Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जैनेन्द्र-व्याकरणम् 'पुल्लिंगनिर्देशः किमर्थः' यह शंका तथा उसका समाधान उत्पन्न हो सकता है। पुल्लिंग निर्देश [ करणः ] होनेपर अनवकाश संप्रदान संज्ञासे भी करण संज्ञाकी बाधा नहीं होगी और 'शतेन परिक्रीतः' प्रयोग भी उपपन्न हो जायगा।
जैनेन्द्र में एक विवेचनीय स्थल-जैनेन्द्र व्याकरण लौकिक भाषाका व्याकरण है। इसलिए उसमें स्वर और वैदिक प्रक्रियाका अंश छोड़ दिया है। प्रथमाध्यायके प्रथम पादमें श्राचार्यने तीन सूत्र पढ़े हैं-कौवैती, उमः, ऊम् [२४-२६] [यहाँ शुद्ध पाठ 'ॐ' चाहिए] इन सूत्रोंके पाठ तथा इनकी वृत्तिसे प्रतीत होता है कि इनका प्रयोग विषय लोकभाषा है। परन्तु इनका वास्तविक प्रतिपाद्य विषय वैदिक [पदपाठ है। यह बात पाणिनिके 'संबुद्धौ शाकल्यस्येतावना, उजः ॐ' [१।१६-१७] सूत्रोंसे स्पष्ट है। पाणिनिने प्रथम सूत्रमें वैदिक सम्प्रदायके पारिभाषिक 'अनार्ष इति' का निर्देश किया है इसकी अनुवृत्ति अगले सूत्र में भी जाती है । पदकारों द्वारा पदपाठमें प्रगृह्य आदि संज्ञाका निदर्शन कराने के लिए. मन्त्रसे बहिर्भूत जिस 'इति' शब्दका प्रयोग किया जाता है वह अनार्ष इतिकरण कहाता है। इसीको उपस्थित भी कहते हैं। इस शब्दका व्यवहार भी पाणिनिने ६।१।१२६ में किया है। ये संज्ञाएँ प्रातिशाख्यग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं। पदपाठमैं अनाप इतिकरणका प्रयोग कहाँ करना चाहिए इसका प्रतिपादन प्रातिशाख्यों में विस्तारसे किया है। ऋग्वेदके पदपाटमैं शाकल्यने प्रगृह्य संज्ञक [जैनेन्द्रके अनुसार 'दि' संज्ञक] पदसे परे सर्वत्र इति शब्दका प्रयोग किया है । यथाअग्नि इति [ऋ० ५।४५४], मेथेते इति [अ० १।११३॥३] युष्मे इति [ऋ० ४।१०८], वायो इति [ऋ० १२।१], ॐ इति [अ० ११२४॥८, गौरी इति [ऋ० ६।१२।३] । पाणिनिने शाकल्यके मतका अनुवाद अपने शास्त्र में किया है। इससे स्पष्ट है कि जैनेन्द्र के उक्त सूत्रों-द्वारा प्रतिपाद्य विषय भी वैदिक नियमों के अन्र्तगत आता है । इसलिए, आचार्यको चाहिए था कि उसने जैसे पाणिनिके "शे" [२॥१॥१३] और "इदूतौ च सप्तमी" [१1१1१८] सूत्रों के प्रतिपाद्य विषयके लिए सूत्र रचना नहीं की, वैसे ही इनका भी समावेश न करता। समावेश करनेसे विदित होता है कि प्राचार्थने इन सूत्रोंके प्रतिपाद्य विषयको लौकिक समझा है। परन्तु लोक्में वाया इति ॐ इति ऐसे प्रयोग उपलब्ध नहीं हैं।
भूलका कारण-इस भूलका कारण भगवान् पतञ्जलिकी पाणिनीय उमः ॐ [१५। १७1 सूत्र की व्याख्या है। पतञ्जलिने शाकल्य ग्रहणको विकल्पार्थ मानकर और उमः ॐका योग-विभाग करके 'वायो इति वायविति, वाय इति, ऊं इति उ इति विति' इतने काल्पनिक रूप बनाये हैं। पतञ्जलिने भी पारिभाषिक 'अनार्ष इति' को 'लौकिक इति' मान लिया, ऐसा प्रतीत होता है, परंतु है यह समस्त प्राचीन वैदिक साम्प्रदायके विपरीत। इस विषयमें भाष्यकार पतञ्जलिका अनुकरण करनेसे ही जैनेन्द्र में यह भूल हई प्रतीत होती है।
जैनेन्द्र के सम्बन्धमें एक भ्रम-जैनेन्द्र शब्दानुशासनके सम्बन्धमैं भ्रम है कि जैनेन्द्र ही प्रथम व्याकरण है जिसमें एकशेष प्रकरण नहीं है। इसका कारण महावृत्तिमै निर्दिष्टि 'देवोपज्ञमनेकशेष व्याकरणम् [ ११४६७ ] उदाहरण है। हमने सं० व्या० शास्त्रका इतिहास'मैं [ पृष्ठ ४२४ ] इस भ्रमका निराकरण किया है । जैनेन्द्रसे प्राचीन चान्द्रमैं भी एकशेष प्रकरण नहीं है।
सर्वार्थसिद्धि और जैनेन्द्र शब्दानुशासनका पौर्वापर्य-प्राचार्य पूज्यपादने तत्त्वार्थ सूत्रकी सर्वार्थसिद्धि नामक व्याख्यामें कहीं पाणिनीय शब्दानुशासनके और कहीं स्वरचित शब्दानुशासनके सूत्र यत्र तत्र उदधृत किये हैं। इससे विदित होता है कि जैनेन्द्र शब्दानुशासनकी रचना आचार्य ने सर्वार्थ सिद्धिके पूर्व ही कर
१. इसकी विशद विवेचनाके लिए देखो हमारे द्वारा सम्पादित 'अष्टाध्यायीप्रकाशिका' का 'उमः ऊं[१।१ । १७ ] सूत्र ।
For Private And Personal Use Only