Book Title: Jainacharya Pratibodhit Gotra evam Jatiyan Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta Publisher: Jinharisagarsuri Gyan Bhandar View full book textPage 6
________________ १३३७, दीक्षा १३४७, आचार्यपद १३७७ और स्वर्गवास सं० १३८९ में देरावर में हुआ । उनके गुरु कलिकाल केवली श्री जिनचंद्रसूरि ने भी अच्छी शासन प्रभावना की। श्री जिनकुशलसूरिजी के समय में ही लघुखरतर शाखा में श्री जिनप्रभसूरिजी+ हुए जिन्होंने महमद तुगलक बादशाह को बहुत प्रभावित किया था । इसी परम्परा में पन्द्रहवीं सती में श्री जिनभद्रसूरि हुए, जिन्होंने जैसलमेर आदि सात स्थानों में ज्ञानभण्डार स्थापित किए । सोलहवीं शताब्दी में जिनहंस सूरिजी हुए, जिन्होंने सिकदर बादशाह को चमत्कार दिखाया था । बीकानेर में उन्होंने आचारांगसूत्र की दीपिका टीका सं० १५७३ में बनायी। उनके पट्टधर श्री जिनमाणिक्यसूरि के पट्टपर अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचंद्रसूरि हुए, जो कि 'चौथे दादाजी' के नामसे प्रसिद्ध हैं । खरतर गच्छ का इतिहास बड़ा उज्वल रहा है। इस गच्छ के अनेक आचार्यो, विद्वानों, श्रावकों ने जैन शासन की महान् सेवाएं की है। उपर्युक्त आचार्य परम्परा की विशेष जानकारी के लिए 'खरतर गच्छ इतिहास __+ जिनप्रभसूरि लघु खरतर शाखा में हुए । उनकी शाखा की विस्तृत पट्टावली प्राप्त नहीं है अतः श्री जिनप्रभसूरिजी ने किस जाति व गोत्रों को प्रतिबोधित किया उसका विशेष वृतान्त नहीं मिलता । परन्तु जांगल-राजस्थान के खंडेलवाल गोत्रीय शिवभक्त जो गुड खांड का व्यापार करते थे और मदिरा का व्यापार करने लगे, उन्हें प्रतिबोध देकर सं० १३४४ में जैन बनाया । ‘खंडेलपुरे नयरे तेररस चउत्तारे जंगलया सिवभत्ता टविया जिणसासणे धम्मे ॥' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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