Book Title: Jinabhashita 2006 04 05 06
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ वहाँ से सुरक्षित नए आयतन में विराजे जाने का पक्षधर था। | करके सुरक्षित कर लेगा अथवा खण्डगिरि के पार्श्वनाथ की किंतु 'खर्च' समस्या था। जन-जन ने उसमें योगदान देकर | तरह अंगिया-फरिया पहनवा कर पंडों का आवास बनवा प्रथम सिंहद्वार के निर्माण द्वारा उस पहाड़ी पर विशाल मंदिर | देगा अथवा कोलुहा के पार्श्वनाथ की तरह उन्हें भैरव घोषित के निर्माण और वजन लेने की क्षमता निर्मित की। जिन | करके उन पर बकरों की बलि दिलवाएगा। वोटनीति से व्यक्तियों का मन पूछे न जाने के कारण आहत हुआ, आर्थिक | ग्रसित सरकारें पता नहीं कैसे करवटें बदलेंगी। तपस्वियों के सहयोग की तो बातें दूर, मीनमेख निकालते हुए उन्होंने | तप से बड़े बाबा प्रसन्न हो उठे।और "सपना' साकार पहले तो यही शंका दर्शाई कि जो मूर्ति अपने अतिशय से | हुआ। लाखों भक्तों की पुकार के आगे गिने चुने लोकैषणाग्रस्त पूर्व में स्थान पकड़ कर बैठ गई, वह भला अब कैसे हटेगी | विरोधियों की सारी चालों को नकारती बड़े बाबा की मूर्ति ? कई गंभीर संकट उपजे, किंतु संपूर्ण समाज को संतों की अपने संपूर्ण वैभव के साथ अपने नए आसन पर खुले प्रांगण तपस्या के तेज का पता था। पत्थर के देवता, तीर्थंकर सम में विराजित हो गई। मैंने सुना तो भागकर, जाकर देखा, तपस्वी के आगे भला कैसे हठ रखते ? सब आश्चर्यचकित मुस्कुराते बड़े बाबा अपने आसन पर खुले, बिना किसी थे कि 'वह मूर्ति कैसे अपना स्थान बदलेगी ?' पैसा बरस सहारे के बैठे उसी तप की उद्घोषणा कर रहे हैं, जो उन्होंने रहा था भक्तों की ओर से और मंदिरनिर्माण की सामग्री जुट कर्म युग के आरंभ में की थी। भक्तों का ताँता नहीं टूट रहा रही थी। फिर भी एक विरोधीदल बन गया। प्रथम तो था। दिनरात भक्त उनकी छाँव में बैठे पूजन भक्ति कर रहे "अतिशय के नष्ट होने की दुहाई देता" फिर "मंदिर के | थे। ५८ दीक्षार्थिनियों ने उनके चरणों में दीक्षा ली और उनके पुरातत्त्व की दुहाई देता।" सिंह द्वार बन गया, तो खर्च की | इंगित पथ पर बढ़ गयीं। सातिशयी भगवान् का अतिशय था गई राशि भी बातों का विषय बन गई। कुछ काल बाद | कि कहीं खरोंच भी उन पर न लगी, फिर भी दुराग्रही कानूनन रोक लगाने की धमकी भी पर्चों द्वारा सुनने में आई। अखबारों में भ्रामक प्रचार छाप कर शांत वातावरण में विघ्न उस समय मैं अपने रोग की गंभीरता से जीवन और | डालने की कुटिलता करते रहे। उनका पूर्वाग्रह था कि २५० मौत के बीच जूझ रही थी। मैंने भी इसी भावना से चाहा था | वर्ष प्राचीन पुरातत्त्व को नष्ट कर दिया गया है। अज्ञानियों कि 'बड़े-बाबा' अपने सुरक्षित आयतन में पहुँचकर भक्तों | को २५० वर्ष प्राचीन खण्डहर, सैंधवयुगीन बड़े बाबा के को दर्शन दें। अत: अपनी बीमारी का हवाला देते हुए विरोधियों | पुरातत्त्व से अधिक कीमती लग रहा था। स्वयं को वकील से प्रार्थना की कि वे बाधा न डालकर 'बड़े-बाबा' की और पुरातत्त्वज्ञ समझनेवाले वे यह भी नहीं समझे कि वे सुरक्षा में सहयोग करें, ताकि मंदिर का निर्माण हो। 'बड़े- | कितना गलत और धर्मविरोधी कार्य कर रहे हैं कि जर्जर बाबा' अपना वहाँ नया आसन ले लें और मुझ जैसे मरणासन्न | मंदिर की सुरक्षा चाहते हैं। भक्त उन्हें पूजकर, दर्शन करके उनके अतिशय का लाभ पा सही है एक सीमा तक तो हम अपने पुराने वस्त्र सकें। मैं 'बड़े-बाबा' से भी प्रार्थना करती थी कि "प्रभु | सहेज सकते हैं, सिल सकते हैं, थिगड़े लगा सकते हैं, किंतु अपना अतिशय दिखाओ और उड़कर अपने नए स्थान पर | अंतत: हम नये कपड़े सिलवाते ही हैं। उस जर्जर मंदिर को जा विराजो।" जिसमें ३ बार जीर्णोद्धार हो चुका और जो १३ दरारें सहेजे मैं कुण्डलपुर जाकर गुरुचरणों में रहने लगी। आश्चर्य | जर्जर हो चुका था, धाराशिव गुफाओं की तरह कितना सहेजेंगे। है कि धीरे-धीरे मुझमें ताकत आ गई और मैं सहज ही | हमें नया आयतन बनाना आवश्यक था। कार्य में बाधा 'बड़े-बाबा' के दर्शन करने रोज ऊपर पर्वत पर पैदल जाने डालकर जिस-जिस भी विघ्नकारी ने बड़े बाबा के मंदिर लगी। को बनने से रोका है, जैन कर्मसिद्धांत के अनुसार उसने फिर भी उम्मीदें लगाए ६ वर्ष बीत गए। लगता था | स्वयं के अनेक भवों के लिए छप्पर खोया है। कितने ही कि जाने कब तक हमें प्रतीक्षा करनी होगी कि बड़े बाबा | सल्लेखी उन बड़े-बाबा के चरणों में पहुँचकर अपनी अंतिम अपने उस जर्जर खण्हर से उड़कर बाहर आएँगे। आएँगे भी | | साँसें सार्थक कर रहे हैं। मैंने उनके दर्शन करके स्वयं को कि वहीं धरती में छुप जाएँगे, १५०० वर्ष पूर्व की भाँति। | धन्य पाया। धन्य हैं वे सब, जिन्होंने 'बड़े-बाबा' के इस संभवतः तब पुरातत्त्व विभाग उन्हें किन्हीं तालिबानी पंडों | पूर्व-ऋग्वैदिक पुरालिपि अंकित बिंब की सुरक्षार्थ नया को सौंप गिरनार की भाँति जैनों से छीन दत्तात्रेय घोषित | आयतन बनाकर, बनवाकर, अनुमोदना कर हमारी इस 14/अप्रैल, मई, जून 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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