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श्री समन्तभद्र आदि महान् आचार्यों के समय में ऐसा ही होता था। सभी प्रकार के मनुष्य जैन-धर्म ग्रहण करके ऊँचे बन जाते थे, माननीय और प्रतिष्ठित हो जाते थे। तब ही तो इन महान् आचार्यों ने हिंसामय यज्ञों को भारत से दूर भगाया और अहिंसामय धर्म का झण्डा फहराया। अब भी यदि ऐसा ही होने लगे, जैनियों का हृदय जाति - कुलादि के मद से शून्य होकर धर्म की भावना से भर जाय और वे धर्मप्रचार के लिए अपने पूर्वजों का अनुकरण करने लगें, तो दुनिया भर के लोग आज भी इस सच्चे धर्म की शरण में आने के लिए उत्सुक हो सकते हैं। पर यह तभी हो सकता
'पुरातत्त्व विभाग के लिए अति महत्वपूर्ण पुरासम्पदा" (बड़े बाबा के जीर्ण मंदिर के ध्वस्त अवशेष)
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आज के कानून के तहत The ancient Monuments & Archeological Sites & Remains Act 1958.
। है, जब इस समय जो लोग जैनी कहलाते हैं और जैनधर्म के ठेकेदार बनते हैं, उनको धर्म का सच्चा श्रद्धान हो, आचार्यों के वाक्यों का उनके हृदय में पूरा पूरा मान हो, धर्म के मुकाबिले में लौकिक रीति-रिवाजों का जिन्हें कुछ ख्याल न हो, कुल और जाति का झूठा घमण्ड जिनके पास न हो और अपना तथा जीवमात्र का कल्याण करना ही जिनका एकमात्र ध्येय हो । आशा है धर्मप्रेमी बन्धु इन सब बातों पर विचार कर अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर होंगे।
'अनेकान्त' / बर्ष 2 / किरण 3 / विक्रम संवत् 1995 से साभार ।
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पुरातत्त्व विभाग के लिए गैरजरूरी "जीवित बड़े बाबा जीर्ण मंदिर से बाहर विराजमान " यह पुरातत्त्व विभाग की नजर में महत्वपूर्ण नहीं था "जीवित तत्त्व का पुरातत्त्व में कोई स्थान नहीं" मूर्ति एवं मन्दिर में महत्त्वपूर्ण क्या है?
नोट : पुरातत्त्व के पहिरेदार "समन्वय" का डंडा/झंडा थामे एक सम्पादक ने अग्रलेख में सुझाव दिया है कि अब " बड़ेबाबा " को पुनःजीर्ण मंदिर के स्थान पर स्थापित कराना चाहिये ।
समाज को दिशानिर्देश देनेवाले अतिबुद्धिमानों से सवाल है कि मूर्ति की सुरक्षा की जिम्मेवारी और यह पुनः स्थानान्तरण कैसे होगा ? किनके द्वारा ? पुरातत्त्व विभाग, समाज, सरकार और उनकी मंजूरी से या सम्पादक के करतब से?
हे मेरे भाई ! प्रत्यक्ष आकर तो देखो। ऐसे ध्वस्त मंदिर के अवशेषों पर अब पूर्व जर्जर मंदिर की अनुकृति बनानी होगी, तब हमारे सम्पादक जी का सुझाव लागू होगा। बलिहारी है बुद्धि की !
ब्र. अमरचन्द जैन, कुण्डलपुर (दमोह) म.प्र.
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-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 25 www.jainelibrary.org