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गौरवशाली निधि को जर्जर खंडित मंदिर से उबार लिया। उस मंदिर का मलबा ही बतलाता है कि एक ही पत्थर की मार 'बड़े बाबा' की काय शिला को नष्ट करने में सक्षम थी। ईंटों से बने मंदिर से कदाचित् ऐसा संभव ना होता, किंतु लातूरी पत्थरों से चूने की दरार खाई चुनाई एक भूकंप के धक्के को नहीं झेल पाती।
बड़े बाबा पर अंकित अक्षर दर्शाते हैं कि शाकाहार स्वीकारी एक छत्रधारी (राजा) ने जिनवाणी सुनकर 'बड़े बाबा' के दर्शन किए और भवचक्र से पार उतरने वैभव को त्यागकर महाव्रत की पीछी लेने इच्छानिरोध का पुरुषार्थ किया और मुनिसंघ के चरणों में पहुँच वैराग्य धारा । पुनः आगे चार शुक्लध्यानों की प्राप्ति हेतु उसने पंचपरमेष्ठी की शरण ली और शिखर पर्वत के ऊपर जा विराजा ।
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इतना ही नहीं बड़े बाबा की ही तरह उद्घोषणा करती मुझे तीन जिनमूर्तियाँ मुक्तागिरि में, एक हैदराबाद तथा एक पटना में मिली हैं।
वे सब पद्मासनस्थ जिन हैं। पाषाण में हैं और सिंधुलिपि उनके पैरों पर अंकित हैं। मात्र एक के पादपीठ पर भाला
जम्बूद्वीप संबंध भरत क्षेत्र के मलय नामक देश में भद्रपुर (भद्दलपुर) नगर के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा दृढ़रथ राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुनन्दा था । माघकृष्ण द्वादशी के दिन माता सुनन्दा ने आरण स्वर्ग के इन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् पुष्पदन्त के मोक्ष चले जाने के बाद नौ करोड़ सागर का अन्तर बीत जाने पर भगवान् शीतलनाथ का जन्म हुआ। उनकी आयु भी इसी में सम्मिलित थी । उनके जन्म लेने के पहले पल्य के चौथाई भाग तक चतुर्विध संघ रूप धर्म संतति का विच्छेद रहा था । भगवान् के शरीर की कान्ति सुवर्ण के समान थी, आयु एक लाख पूर्व की थी और शरीर नब्बे धनुष ऊँचा था । जब आयु के चतुर्थभाग के प्रमाण कुमारकाल व्यतीत हो गया तब उन्होंने अपने पिता का पद प्राप्त कर भली-भाँति प्रजा का पालन किया । भगवान् शीतलनाथ किसी समय वनविहार के लिए गये। वहाँ उन्होंने देखा कि पाले का समूह जो क्षण भर पहले समस्त पदार्थों को ढके हुए था शीघ्र ही नष्ट हो गया है। प्रकृति का यह परिवर्तन देखकर उन्हें आत्मज्ञान हो गया। संसार से विरक्त होकर उन्होंने माघकृष्ण
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बना है, जो इच्छानिरोधी स्वसंयम का सैंधव प्रतीक है। इनके विषय में सचित्र जानकारी अगले पत्र में दूँगी। उससे पहले उन्हें पेपर के रूप में इतिहास कांफ्रेंस में प्रस्तुत करूँगी । पुरातत्त्व हमारी पूज्य मूर्तियों में है, मंदिरों में नहीं, क्योंकि उनका जीर्णोद्धार होता आया है । गुफाओं का जीर्णोद्धार मूल गुफा सहेज सके, उतना श्रेयस्कर है। जब 'बिम्ब' ही क्षरण हो रहे हों, तब उनकी सुरक्षा बावनगजा और देवगढ़ की खंडित मूर्तियों के जीर्णोद्धार की तरह की जाना भी श्रेयस्कर है। हमारे पुराप्रेमियों को चाहिए कि अपनी शक्ति का सदुपयोग बड़े बाबा की जगह गिरनार की मूर्तियों और खण्डगिरि की मूर्तियों की सुरक्षा में करें, कोलुहा के पार्श्वनाथ और केशरिया जी के काले बाबा के लिए करें। वहाँ अपनी उपस्थिति लाखों में दिखलाएँ और जन-जन को उनकी सुरक्षा में प्रेरित करें। बड़े बाबा खंडहर से उबर चुके हैं, अब मंदिर की पूर्णता में तन-मन-धन से संपूर्ण सहयोग करें । व्यर्थ ही अपने पूर्वाग्रह में न धँसे रहें। अपनी गलती को सुधारकर सच्चे जिनभक्त बनें, 'मानभक्त' नहीं ।
'जैन गजट' 9 मार्च 2006 से साभार
भगवान् शीतलनाथ जी
द्वादशी के दिन सायंकाल के समय सहेतुक वन में बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया। पारणा के दिन भगवान् अरिष्ट नगर में प्रविष्ट हुए। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले पुनर्वसु राजा ने उन्हें खीर का आहार देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था के तीन वर्ष बिताकर वे मुनिराज एक दिन बिल्व वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर विराजमान हुए। ध्यान की विशुद्धि बढने से पौषकृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय उन भगवान् ने घातिया कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें एक लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकायें, दो लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे । अनेक देशों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए वे भगवान् सम्मेदशिखर पर पहुँचे। वहाँ एक माह का योग-निरोध कर उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया तथा एक हजार मुनियों के साथ आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन सायंकाल के समय अघातिया कर्मों का क्षयकर मोक्ष प्राप्त किया।
मुनि श्री समता सागरकृत 'शलाका पुरुष' से साभार
-अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित / 15
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