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श्री जिनदत्तकुशलसूरि गुरुभ्यो नमः
जैनाचार्य प्रतिबोधित गोत्र एवं जातियाँ
:: द्रव्य सहायक ::
श्रीमान् जेठमलजी की स्मृति में श्रीमान जुगराजजी कीसनलालजी भणसाली
मलकापुर
:: प्रकाशक :
श्री जिनहरिसागरसूरि ज्ञान भंडार निहरि विहार
पाल ताणा ३६४२७०
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Jain Ed.सं. २०३५ कार्तिक पूर्णिमा ] मूल्य : १-००
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[वीर संवत २५०५
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प्रस्तावना
जैन परम्परा के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे में युगला धर्म निवारण करने वाले भारतीय सभ्यता के आद्य प्रादुर्भावक् प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव हुए । कहा जाता है कि जब वे बाल्यावस्था में थे, इन्द्र उनके पास इक्षु-ईख लेकर आया तो ऋषभ ने बड़ी उत्सुकता से सामने जाकर उस इक्षु दण्डको पकड़ लिया, जिससे इन्द्र ने मन में सोचा कि इन्हें इक्षु खाने की विशेष रुचि है, इस बात को लेकर आगे चलकर इक्ष्वाकु वंश की स्थापना हुई। भारतीय वंश परम्परा में यह सर्वप्रथम वंश का अभिधान हुआ । इतः पूर्व युगलियों की परम्परा थी। परिवार अत्यन्त सीमित था अतः व्यक्ति को जाति, कुल, वंश, गोत्र से पहिचानना आवश्यक नहीं था । भगवान ऋषभदेव जब राजा बने और नई राज्य व्यवस्था कायम की तब उग्र, भोग ओर राजन्य नामक तीन कुल स्थापित किए । क्रमशः परिवारों एवं जनसंख्या का विकास बढ़ता गया तो वर्णजाति-कुल-वंश, गोत्र के अनेकों नाम प्रसिद्धि में आ गए।
वैदिक समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र इन चार वर्णों की व्यवस्था ब्रह्मा ने की, ऐसी प्रसिद्धि है। अनेक प्रसिद्ध ऋषि-महर्षियों के नामों से बहुत से गोत्र और उनकी शाखाएं प्रकाश में आई। 'जैनागम स्थानाङ्ग
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सूत्र' में प्रमुख सात गोत्रों और प्रत्येक गोत्र की सात-सात शाखाओं अर्थात् ४९ शाखाओं के नाम मिलते हैं । 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली आदि से भी स्पष्ट है कि तीर्थंकरों गणधरों, आचार्योंके गोत्रोंके जो नाम मिलते हैं, वे इन्हीं के अन्तर्मुक्त हैं। भगवान ऋषभ और महावीर को काश्यप गोत्रीय बतलाया है और प्रथम गणधर इन्द्रभूति का गोत्रगौतम है। इससे (आचार्यों के ) गोत्रों का महत्व 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली अर्थात् वीर निर्वाण सं० ९८० तक तो बराबर चलता रहा और पुराने गोत्र ही प्रसिद्ध थे असा सिद्ध होता है। । । ___ श्वेताम्बर समाज की श्रीमाल और ओसवाल जातियों की स्थापना बहुत प्राचीन समय में हुई, कहा जाता है 'उपकेश गच्छ प्रबन्ध आदि बौदहवीं शती की रचनाओं में उल्लेख है कि वीर निर्वाण संवत ७, में पार्श्वनाथ संतानीय रत्नप्रभसूरि हुए, जिन्होंने ओसियाँ में जैनेतर राजा, मंत्री व जनता को प्रतिबोधित कर जैन बनाए । ओसियाँ नगर के नाम से उनका 'ओसवाल' वंश प्रसिद्ध हुआ । संस्कृत में ओसिया का नाम उपकेशनगर मिलता है अतः शिलालेखादि में ओस वंश का नाम 'उपकेश वंश' भी पाया जाता है। इससे पहले राजस्थान के प्राचीन श्रीमालनगर में स्वयंप्रभसूरि ने जो जैन बनाये थे, वे श्रीमाल वंश या जाति के नाम से प्रसिद्ध हुए। श्रीमालनगर के ही एक राजकुमार ने अपने पिता से रुष्ट हो कर ओसियाँनगर वसाया था । श्रीमालनगर के पूर्वी दरबाजे की ओर वसने वाले 'प्राग्वाट' या 'पोरवाई' कहलाए । ऐतिहासिक दृष्टि से 'उपकेश गच्छ प्रबन्ध' में जो श्रीमाल ओसवाल वंश स्थापना का समय दिया है, वह संभव
