Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जैनेन्द्र-व्याकरणम्
मर
और उसका मथुरा-विजय-जैनेन्द्र में स्मृत महेन्द्र गुप्तवंशीय कुमारगुप्त है। इसका पूरा नाम महेन्द्रकुमार है। जैनेन्द्र के 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं वक्तव्यम्' [४।१।१३६] वार्तिक अथवा 'पदेषु पदैकदेशान' नियमके अनुसार उसीको महेन्द्र अथवा कुमार कहते थे। उसके सिक्कोंपर श्री महेन्द्र, महेन्द्रसिंह, महेन्द्रवर्मा, महेन्द्रकुमार श्रादि कई नाम उपलब्ध होते हैं।'
तिब्बतीय ग्रन्थ चन्द्रगर्भ सूत्र में लिखा है-"यवनों पल्हिको शकुनों [कुशनों ने मिलकर तीन लाख सेनासे महेन्द्र के राज्यपर आक्रमण किया । गङ्गाके उत्तरप्रदेश जीत लिये। महेन्द्रसेनके युवा कुमारने दो लाख सेना लेकर उनपर अाक्रमण किया और विजय प्राप्त की । लौटनेपर पिताने उसका अभिषेक कर दिया ।
चन्द्रगर्भ सूत्रका महेन्द्र निश्चय ही महाराज कुमारगुप्त है और उसका युवराज स्कन्दगुप्त । मञ्जु श्री मूलकल्प श्लोक ६४६ में श्री महेन्द्र और उसके सकारादि पुत्र [स्कन्दगुत] को स्मरण किया है।
चन्द्रगर्भ-सूत्रमै लिखित घटनाकी जैनेन्द्र के उदाहरणमें उल्लिखित घटनाके साथ तुलना करनेपर स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्रके उदाहरणमैं इसी महत्त्वपूर्ण घटनाका संकेत है। उक्त उदाहरणसे यह भी विदित होता है कि विदेशी आकान्ताोंने गङ्गाके आस पासका प्रदेश जीतकर मथुराको अपना केन्द्र बनाया था। इस कारण महेन्द्रकी सेनाने मथुराका ही घेरा डाला था।
महाभाष्य, शाकटायन तथा सिद्ध हैम ब्याकरणों में निर्दिष्ट उदाहरणोंके प्रकाशमें यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचार्य पूज्यपाद गुप्तवंशीय महाराजाधिराज कुमारगुप्त अपर नाम महेन्द्र कुमारके समकालिक हैं। पाश्चात्यमतानुसार कुमारगुप्तका काल वि० सं० ४७०-५१२ [=४१३-४५५ ई० तक था। अतः पूज्यपादका काल अधिक से अधिक विक्रमकी ५ वीं शतीके चतुर्थ चरणसे षष्ठ शताब्दीके प्रथम चरण तक माना जा सकता है, इसके पश्चात् नहीं। भारतीय ऐतिहासिक काल-गणनानुसार गुप्तकाल इससे कुछ शताब्दी पूर्व ठहरता है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र के 'अरुणन्महेन्दो मथुराम्' उदाहरणमें महेन्द्रको मेनेन्द्र= मिनण्डर समझना भारी भ्रम है।।
_ जैनेन्द्र शब्दानुशासन अब हम जैनेन्द्र व्याकरणके सम्बन्ध में संक्षेपसे लिखते हैं
जैनेन्द्र शब्दानुशासनका परिमाण-जैनेन्द्र शब्दानुशासनमें ५ अध्याय, २० पाद और ३०६७ सूत्र प्रत्याहार सूत्रोंके बिना] हैं।
जैनेन्द्रका प्रधान उपजीव्य ग्रन्थ-आचार्य पूज्यपादके समय निश्चय ही पाणिनीय और चान्द्र शब्दानुशासन विद्यमान थे। पूज्यपादने अपने शब्दानुशासन की रचना पाणिनीय शब्दानुशासन के अाधार पर की है, यह पाणिनीय चान्द्र तथा जैनेन्द्र शब्दानुशासनों को सूत्र-रचना और प्रकरण विन्यासकी तुलनासे स्पष्ट हैं। कहीं-कहीं ऐसा भी प्रतीत होता है कि पूज्यपादने चान्द्र शब्दानुशासनसे भी कुछ सहायता ली है।
जैनेन्द्र में प्रत्याहार सूत्रोंका सद्भाव-अभयनन्दीकी महावृत्तिके साथ 'अ इ उ ण' आदि प्रत्याहार सूत्र उपलब्ध नहीं होते, परन्तु जैनेन्द्र शब्दानुशासनके मूल पाठमें ये अवश्य विद्यमान थे। इसमें निम्न हेतु हैं।
क-जैनेन्द्र सूत्रपाठमैं जहाँ अनेक वर्णों का निर्देश करना होता है, वहाँ संक्षेपार्थ पाणिनीय अनुशासन के समान प्रत्याहारोंका प्रयोग किया है । यथा-अच् [१ । १ । ५६], इक् [१ । १ । १७], यण [१।१।४५],
1. श्री पं० भगवदत्तजी कृत भारतवर्ष का इतिहास [सं० २००३], पृष्ठ ३५४ । २. वही, पृष्ट ३५४ । ३. महेन्द्रनृपवरो मुख्यः सकारायो मतः परम् । ४. जैनेन्द्र और पाणिनीय सूत्रोंकी तुलनात्मक सूची इस प्रन्थके अन्तमें छपी है।
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