Book Title: Jainacharya Pratibodhit Gotra evam Jatiyan
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Jinharisagarsuri Gyan Bhandar

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Page 41
________________ ३० बोध पाकर पच्चीस खीचियों के साथ जैन हो गया । सूरिजी ने 'धाड़ीवाहा' गोत्र स्थापना की । सिद्धराज ने उसे अपना सेनापति बना लिया और ४८ गाँव दिये । डीडाजी के पुत्र से 'कोठारी' शाखा निकली उसकी छुट्टी पीढी में सांवलजी से 'टांटिया' शाखा प्रसिद्ध हुई । लालाणी, बांठिया, ब्रह्ममेचा मल्लावत हरखावत, साहजी 9 सं० १९६७ में श्री जिनवल्लभसूरिजी रणथंभोर पधारे। उस समय वहाँ लालसिंह नामक पमार क्षत्रिय राजा था, जिसके सात पुत्रों में ब्रह्मदेव जलोदर रोगग्रस्त था । गुरु महाराज की कृपा से पुत्र निरोग हो गया और उपकृत राजाने जैन धर्म स्वीकर किया । उसके वंशज लालाणी कहलाये । बंठदेव योद्धा से बांठिया, ब्रह्मदेव से ब्रह्ममेचा, मल्ल से मल्लावत, हरखचंद से हरखावत हुए उदयसिंह के साहजी कहलायें । भणसाली, खरभणसाली, चंडालिया, कच्छवा रायभूरा पुगलिया आभूदुर्ग में श्री जिनवल्लभसूरिजी पधारे वहाँ के सोलंकी राजा आनड़देव के संतान जीवित नहीं रहती थी । गुरुदेव के प्रताप आशीर्वाद से सात रानियों के सात पुत्र हुए । राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया । भाण्डशाला में सम्यक्त्व ग्रहण करने से भणशाली गोत्र प्रसिद्ध हुवा | श्री जिनदत्तसूरिजी के लिए जीवितव्य अर्पण करने वाले गुरु भक्त खर भणशाली कहलाये । चन्डालिया, कच्छावा, राय भूरा, पुगलिया आदि उसी भणशाली वंश की शाखाएं है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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