः वर्तमान में प्रायः | यह कहे कि "महाराज मैंने आज अमुक व्यंजन बनाये हैं साधुगण उद्दिष्ट आहार ही ग्रहण करते हैं। अतः मेरे यहाँ ही आज पधारें," या दूसरों से भी कहलावे 2. कुछ लोग कहते हैं कि हम नीरस भोजन नहीं | और महाराज उसके यहाँ आहार के लिए पहुँच जाते हैं, तो करते और न गर्म जल का उपयोग अपने भोजन में करते। | वह भी उद्दिष्ट दोष है, इस प्रकार साधुगण आहार करने के फल-दूध आदि का सेवन भी भोजन के साथ नहीं करते। त्यागी है। अतः यह सब आहार साधुओं के लिए ही बनाया जाता है दाता के आश्रित औद्देशिक दोष होता है। नाग-यक्षादि इस कारण वह आहार उद्दिष्टदोष से दूषित है। इत्यादि अन्य | देवता के लिए, अन्यमती पाखण्डियों के लिए, दीनअनेक प्रकार की वितर्कणाएँ लोग करते हैं। साथ ही यह भी | अनाथजनों के लिए उद्देश्य करके बनाया गया भोजन औद्देशिक कहते हैं कि वर्तमान में जब प्रतिमाधारी श्रावक ही नहीं हो | है। संक्षेप में औद्देशिक भोजन के चार प्रकार कहे हैं। तद्यथा - सकते, तब मुनि कैसे हो सकते हैं ? वर्तमान की आहारविधि 1. जो कोई आवेगा सबको देंगे, ऐसे उद्देश्य से किया मुनियों के योग्य नहीं है। इस प्रकार के विचारों से उद्दिष्ट अन्न यावान्नुद्देश है। 2. पाखण्डी अन्यलिंगी के निमित्त से शब्द के अर्थ को अत्यन्त जटिल कर दिया है। अतः आचार बनाया भोजन समुद्देश है। 3. तापस परिव्राजक आदि के ग्रंथों के परिप्रेक्ष्य में उद्दिष्ट-मीमांसा ही इस निबन्ध का प्रमुख निमित्त बनाया भोजन आदेश है। 4. दिगम्बर साधुओं के लक्ष्य है। निमित्त से बनाया गया भोजन समादेश दोष से दूषित है। । सर्वप्रथम हमें यह सोचना है कि उद्दिष्ट दोष पात्र के | उद्दिष्ट का विशेष स्पष्टीकरण आश्रित है या दाता के आश्रित? उद्दिष्ट का क्या लक्षण है? उद्दिष्टत्यागी, श्रावक को अपने लिए आहार बनवाने इत्यादि। के लिए नहीं कहता है कि "आज तुम मेरे लिए अमुक उद्दिष्टदोष दाता के आश्रित न होकर पात्र के आश्रित । | आहार बनाओ, मैं तुम्हारे घर पर ही आज आहार ग्रहण है। अर्थात् पात्र-साधु अपने मन-वचन-काय और कृत- | | करेगा।" इसी प्रकार अपनी शारीरिक चेष्टा से इशारा भी 26/ अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52