Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जनेन्द्र-व्याकरणम् १-तनोतेर्डउः सन्वच्च । पृष्ठ ३ ।
५-अण्डो जुकृसृवृङः । पृष्ठ ३१६ । २- अस् सर्वधुभ्यः । पृष्ठ १७ ।
६-गमेरिन् । पृष्ट ११६ । ३-कृवापाजिमिस्वदिसाध्यशूभ्य उण । पृष्ठ ११८ । ७-आङि णित् । पृष्ठ ११६ ।
४-वृतवदिहनिकमिकषिभ्यः सः । पृष्ठ ११८ । -भुवश्च । पृष्ठ ११६ ।
जैनेन्द्र उणादि सूत्रोंका आधार-जिस प्रकार आचार्य पूज्यपादने अपने शब्दानुशासनके प्रवचनमें पाणिनीय शब्दानुशासनका प्रधान आश्रय लिया, उसी प्रकार उणादि सूत्रोंके प्रवचनमें भी निश्चय ही किसी प्राचीन उणादिको मुख्य आधार बनाया होगा । जैनेन्द्र उणादि पाठके उपलब्ध न होनेसे यद्यपि हम निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते कि आचार्यने किस प्राचीन उणादि पाठको मुख्यता दी, पुनरपि हमारा अनुमान इस प्रकार है
पाणिनीय सम्प्रदायसे संबद्ध मुख्यतया दो प्रकारके उणादि पाठ उपलब्ध होते हैं। एक है पञ्चपादी और दूसरा दशपादी । पञ्चपादी-पाठ भी रामायण महाभारत आदि ग्रन्थोंके समान अनेक शाखाओंमें विभक्त है । एक है औत्तर पाठ, दूसरा पश्चिमोत्तर, तीसरा दाक्षिणात्य | उज्ज्वलदत्त तथा तदाश्रित भट्टोजिदीक्षित
आदिकी वृत्तियाँ औत्तरपाठ पर हैं [ उज्ज्वलदत्त वंगीय था, अतः इसे वाङ्ग पाठ भी कह सकते हैं ] | श्वेतवनवासी तथा नारायणकी वृत्ति दाक्षिणात्य पाठ पर हैं। क्षीरस्वामी अपनी क्षीरतरङ्गिणी में पश्चिमोत्तर पाठको उद्धृत करता है [ इसे काश्मीर पाठ कह सकते हैं ] । दशपादी पाठ पञ्चपादीके सम्भवतः पश्चिमोत्तर पाठके
आधार पर रचा गया है। पञ्चवादी पाठका भी मूल कोई त्रिपादी पाठ प्रतीत होता है। उणादिके ये सभी पाठ प्राचार्य पूज्यपादसे प्राचीन हैं । अभयनन्दीने ११११७५ सूत्रकी वृत्ति में एक जैनेन्द्र उणादि सूत्र उद्धृत किया है-"अस् सर्वधुभ्यः”। पञ्चपादीका श्रौत्तरपाठ-सर्वधातुभ्योऽसुन् । [ उज्ज्वल० ४।१८८]
दाक्षिणात्य पाठ-असुन् [श्वेत० ४।१६४ ]
पश्चिमोत्तर पाठ-असुन् [दौरतरङ्गिणी पृष्ठ ९३ पं० १६] दशपादीका पाठ असुन् [९/४९] इन सब सूत्रों की तुलनासे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र उणादि पाठका मुख्य उपजीव्य श्रोत्तर पाठ है जिसमें जैनेन्द्र के 'सर्वधभ्यः' समान 'सर्वधातुभ्यः' पद विद्यमान है। अन्यपाठों में 'सर्वधातुभ्यः' पद है ही नहीं
उणादि सूत्र व्याख्या-श्राचार्य देवनन्दी कृत उणादि सूत्र व्याख्याका हमें कोई साक्षात् प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ, परन्तु जिस प्रकार प्राचार्यने अपने धातुपाठकी तथा लिङ्गानुशासनकी व्याख्या की उसी प्रकार उणादिकी व्याख्या भी अवश्य रची होगी।
१. महावृत्तिका मुद्रित पाठ है-'अण्डः । जुकृसृङः'। यह अशुद्ध है। तुलना करो'अण्डन् कृसृभृवृजः [पञ्चपादी उ०१।११८॥ द० उ० ५। ॥] सूत्र से।
२. हमने इसका अनेक हस्तलेखोंके आधारपर सम्पादन किया है । सरस्वती भवन ग्रन्थमाला काशीसे [ १६४२ में ] यह प्रकाशित हुआ है।
३. हमने दशपादी-उणादिके उपोद्धातमें दोनों पाठों तथा इनकी वृत्तियोंका संक्षिप्त इतिहास १६४२ में लिखा था। उस समय पञ्चपादीके इतने विभिन्न पाठका बोध हमें नहीं था। उणादि सूत्र और उनकी व्याख्यानोंका विस्तृत इतिहास हम अपने सं० व्या० शास्त्रका इतिहासके दूसरे भागमें लिखेंगे।
१. चीरतरङ्गिणीके सम्पादनके प्रारम्भमें हमें इसका ज्ञान नहीं था, अतः हमने वहाँ दशपादीके पते दिये हैं।
५. लिङ्गानुशासनकी व्याख्याका वर्णन श्रागे करेंगे।
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