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नहीं लगता । राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार सातवींआठवीं शताब्दी से ही ज्यादा हुआ है । आचार्य हरिभद्र का समय भी आठवीं शताब्दी का है । कुवलयमाला की प्रशस्ति में ग्रंथ कर्त्ता उद्योतनसूरि ने जो गुरु परम्परा दी है, उसके अनुसार भी मरु- गूर्जरा धरा में जैनमन्दिरों का विशेष रूप से निर्माण सातवी-आठवी शताब्दी से होने लगा था । वसन्तगढ की संवतोल्लेख वाली प्राचीन जैन धातु प्रतिमाएँ भी आठवी शताब्दी की हैं ।
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कुलगुरुओं और भाटों व भोजकों ने ओस वंश की स्थापना का समय वीये - बाईसे ( २२२ ) बतलाया है. वह भी कल्पित ही है । वास्तवमें औतिहासिक दृष्टि से श्रीमाल, ओसवाल, पोरवाड़ आदि जैन जातियों की स्थापना सातवी-आठवीं शती में होना संभव है । समय समय पर अनेक जैनाचार्यों ने जैनेतरों को प्रतिबोध देकर बहुत से गोत्रों की स्थापना की अनुश्रुति के अनुसार ओसवाल जाति के ही आगे चलकर १४४४ गोत्र हो गई थे ।
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ग्यारहवीं शताब्दी में चैत्यवास - (शिथिलाचार) का प्रबल विरोध करनेवाले विधिमार्गप्रवर्त्तक आचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्य जिनेश्वसूरि हुए, जिन्होंने सं० १०७० के लगभग पाटण के राजा दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों से शास्त्रार्थ करके सुविहित मार्ग' की प्रतिष्ठा की थी । वे कठोर मुनि आचार को पालन करने वाले 'खरे' अर्थात् सच्चे साधु थे । अतः उनकी परम्परा 'खरतर गच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुई । जिनेश्वरसूरिजी के पट्टधर 'संवेग रंगशाला' के रचयिता जिनचंद्रसूरि एवं उनके गुरुभ्राता नवाङ्गटीकाकार श्री अभयदेवसूरि हुए |
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देवभद्रसूरि ने उनके पद पर सं०.११६७ में महान् विद्वान श्री जिनवल्लभसूरि* को स्थापित किया। थोडे समय बाद ही उनका स्वर्गवास हो गया, अतः उनके पट्ट पर श्रीदेव. भद्रसूरिजी ने ही सं० १९६९ में श्री जिनदत्तसूरिजी को स्थापित किया, जो कि 'बडे दादाजी' के नाम से प्रसिद्ध हैं । सं० १२११ अजमेर में उनका स्वर्गवास हुआ। उनके पट्टधर मणिधारी श्रीजिनचंद्रसूरिजी हुए, जो सं० १२२३ में दिल्ली में स्वर्गवासी हुए। महरोली में आज भी उनका चमत्कारी स्तूप मंदिर पूज्यमान है । इनके पट्टधर ३६ वादविजेता जिनपतिसूरिजी हुए, सं० १२७८ में उनका स्वर्गवास हुआ। आपके पट्टधर नेमीचंद्र भण्डारी के सुपुत्र जिनेश्वरसूरि प्रतिष्ठित हुए, जिनका स्वर्गवास सं० १३३१ में हुआ।
