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कुछ थोड़ा बहुत ज्ञानादि लाभ होता है, यह जीव उत्तनेहीमे सन्तुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप समझने लगता है । इन्हीं संसारी जीवोंमसे जो जीव, अपनी आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके सदृश प्रशस्त ध्यानाऽग्निके बलस, इस समस्त कर्ममलको दूर कर देता है, उसमें आत्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियों सर्वतोभावसे विकसित हो जाती है और नब वह आत्मा म्वच्छ और निर्मल होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है नथा परमात्मा कहलाता है । केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की प्राप्ति होने के पश्चात जबतक देहका सम्बन्ध वाक़ी रहता है, तबतक उस परमात्माको सकलपरमात्मा (जीवन्मुक्त) या अरहंत कहते हैं और जब देहका सम्बन्ध भी छूट जाता है और मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है तब वही सकल परमात्मा निकलपरमात्मा (विटहमुक्त) या सिद्ध नामसे विभूपित होता है । इस प्रकार अवस्था दसे परमात्माके दो भेद कहे जाते है । वह परमात्मा अपनी जीवन्मुनावम्याम अपनी दिव्यवाणीके द्वारा संसारी जीवोंको उनकी आमाका म्वरूप और जम्मकी प्राप्तिका उपाय बनलाता है अर्थात उनकी आत्मनिधि क्या है, कहां है, किम किस प्रकारके कर्मपटलोंसे आच्छादित है, किस किस उपायस वे कर्मपटल इस आत्मासे जुदा हो सकते है, संसारक अन्य समम्त पदार्थोस इस आत्माका क्या सम्बन्ध है, दुःखका, मुग्वका और मंसारका म्वरूप क्या है, कैसे दुःखकी निवृत्ति और मुम्बकी प्रापि हो सकती है-इत्यादि समम्न बातोंका विस्नारके माध सम्यकप्रकार निरूपण करता है, जिसस अनादि अविद्याग्रसित संसारी जीवोको अपने कल्याणका मार्ग सूझता है और अपना हित साधन करनेम उनकी प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार परमात्माके द्वारा जगतका नि सीम उपकार होता है । इसी कारण परमात्माके सार्व, परमहितोपदेशक, परमहितैपी और निर्निमित्तवन्धु इत्यादि भी नाम हैं । इस महोपकारके बदलेम हम ( मंसारी जीव) परमात्माके प्रति जितना आदर सत्कार प्रदर्शित कर और जो कुछ भी कृतज्ञता प्रगट करें वह सब तुच्छ है । दृसरे जब आत्माकी परम स्वच्छ और निर्मल अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्थाको प्राप्त करना अर्थात् परमात्मा बनना सब आत्माओंका अभीष्ट है, तब आत्मस्वरूपकी या दूसरे