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शब्दों में परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना हमारा परम कर्त्तव्य है । परमात्माका ध्यान, परमात्मा के अलौकिक चरित्रका विचार और परमात्माकी ध्यानावस्थाका चिन्तवन ही हमको अपनी आत्माकी याद दिलाता है - अपनी भूली हुई निधिस्मृति कराता है परमात्माका भजन और स्नवन ही हमारे लिये अपनी आत्माका अनुभवन है । आत्मोन्ननिमे अग्रसर होनेके लिये परमात्मा ही हमारा आदर्श है । आत्मीय गुणोंकी प्राप्तिके लिये हम उसी आदर्शको अपने सन्मुख रखकर अपने चरित्रका गठन करते है । अपने आदर्शपुरुषके गुणों भक्ति और अनुरागका होना स्वाभाविक और जरूरी है | बिना अनुरागके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं हो सकती । जो जिस गुणका आदर सत्कार करता है अथवा जिस गुणसे प्रम रखता है; वह उस गुणगुणीका भी अवश्य आदरसत्कार करता है और उससे प्रेम रखता हैं। क्योंकि गुणीके आश्रय विना कहीं भी गुण नहीं होता । आदरसत्काररूप प्रवर्त्तनका नाम ही पूजन है । इस लिये परमात्मा, इन्हीं समस्त कारणोंसे हमारा परमपूज्य उपास्य देव है और द्रव्यदृष्टिसे समस्त आत्माओंके परस्पर समान होनेके कारण वह परमात्मा सभी संसारी जीवोंको समान भावसे पूज्य है । यही कारण है कि परमात्मा के त्रैलोक्यपूज्य और जगत्पूज्य इत्यादि नाम भी कहे जाते है परमात्माका पूजन करने, परमात्मा के गुणोंमे अनुराग बढाने और परमामाका भजन और चिन्तवन करनेसे इस जीवान्साको पापोंसे बचने के साथ साथ महत्पुण्योपार्जन होता है । जो जीव परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना नहीं करता, वह अपने आत्मीय गुणों से पराङ्मुख और अपने
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१ इन्हीं कारण से अन्य वीतरागी साधु और महात्मा भी जिनमें आत्माकी कुछ शक्तिया विकसित हुई है और जिन्होंने अपने उपदेश, आचरण और शास्त्रनिर्माणसे हमारा उपकार किया है, वे सब हमारे पूज्य है 1