इसी परम्परा में प्रगट प्रभावी श्री जिनकुशलसूरिजी हुए । जो 'छोटे दादाजी' कहलाते हैं । जिनका जन्म सं० ___* श्री जिनदत्तसूरिजी ने सवालक्ष या एक लाख तीस हजार जैन बनाये यह तो प्रसिद्ध ही है पर श्री जिनवल्लभसूरीजी ने भी एक लाख जैन बनाये यह आगे पृष्ठ में लिखा मिलता है :-'सवालाख खरतर जं० यु० भ० जगगुरु पूज्य श्रीपूज्य श्रीजिनदत्तसूरिजी कीधा । अने एक लाख घर खरतर जं० यु० पूज्य गुरु जिनवल्लभसूरिये गुरे कीधा । इसी गुरु चेलां री आसति' । श्री जिनकुशलसूरिजी के पचास हजार जैन बनाने की प्रसिद्धि है। .. ' वागड़ देश, जो हांसी-हिसार के आस पास प्रदेश का भी प्राचीन नाम रहा है, वहां श्रावकोकों प्रतिबोध देने के लिए जिनवल्लभसूरिजीने 'द्वादश कुलक' निर्माण कर भेजे थे । पट्टावलियों में लिखा है कि दस हजार बागड़ियों को जिनवल्लभसूरिजी ने प्रतिबोध दिया था ।
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१३३७, दीक्षा १३४७, आचार्यपद १३७७ और स्वर्गवास सं० १३८९ में देरावर में हुआ । उनके गुरु कलिकाल केवली श्री जिनचंद्रसूरि ने भी अच्छी शासन प्रभावना की। श्री जिनकुशलसूरिजी के समय में ही लघुखरतर शाखा में श्री जिनप्रभसूरिजी+ हुए जिन्होंने महमद तुगलक बादशाह को बहुत प्रभावित किया था ।
इसी परम्परा में पन्द्रहवीं सती में श्री जिनभद्रसूरि हुए, जिन्होंने जैसलमेर आदि सात स्थानों में ज्ञानभण्डार स्थापित किए । सोलहवीं शताब्दी में जिनहंस सूरिजी हुए, जिन्होंने सिकदर बादशाह को चमत्कार दिखाया था । बीकानेर में उन्होंने आचारांगसूत्र की दीपिका टीका सं० १५७३ में बनायी। उनके पट्टधर श्री जिनमाणिक्यसूरि के पट्टपर अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचंद्रसूरि हुए, जो कि 'चौथे दादाजी' के नामसे प्रसिद्ध हैं ।
खरतर गच्छ का इतिहास बड़ा उज्वल रहा है। इस गच्छ के अनेक आचार्यो, विद्वानों, श्रावकों ने जैन शासन की महान् सेवाएं की है। उपर्युक्त आचार्य परम्परा की विशेष जानकारी के लिए 'खरतर गच्छ इतिहास __+ जिनप्रभसूरि लघु खरतर शाखा में हुए । उनकी शाखा की विस्तृत पट्टावली प्राप्त नहीं है अतः श्री जिनप्रभसूरिजी ने किस जाति व गोत्रों को प्रतिबोधित किया उसका विशेष वृतान्त नहीं मिलता । परन्तु जांगल-राजस्थान के खंडेलवाल गोत्रीय शिवभक्त जो गुड खांड का व्यापार करते थे और मदिरा का व्यापार करने लगे, उन्हें प्रतिबोध देकर सं० १३४४ में जैन बनाया ।
‘खंडेलपुरे नयरे तेररस चउत्तारे जंगलया सिवभत्ता टविया जिणसासणे धम्मे ॥'
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भाग १, मणिधारी अष्टम शताब्दी ग्रंथ और युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि, मणिधारी श्रीजिनचंद्र सूरि, दादा श्री जिनकुशलसूरि और युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि नामक चारों दादासाहब के हमारे लिखित जीवनचरित्र दृष्टव्य हैं । 'मणिधारी अष्टमशताब्दी ग्रंण' में प्रकाशित खरतर गच्छ के साहित्य की सूची भी बहुत ही महत्वपूर्ण है।
