Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् १. अभयनन्दी जैनेन्द्र १।४।१६ की वृत्तिमें एक उदाहरण देता है-'उपसिद्धसेनं वैयाकरणाः' अर्थात् सब वैयाकरण सिद्धसेनसे हीन हैं ।
इस उदाहरणसे स्पष्ट है कि अभयनन्दी प्राचार्य सिद्धसेनको न केवल वैयाकरण ही मानता है, अपितु उस कालतक प्रसिद्ध वैयाकरणों में उसे सर्वश्रेष्ठ कहता है।
जैनेन्द्र व्याकरण आचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दीने जिस शब्दानुशासनका प्रवचन किया वह लोकमें जैनेन्द्रनामले विख्यात है।
इस शब्दानुशासनका जैनेन्द्र नाम क्यों पड़ा, आचार्य पूज्यपादका काल कौन सा है, जैनेन्द्र व्याकरण का मूल सूत्रपाठ कौन सा है, इसपर कितने व्याख्या ग्रन्थ लिखे गये और आचार्य पूज्यपादने जैनेन्द्र व्याकरणके अतिरिक्त और कितने ग्रन्थ लिखे इत्यादि विषयोंपर हम यहाँ विशेष चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि इन विषयोंपर माननीय श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थमै विस्तारसे लिखा है [यही अंश पुनः परिष्कृत करके इस ग्रन्थके आदिमें पृष्ठ१७-३७ तक छपा है]। पश्चात् हमने भी अपने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्रका इतिहास' ग्रन्थ में विस्तारसे विवेचना की है' [ हमने श्री प्रेमीजीके ग्रन्थसे पर्याप्त सामग्री ली है ]। इसलिए हम यहाँ केवल उतना ही अंश लिखेंगे, जो उक्त दोनों लेखोंके पश्चात् परिज्ञात हुआ है।
जैनेन्द्र नामका कारण इस शब्दानुशासनको सर्वत्र जैनेन्द्र नामसे स्मरण किया है। इसके नामकरणके सम्बन्धमै श्री प्रेमीजीने जैनग्रन्थोंसे जो कथाएँ उद्धृत की हैं, वे प्रायः ऐतिहासिक तत्त्वरहित है । श्री प्रेमी जी भी उक्त कथाओंसे सन्तुष्ट नहीं हैं। हमारे विचारमें इस नामकरणका निम्न कारण है
आचार्य देवनन्दीका एक नाम जिनेन्द्रबुद्धि भी था. जैसा कि श्रवणबेल्गोलके ४०वे शिलालेखमें लिखा है
यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्धया महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः ॥२॥
श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभियंत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ॥३॥ अर्थात्--आचार्यका प्रथम नाम देवनन्दी था, बुद्धि की महत्ताके कारण वह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवोंने उनके चरणों की पूजा की, इस कारण उनका नाम पूज्यपाद हुआ।
जिस प्रकार 'पदेषु पदैकदेशान् नियम अथवा 'विनापि निमित्तं पूर्वोत्तरपदयोर्वा खं वक्तव्यम्' [४।१।१३६] वार्तिकके अनुसार प्राचीन ग्रन्थकार देव अथवा नन्दी नामसे देवनन्दीको स्मरण करते हैं, उसी प्रकार जिनेन्द्र एक देश भी जिनेन्द्रबुद्धि अपरनाम देवनन्दीका वाचक है। अतः 'जैनेन्द्र' की व्युत्पत्ति होगीजिनेन्द्रेण प्रोक्तं जैनेन्द्रम् । अर्थात् जिनेन्द्र जिनेन्द्रबुद्धि=देवनन्दी द्वारा प्रोक्त व्याकरण ।
आचार्य देवनन्दीका काल और उसका निश्चायक नूतन प्रमाण-प्राचार्य देवनन्दीके कालके विषयमें ऐतिहासिकोंका परस्पर वैमत्य है। यथा
१-कीथ अपने 'हिस्ट्री श्राफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर' में लिखता है___The जैनेन्द्र व्याकरण ascribed to the Jinendra realy written by पूज्यपाद देवनन्दी perhaps was Composed C. 678. P. 432.
१. देखो पृष्ठ ३२३-३२८ तथा ४२१-४३१ ।
२. जिनसेन तथा वादिराज सूरि 'देव' नामसे स्मरण करते हैं। देखो श्री प्रेमीजीका लेख, यही ग्रन्थ, पृष्ठ १६, टि० ३,४।
३. इसके उद्धरण आगे लिङ्गानुशासनके प्रकरण में देंगे ।
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