Book Title: Jinabhashita 2006 04 05 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ जाति-मद सम्यक्त्व का बाधक है स्व. बाबू सूरजभान जी वकील .. धर्ममार्ग पर कदम रखने के लिए जैन-शास्त्रों में | धर्म का आश्रय-आधार धर्मात्मा ही होते हैं, धर्मात्माओं के बिना ससे पहले शुद्ध सम्यक्त्व ग्रहण करने की बहुत भारी | धर्म कहीं रह नहीं सकता। और इसलिए धर्मात्माओं के आवश्यकता बतलाई है। जब तक श्रद्धा अर्थात् दृष्टि शुद्ध | तिरस्कार से धर्म का तिरस्कार स्वतः हो जाता है। कुल-मद नहीं है, तब तक सभी प्रकार का धर्माचरण उस उन्मत्त की | वा जाति-मद करने का यह विष-फल धर्म के श्रद्धान में तरह व्यर्थ और निष्फल है, जो इधर-उधर दौड़ता फिरता है | अवश्य ही बट्टा लगाता है, ऐसा श्री समन्तभद्र स्वामी ने और यह निश्चय नहीं कर पाता कि किधर जाना है अथवा | अपने रत्नकरण्डश्रावकाचार के निम्न पद्य नं. 26 में निर्दिष्ट उस हाथी के स्नान-समान है जो नदी में नहाकर आप ही | किया हैअपने ऊपर धूल डाल लेता है। स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गर्विताशयः। सम्यक्त्व को मलिन करने वाले पच्चीस मल-दोषों | सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकैर्विना॥ में आठ प्रकार के मद भी हैं, जिनसे सम्यक्त्व भ्रष्ट होता है, इसी बात को प्रकारान्तर से स्पष्ट करते हए अगले उसे बाधा पहुँचती है। इनमें भी जाति और कुल का मद | श्लोक नं. 27 में बताया है कि जिसके धर्माचरण द्वारा पापों अधिक विशेषता को लिए हुए है। सम्यग्दृष्टि के लिए ये का निरोध हो रहा है, पाप का निरोध करनेवाली सम्यग्दर्शनरूपी दोनों ही बड़े भारी दूषण हैं। मैं एक प्रतिष्ठित कुल का हूँ, | निधि जिसके पास मौजूद है, उसके पास तो सब कुछ है, मेरी जाति ऊँची है, ऐसा घमण्ड करके दूसरों को नीच एवं | उसको अन्य कुलैश्वर्यादि सांसारिक सम्पदाओं की अर्थात् तिरस्कार का पात्र समझना अपने धर्मश्रद्धान को खराब करना । सांसारिक प्रतिष्ठा के कारणों की क्या जरूरत है? वह तो है, ऐसा जैन-शास्त्रों में कथन किया गया है। इस एक धर्म-सम्पत्ति के कारण ही सब कुछ प्राप्त करने में आदिपुराणादि जैन-शास्त्रों के अनुसार चतुर्थ काल में | समर्थ है और बहुत कुछ मान्य तथा पूज्य हो गया है। प्रत्युत जैनी लोग एकमात्र अपनी ही जाति में विवाह नहीं करते थे, | इसके, जिसके पापों का आस्रव बना हुआ है, धर्म का किन्तु ब्राह्मण तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चारों ही वर्ण | श्रद्धान और आचरण न होने के कारण जो नित्य ही पापों का की कन्याओं से विवाह कर लेता था; क्षत्रिय अपने क्षत्रिय | संचय करता रहता है, उसको चाहे जो भी कुलादि सम्पदा वर्ण की, वैश्य की तथा शूद्र की कन्याओं से और वैश्य | प्राप्त हो जाय, वह सब व्यर्थ है। उसका वह पापास्रव उसे अपने वैश्य वर्ण की तथा शूद्र वर्ण की कन्या से भी विवाह | एक-न-एक दिन नष्ट कर देगा और वह कुलादि सम्पदा कर लेता था। बाद को सभी वर्गों में परस्पर विवाह होने लग | उसके दुर्गति-गमनादि को रोक नहीं सकेगी। भावार्थ, जिसने गये थे, जिनकी कथाएँ जैन-शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। इन | सम्यक्त्वपूर्वक धर्म धारण करके पाप का निरोध कर दिया अनेक वर्णों की कन्याओं से जो सन्तान होती थी उसका कुल | है, वह चाहे कैसी ही ऊँची-नीची जाति वा कुल का हो, तो वह समझा जाता था जो पिताका होता था और जाति वह संसार में वह चाहे कैसा भी नीच समझा जाता हो, तो भी मानी जाती थी जो माता की होती थी। इसी कारण शास्त्रों में | उसके पास सब कुछ है और वह धर्मात्माओं के द्वारा मान वंश से सम्बन्ध रखनेवाले दो प्रकार के मद वर्णन किए हैं। | तथा प्रतिष्ठा पाने का पात्र है, तिरस्कार का पात्र नहीं। और अर्थात् यह बतलाया है कि न तो किसी सम्यग्दृष्टि को इस | जिसको धर्म का श्रद्धान नहीं, धर्म पर जिसका आचरण नहीं बात का घमण्ड होना चाहिए कि मैं अमुक ऊँचे कुल का हूँ | और इसलिए जो मिथ्यादृष्टि हुआ निरन्तर ही पाप संचय और न इस बात का कि मैं अमुक ऊँची जाति का हूँ। दूसरे किया करता है, वह चाहे जैसी भी ऊँच से ऊँच जाति का, शब्दों में उसे न तो अपने बाप के ऊँचे कुल का घमण्ड | कुल का अथवा पद का धारक हो, ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, करना चाहिए और न अपनी माता के ऊँचे वंश का। । शुक्ल हो, क्षोत्रिय हो, उपाध्याय हो, सूर्यवंशी हो, चन्द्रवंशी जो घमण्ड करता है वह स्वभाव से दूसरों को नीचा | हो, राजा हो, महाराजा हो, धन्नासेठ हो, धनकुबेर हो, विद्वान् समझता है। घमण्ड के वश होकर किसी साधर्मी भाई को, | | हो, तपस्वी हो, ऋद्धिधारी हो, रूपवान् हो, शक्तिशाली हो, सम्यग्दर्शनादि से युक्त व्यक्ति को, अर्थात् जैन-धर्म-धारी को | और चाहे जो कुछ हो, परन्तु वह कुछ भी नहीं है। पापास्रव नीचा समझना अपने ही धर्म का तिरस्कार करना है। क्योंकि | 22 / अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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