आचार्य श्रीवर्द्धमानसूरिजी से लेकर अकबर प्रतिबोधक श्री जिनचन्द्रसूरिजी तक के आचार्यों ने लाखों अजैनों को जैन धर्म का प्रतिबोध दिया। ओसवाल वंशके अनेक गोत्र इन्हीं महान् आचार्यों के स्थापित हैं। महत्तयाण जाति की प्रसिद्धि श्री जिनचंद्रसूरिजी से विशेष रूप में हुई। इस जाति के भी ८४ गोत्र बतलाये जाते हैं। श्रीमाल जाति के १३५ गोत्रों में ७९ गोत्र खरतर गच्छ के आचार्यों के प्रतिबोधित बतलाये गए हैं । पोरवाड़ जाति के पंचायणेचा गोत्र वाले भी खरतर गच्छानुयायी थे। आगे प्रकाशित की जाने वाली खरतर गच्छीय गोत्रों की सूची में ओसवाल वंश के ८४, श्रीमाल के ७९ पोरवाड़ और महतियाण के कुल १६६ गोत्रों की संख्या दी है। __ खरतर गच्छ के कई आचार्यों का संक्षिप्त विवरण ऊपर दिया गया है, उसका उद्देश्य यह है कि आगे जो खरतर गच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिबोधित जैन जातियों व गोत्रों का जो विवरण दिया जा रहा है, उसमें उन आचार्यों के नाम हैं । अतः पाठकों को वे किसके शिष्यपट्टधर थे और कब हुए ? यह जानकारी मिल सके ।
हमारे वक्तव्य के बाद जो गोत्रों की सूची आदि दी गई है वह हस्तलिखित प्रतियों में जिस रूप में मिली,
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उसी रूप में उसकी नकल करके दी गई है । उसमें यह लिखा हुआ है कि १६६ गोत्रों की जूनी वार्त्ता जेसलमेर के प्राचीन वहियावट के आधार से लिखी गई है । वह जेसलमेर की मूल प्रतिमिल जाती तो बहुत ही अच्छा होता । अभी हमारे संग्रह में इस सम्बन्ध में एक पत्र और मिला है, उसमें "ख्यात झूने दफतर सूं उतारी छे सवाई जयपुर में" लिखा है, वह प्राचीन दफ्तर बही कब की लिखी हुई और कहाँ पर है, पता लगाना आवश्यक है ।
श्रीमाल और ओसवाल गोत्र सूची के बाद पीपाड़ा गोत्र से लेकर गेलड़ा गोत्र तक का विवरण स्वर्गीय उपाध्याय लब्धिमुनि जी रचित संस्कृत खरतर गच्छ वृहद्गुर्वावली के हिन्दी - सार रूप में लिखा गया है । इस गुर्वावली में बर्द्धमानसूरिजी से लेकर जिनहंससूरिजी तक के आचार्यों की जीवनियों में उन आचार्यों ने, जिन जिन गोत्रों की स्थापना की, उसका आचार्य वार विवरण दिया हुआ है । अतः हमारे इन गोत्रों के प्रतिबोध विवरण का आधार लब्धिमुनिजी की उक्त गुर्वावली को ही समझना चाहिए । पृ० ३३ में बलाहियों की उत्पत्ति का संवत् १६४१ दिया है पर उसमें प्रतिबोधक आचार्य का नाम नहीं लिखा है फिर भी संवत् को ध्यान में रखते हुए, अकबर प्रतिबोधक जिनचन्द्रसूरिजी के समयका वह प्रसंग निश्चित होता है । इन यु० जिनचंद्रसूरिजी के पश्चात् नई गोत्र स्थापना का कोई विवरण नहीं मिलता ।
महन्तयाण जाति के सम्बन्धमें हम 'मणिधारी जिनचंद्रसूरि' ग्रंथ में अधिक जानकारी प्रकाशित कर चुके हैं। अतः इस सम्बन्ध में हमारे उक्त ग्रंथ के नये संस्करण
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के पृ० ३६ से ४६ द्रष्टव्य है। छाजहड़ का जो विवरण छपा है उसके संबन्ध में हमारे ‘दादा श्रीजिनकुशलसूरि' ग्रन्थका प्रथम परिशिष्ट द्रष्टव्य है । उसके अन्त में उद्धरण के खरतर गच्छीय होने का संवत् १२४५ दिया है जिसकी गाथा इस प्रकार है :
"वारसए पणयाले, विक्रम संवच्छराउ वइक्कते । उद्धरण केड़ पमुहा, छाजहड़ा खरतरा जाया ॥१॥"
छाजेड़ गोत्रके सम्बन्ध में बेगड़ गच्छीय जिन समुद्रसूरिजीने अपने ऐ काव्यमें जो विवरण दिया है उसके पद्य आगे परिशिष्ट नम्बर ३ में दिए जा रहे हैं। महत्तियाण जातिके १५ गोत्रों का विवरण एक गुटके में पीछे से मिला, उसकी भी नकल आगे परिशिष्ट नं. १ में दी जा रही है। हमारे संग्रह में जो एक पत्र खरतर गच्छ के गोत्रों सम्बन्धी पीछे से और मिला है, उसकी नकल भी परिशिष्ट नं. २ में दी जा रही है।
