Book Title: Jainacharya Pratibodhit Gotra evam Jatiyan
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Jinharisagarsuri Gyan Bhandar
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धिकारियों को पहले मारा था । अतः उस पर शाही सेना चढ़ाई करके आई । डूंगरसिंह गुरु महाराज के शरण में आया । सूरिजी ने सोये हुए बादशाह को शय्या सहित वीर के द्वारा अपने पास मंगाकर वचन ले लिया कि वह इसका किसी भी प्रकार से बिगाड नहीं करेगा । बादशाह को वापस स्वस्थान छोड दिया । गुरुदेव के उपकार से कृतज्ञ डूंगरसिंह सकुटुंब जैन श्रावक हो गया । डूंगरसिंह से 'डागा' गोत्र प्रसिद्ध हुआ । श्री जिनकुशलसूरिजी ने इस प्रकार और भी बहुतों को प्रतिबोध कर श्रावक किया । उनके द्वारा पचास हजार जैन बनाने की प्रसिद्धि है ।
गेलडा
एकबार आचार्य श्रीजिनहंससूरिजी महाराज खजवाणा पधारे। वहाँ के खीची गहलोत गिरधरसिंह के पास प्रचुर धन था पर दान और भोग में सारा धन उड़ाकर विपन्न हो गया । उसने सूरिजी के पास आकर अपनी दुखगाथा सुनायी । गुरु महाराज ने कहा- यदि तुम जैन बनो तो पुण्य प्रभाव से धनोपाय हो सकता है। वह सकुटुम्ब जैन श्रावक हो गया । गुरु महाराज ने उसे मंत्रित वासक्षेप दिया और ईंटों पर डालने सोना हो जायगा, बतलाया । गिरधरसिंह ने पाँच हजार ईटे वनवाकर उस पर वासक्षेप डालकर सोना बना दिया। रात्रि के समय सारी इंटें अपने घर में लाकर रखी, कुलाल को दुगुना दाम देकर राजी कर लिया । गिरधरसिंह ने धर्मकार्य में प्रचुर द्रव्य व्यय किया उसके पुत्र भद्र स्वभावी गेला से गैलड़ा गोत्र प्रसिद्ध हुआ ।
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