Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जैनेन्द्र-शब्दानुशासन और उसके खिलपाठ ली थी। तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १० सूत्र ४ की सर्वार्थसिद्धि टीकामें श्राचार्य पूज्यपादने पञ्चमी विभक्ति के लिए स्वनिर्मित 'का' संज्ञाका निर्देश किया है । इससे भी उक्त तथ्यको पुष्टि होती है [ सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना पृ० ५१]
जैनेन्द्र शब्दानुशासानके खिल पाठ वैयाकरण वाङ्मयमै शब्दानुशासन पद केवल सूत्रपाठके लिए प्रयुक्त होता है । सूत्रपाठको लघु बनानेके लिए उससे सम्बद्ध विस्तृत विषयोंको सूत्रकार जिन ग्रन्थों में संग्रहीत करते हैं वे शब्दानुशासनके खिल अथवा परिशिष्ट कहाते हैं । प्रायः प्रत्येक शब्दानुशासनके धातुपाठ, गणपाठ, उणादि और लिङ्गानुशासन ये चार खिल होते हैं। इन्हें मिलाकर व्याकरणकी पञ्चपाठी बनती है। जैनेन्द्र व्याकरण के भी ये चार खिल थे [ उणादि और लिङ्गानुशासन उपलब्ध नहीं हैं ] ।
धातुपाठ-प्राचार्य देवनन्दी प्रोक्त धातुपाठका मूल ग्रन्थ हमारे देखने में नहीं आया । गुणनन्दी प्रोक्त शब्दार्णव व्याकरण [ जैनेन्द्रका परिवर्धित संस्करण ] का चन्द्रिका टोकासहित जो संस्करण काशीसे छपा है, उसके अन्तमें जैनेन्द्र धातुपाठ भी मुद्रित है । वह धातुपाठ जिनेन्द्र [ पूज्यपाद ] प्रोक्त मूल रूपमें है अथवा शब्दार्णवके समान परिवर्धित है, यह हम नहीं कह सकते । अभयनन्दीकी महावृत्ति में जैनेन्द्र धातुपाठके अनेक सूत्र' उद्धृत है उनकी मुद्रित जैनेन्द्र धातुपाठकी तुलनासे कुछ परिणाम निकाला जा सकता है। परन्तु सम्प्रति मेरे पास मुद्रित जैनेन्द्र धातुपाठ नहीं है । अतः मैं इसके निर्णयमें इस समय असमर्थ हूँ।
मैं इसी वर्ष ६ अगस्तको काशीमें भारतीय ज्ञानपीठके व्यवस्थापक तथा महवृत्तिके सम्पादक महोदयोंसे मिला था [ यह मेर। प्रथम मिलन था] और उन्हें ग्रन्थके अन्तमैं जैनेन्द्र धातुपाठ छापनेका सुझाव दिया था। दोनों महानुभावोंने बड़ी सहृदयतासे मेरे सुझावको स्वीकार किया और वह इस ग्रन्थ के अन्त में दिया जा रहा है [अभी छपा मेरे पास नहीं पहुँचा] ।
धातपारायण-आचार्य हेमचन्द्रने स्वीय लिङ्गानुशासनके स्वोपज्ञ विवरणमें पृष्ठ १३२ पं० २० पर नन्दिधातुपारायण तथा पृष्ठ १३३ पं० २३ पर नन्दिपारायण उद्धृत किया है । इस नामके साथ धातुपारायण नामकी तुलनासे प्रतीत होता है कि यह प्राचार्य देवनन्दीका अपने धातुपाठ पर स्वोपज्ञ विवरण रहा होगा। .
गणपाठ-जैनेन्द्र गणपाठ अभयनन्दीकी महावृत्तिमें यथास्थान सन्निविष्ट है, पृथक् छपा नहीं मिलता।
उणादिसूत्र-जैनेन्द्र उणादि सूत्रका कोई हस्तलेख अभी तक हमारी दृष्टि में नहीं आया। महावृत्तिके सम्पादकजीसे भी इसके विषयमें पूछा था। उन्होंने २६ ।। ५६ के पत्र में लिखा-"उणादि सूत्र तथा परिभाषाओंका भी संकलन कहीं नहीं उपलब्ध हो सका। लिङ्गानुशासन भी जैनेन्द्रका अनुप
अभयनन्दीको महावृत्तिमें अनेक उणादि सूत्र उद्धृत हैं। कुछ प्राचीन पञ्चपादीसे पूर्णतया मिलते हैं, कछमें पाठान्तर है। अनेक सूत्र ऐसे भी हैं जिनमें प्रत्यक्ष जैनेन्द्र संज्ञाओंका प्रयोग हुआ है। इसलिए यह निश्चित है कि जैनेन्द्र प्रोक्त उणादि सूत्र भी थे। उदाहरणके लिए हम कुछ सूत्र उद्धृत करते हैं । यथा
१. काशिका १।३।२ में खिल शब्द इसी अर्थमें प्रयुक्त है।
२. प्राचीन परम्परानुसार 'भू सत्तायाम्' एध वृद्धौं' श्रादि वाक्य सूत्र माने जाते हैं। दृष्टव्य-अस्मत्संपादित क्षीरतरङ्गिणी, पृष्ठ १, टि. २ ।
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