आगे दिये जानेवाले गोत्रों सम्बन्धी विवरण में दोतीन जगह संवत् अधूरे और गलत छपे हैं। जैसे - पृ० ३३ में डोसी गोत्र के विवरण में सं० ११४७ छपा है वह सं० ११७४ होना चाहिए । पृ० ४१ में ११ छपा है आगे के अंक छूट गए हैं, वे ११६९ से ९९ के बीच के होने चाहिए । पृ० ४३ में सं० ११-५ छपा है वहाँ बीच का अंक त्रुटित है, वे ११७५-८५ या ६५ में से कोई भी हो सकता है। पृ० ४४ में बोरड गोत्र का संवत् १११५ छपा हैं पर जिनदत्तसूरिजीके समय को देखते हुए वह भी ११७५-८५ या ६५ हो सकता है । ऐतिहासिक दृष्टि से
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और भी कुछ असंगतियाँ हो सकती है क्योंकि उपर्युक्त विवरण, घटना से काफी बाद के लिखे हुए मिलते है अतः सुनी-सुनाई हुई मौखिक बातों में अंतर पडना बड़ी बात नहीं है। हमने तो जो और जैसा भी प्राचीन प्रतियों व लब्धिमुनिजी के पट्टावली में देखा, उसी को यहाँ दे दिया है । प्राचीन सामग्री मिलने पर अधिक प्रामाणिक तथ्य प्राप्त हो सकते हैं ।
जैन जातियों और गोत्रों के सबन्ध में जो कई ग्रन्थ पहले प्रकाशित हुए थे, वे आज प्राप्त नहीं हैं । और जो थोडी सी सामग्री प्राप्त है वह भी सबके लिए सुलभ नहीं है अतः अनेक व्यक्ति अपने गोत्र की स्थापना कब और किसने की ? यह जानना चाहते हुए भी सफल-प्रयत्न नहीं हो पाते खरतर गच्छ के महान् आचार्यों ने जिन २ गोत्रों की स्थापना की, तत्संबन्धी जो भी सामग्री और जानकारी एकत्र कर पाये, वह जिज्ञासुओं एवं जातीय इतिहास प्रेमियों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे हैं। ___ मध्यकाल में अपने गच्छ की प्रतिष्ठा बढ़ाने और अनु. याइयों को बनाये रहने व बढाने के लिए जातीय इतिहास सम्बन्धी कुछ कल्पना-प्रसूत और अतिशयोक्ति पूर्ण बातें प्रचारित की जाती रही हैं, उन सब में से तथ्य को ग्रहण करना बहुत ही कठिन कार्य हैं । कुलगुरु, बही-भाटों आदिके पास बहुत सी वंशावलियाँ और बडे बडे पोथे मिलते हैं एवं हमने भी जैसी बहुत कुछ सामग्री एकत्र की है। स्वर्गीय मुनि ज्ञानसुन्दरंजी ने उपकेशगच्छ की परम्परा में प्राप्त जैसी कुछ सामग्रीको अपने महाजन वंश के इतिहास, पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास आदि ग्रन्थों में प्रकाशित
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की है। श्री चन्द्रराज भण्डारी आदि ने 'ओसवाल जाति का बृहद् इतिहास' प्रकाशित किया था पर उन्होंने प्राचीन इतिहास की गवेषणा नहीं की।
-अगरचन्द भँवरलाल नाहटा
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खरतरगच्छ के आचार्या द्वारा प्रतिबोधित जैन जातिया व गोत्र
[ अगरचन्द नाहटा * भंवरलाल नाहटा]
भगवान महावीर के समय सभी वर्ण और जातिय बाले जनधर्म का पालन करते थे । उनके घरों में भिन्न - भिन्न आचार विचार वाले व्यक्ति एक माथ रहेने से अहिं सामय जैनधर्म को ठीक से पालन में कठिनाई अनुभव की जाने लगी। आगे चल कर जैनाचार्यों ने इस समस्या का मात्रा मप से समाधान जन जातियों के स्वतंत्र संगठन के. रूप में कर दिया। कहा जाता है कि राजस्थान के प्राचीन नगर श्रीमाल में जिन अजेनों को प्रतिबोधित किया गया वे हम नगर के नाम से श्रीमाल जाति वाले प्रसिद्ध हुए श्रीयाल नगर के पूर्व दिशा में रहने वाले नवीन जैनों की जाति प्राग्वाट - पोरवाड नाम से प्रसिद्ध हुई । इसी प्रकार उपस नगर की स्थापना यामाल नगर के अंक राजकुमार ने की उनके साथ उहइ मंत्री भी था। आचाय रत्नप्रभ मूर ने अपने संयम और तपोबल से चमत्कार दिखाकर बहन बड़ी मंग्या में वहां के सभी वर्ण एवं जाति वाले लोगों को जनधर्म का प्रतिबोध दिया। उन लोगों की जाति का नाम उस नगर के नाम से उस ऊकम -ओसवाल प्रसिद्ध हया। इसी प्रकार पाली से पालीवाल खंडेला में खण्डेलवाल. अग्रोहा से अग्रवाल आदि ८४ जातियों प्रसिद्धि में आई । समय समय पर दिगम्बर और वेताम्बराचार्य ने उन्हें जनधर्म में दीक्षित किये ।
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एक-एक जाति अनेक गोत्रों में विभक्त हो गई । उन गोत्रों के नामकरण के प्रधानतया तीन कारण थे१ स्थान विशेष २ आजीविका व्यापार विशेप और ३ प्रसिद्ध पुरखों-विशेष व्यक्तियों के नाम से गोत्र प्रसिद्ध होते रहे । आचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने जो धर्म क्रान्ति की, उससे जैनों के साथ साथ अनेकों अजैन भी प्रभावित हुए । उनके शुद्ध साध्वाचार और कल्याणकारी उपदेशो से हजारों व्यक्ति जैनधर्मकी छत्र छायामें आत्मकल्याण करने लगे। मांसभक्षण. शिकार पशुबलि, मद्य एवं अभक्ष्य भक्षण आदि हिंसक और पापप्रवृत्तियों का उन्होंने परित्याग कर दिया । उन सब का एक संगठन बना दिया गया । स्वधर्मीवात्सल्य की भावना पुराने और नये जैनों में कूट कूट कर भर दी गई। उससे रोटी बेटी व्यवहार आजीविका एवं धर्मपालन में बहुत सुविधा उपस्थित हो गई। पूज्य आचार्य श्रीअभयदेवसूरिजी रचित साधर्मी वात्सल्य कुलक में कहा गया है कि नवकार मंत्र का स्मरण करने वाले सभी जैन स्वधर्मी है उनके साथ सगे भाई से भी अधिक धात्सल्य रखते हुए धर्म में आगे बढ़ना चाहिए । श्री जिनदत्तसूरिजी ने उपदेश-रसायन में कहा है कि प्रावकोंको अपने पुत्र पुत्रीका विवाह स्वधर्मी लोगों के साथ ही करना चाहिए विधर्मियों के साथ करने से सम्यक्त्व में बाधा पहुँचती है। दादा श्री जिनकुशलसूरिजी ने भी चैत्यवंदन कुलक वृत्ति में स्वधर्मी-वात्सल्य की बहुत पुष्टि की है।
जिनदत्तसूरिजी ने विक्रमपुरादि में बहुत बड़ी संख्या में माहेश्वरी लोगों को जैनी बनाया। उनके प्रतिबोधित अनेक गोत्र है, जिनकी सूची आगे दी जा रही है। श्री
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जिनवल्लभ सूरिजी ने बागड़ी लोगों को प्रतिबोध दिया । मणिधारी श्री जिनचन्दसूरिजीने महत्तियाण जाति को जैन बनाया । इसी प्रकार अन्य कई खरतर गच्छाचर्यो ने क्षत्रियादि वंशों को प्रतिबोधित कर ओसवाल श्रीमाल जातियों में सम्मिलित किया अनेक नये गोत्रों की स्थापना की, उन्हीं महान् आचार्यों के पुण्य प्रभाव से लाखों जैनी आज धर्मसंस्कार को-जन्मजात लिए हुए हैं । भगवान् महावीर ने जो धर्म सन्देश दिया उसको गाँव-गाँव व जन जन में प्रचारित करने और जैन जातियों को संगठित करने में इन आचार्यों की बहुत बड़ी देन है ।
ओसवाल आदि जैन जातियों की वंशावलियां लिखने व परम्परागत सुनाते रहने का काम शताद्वियों तक कुलगुरु, भाट आदि करते रहे हैं, कुछ जैसे जैन ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं जिनमें उन जातियों गोत्रोंकी उत्पत्ति, प्रतिबोधक आचार्यों एवं विशिष्ट कार्यो का विवरण मिलता है । उपकेशगच्छ प्रबन्ध, कर्मचन्द्र वंश प्रबन्ध, ओसवाल रास अवं गोत्रीय वंशावली आदि में ये विवरण प्राप्त है, हस्तलिखित फूटकर पत्रों और वंशावलियों आदि में भी महत्वपूर्ण उल्लेख है । मौखिक परम्परा में भी जो बातें चली आ रही थी, उनके आधार से बीकानेर के यतिवर्य श्री पालचन्द्रजी ने जैन-सम्प्रदाय शिक्षा और उपाध्याय रामलालजी की महाजन- वंश - मुक्तावली में खरतर गच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिबोधित गोत्रों का विवरण दिया है ये दोनों ग्रंथ सन् १९९० में प्रकाशित हुए हैं । उपाध्याय लब्धि मुनि जी ने पद्यबद्ध संस्कृत पट्टावली त्रि० सम्बत् १९७० में रची है उसमें भी खरतर गच्छके आचार्यों द्वारा प्रतिबोधित गोत्रोंका अच्छाविवरण दिया है । यहाँ हमारे संग्रहके हस्त
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लिखित प्रतियों में प्राप्त कई गोत्रादि के विवरण प्रकाशित किये जा रहे हैं । इनमें कुछ गद्य में और कुछ पद्य में है । दो तीन पत्रों में खरतर गच्छने ओसवाल - श्रीमान गोत्रों की सूची दी गई है । खोज करने पर असी प्रचुर सामग्री ज्ञानभन्डारों आदि में और भी प्राप्त हो सकती हैं ।
श्री चन्द्रराज भंडारी आदि के लिखित ओसवाल जाति के इतिहास में भी इस जाति के कई गोत्रों का विवरण प्रकाशित हुआ है। मुनि ज्ञानसुन्दर जी ने उपकेशगच्छ के प्रतिबोधित जाति-गोत्रों का वर्णन अपने पार्श्वनाथ परम्परा के इतिहास में दिया है अंचल गच्छ के गोत्रा दिका विवरण पं० हीरालाल हंसराज के जैन गोत्र संग्रह में तथा 'श्रीमाल वाणियो नो जाति भेद' पुस्तकमें प्रकाशित हैं।"
जैन ग्रन्थों की प्रशस्तियों और शिलालेख, प्रतिमा लेख आदि से साधारण तया किस जाति गोत्र से किस गच्छों का संबन्ध रहा हैं इस की प्रामाणिक जानकारी मिलती हैं । यद्यपि कई कारणों से कई जाति और गोत्रोंने गच्छ परिवर्त्तन भी कर लिया हैं पर कई जाति गोत्र वाले आज भी अपने प्रतिबोधक आचार्य की परम्परा को पालन कर रहे हैं। अपने पूर्वजों पर किए हुए महान् उपकार को सदा स्मरण रखना आवश्यक हैं ।
खरतर गच्छ कालान्तर में कई शाखाओं में विभक्त हो गया, उनमें से कतिपय शाखाएं तो लुप्त हो चुकी हैं। कई शाखाओं के दफ्तर आदि अब प्राप्त नहीं हैं। इस लिए आगे दी जाने वाली खरतर प्रतिबोधित गोत्र सूची को पूर्ण नहीं कहा जा सकतां ।
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श्री जिनत्तसूरि प्रतिबोधित गोत्र
श्री सुधर्मसामि परम्परा खरतर गच्छना भट्टारक जंगम युगप्रधान श्रीजिनदतसूरि प्रतिबोधित छतीस राजकुली सवालाख श्रावक खरतर तेहना गोत्र लिखतं ।
१ श्री राय भणसालो मन्त्री आभू साखि गोत्र बद्ध खरतर सोलंकी राजपूत ||
२ पड भणसाली गोध बद्ध खरतर देवड़ा रजपूत ३ कांकरिया गोत्र खरतर भाटी रजपूत
४ करमदिया बद्ध गोत्र खरतर । आकोल्या अड़क खरतर ५ मणहडा गोत्रबद्ध खरतर श्री पन्ना अडक खरतर ।
६ नवलखा दसम नी दीहाडी वाला गौत्र बद्ध खरतर साहजो साथी
७ छाजहड दशम री दिहाडी वाला गोत्र बद्ध खरतर सं० १२४५ राठोड धांधलो धरणसाहथी खरतर
८ ग्रामेचा दसम री दिहाडी वाला खरतर पमार रजपूत ९ साउंसखा बद्ध गोत्र खरतर
१० डांगी गोत्र मध्ये काजलोत सर्व खरतर
११ रांका, सेठिया तथा काला सर्व खरतर
१२ खुथडा कुद्दाल गोत्र बद्ध खरतर
१३ कूकड चोपडा गोत्र बद्ध खरतर जाति पडिहार रजपूत मंडोवरा क ० राव चूडा कहाणा
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राव
१४ गणधर चोपडा गोत्र खरतर जाति कायथ हिंसारी
गण कहाणा. १५ पीतलिया गोत्र बद्ध खरतर दसभि नी दिहाडो माने
ते ख० । १६ कान्हउगा गोत्र बद्ध खरतर १७ Dदवछा पूँ० दसम नी दिहाडी माने ते गोत्र खरतर । १८ वैताला बद्ध गोत्र खरतर १९ नाहटा तथा बापणा धुत्त ते सर्व १० दिहाडी करे ।
तेरे १३ साखि ते खरतर २० सोनिगरा दसमनी दिहाडी वाला खरतर २१ वोहिथरा दोनु भाई गोत्र बद्ध खरतर देवडा रजपूत
राव सामतसी-रा केड सोनगर वास २२ बुच्चा गोत्र बद्ध खरतर । सोजतिया अडक चरतर । २३ वैद बोहड बर्द्धमान शाखाबद्ध खरतर सेवडिया २४ संखबालेचा खरतर कोचर संघवी ना केडा ना खरतर
गोत्र बद्ध २५ माह गोत्र बद्ध खरतर पमार जाति प्रल्ह राजा रजपूत ...चउहाण २ मल्हाला अडक फोफलिया २६ लोढा १० दिहाडीवाला खरतर राय १ । कट्ट २॥ २७ वरढिया मध्ये दरडा बद्ध खरतर २८ चंडालिया गोत्र दसम री दिहाडी करै ते खरतर २९ आयरिया गोत्र बद्ध खरतर . .. . ३० ढींक बद्ध गोत्र खरतर ३१ सीसोदिया नडुलाई वाला खरतर ३२ डांगरेचा बद्ध गोत्र खरतर ....:... ३३ फसला गोत्र बद खरतर ३४ सिंधुउ खरतर साउंसखे लिले
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३५ भाटिया गोत्र खरतर ३६ सोनी गोत्र अडक खरतर ३७ पचकुदाल बहुरा गोत्र बद्ध खरतर ३८ नवकुदाल बहुरा गोत्र बद्ध खरतर ३९ मेतडा गोत्र खरतर ४० महतीयाण लघु शाखा ऊकेश खरतर ४१ खांटहड इसम री दिहाडी वाला खरतर ४२ माधवाणी गोत्र मदारिया मध्ये खरतर ४३ राखडिया बहरा गोत्र कटारिया खरतर । ४४ लूणिया गोत्रबद्ध खरतर जाति मधडा महेसरी । ४५ डागा खरतर मुंधडा जाति महेसरी . ४६ भाभू १ पारिख २ छोहरिया ३ गदहिया ४ सेलुत ५
भूरा ६ रीहड ७ खरतर राठी महेसरी ४७ खुथडा १ मालवीया २ डागलिया ३ चम्म ४ गोलबछा
५ बलाही ६ बापणा ७ दसम री दिहाडी ४८ जांगडा गौत्र गरतर । बुबकिया गोत्र खरतर ४९ मगदिया १ धाडीवाहा २ वेद ३ दोसी ४ दरडा गोत्र
खरतर महेसरी ५० काठीफोडा खरतर ५१ पोरवाड पांचारणिया गोत्र खरतर ५२ अथ सखा गोत्र मांहे इतरा मिलै:-- .. बुच्चा १ चम्म २ ककड ३ गादहिया ४ गोलवछा ५ पारिख ६ भटाकीया ७ नाव टबुकिया ८ चोर ९ बेडिया १० सेल्होत ११ खुथडा इतरा १२ गोत्र.....
अथ जगगुरु पूज्य खरतर गच्छ रा श्रावक चोपडा री वंशावली
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अथ चोपड़ां री उत्पत्ति
मंडोवर पडिहार, थया दीपचन्द दीवाणां राज लोक परधान, व्याकुल होइ विलखाणा जाणपुरुष जोवंता, जगतगुरु जिनदस आया गुरु देखी दुःख गया, नमें माता पूज्य पाया पडिहार राज्यतुम्ह थी रहे, ल्यौ अबराज बधावणी तुम्ह बिन मुझ सरणौ (कवण),
करौ कृपा मुझ खरतर धणी ॥ १ ॥
तै जीती जोगिणी, वीरवस वावन कीधा तै जीता पंचपीर, नदी पंच मारग दीघा तैं मूई गाइ जीबाडि मुगलचा पूत जीवाया दुनिया देखी दुखी, मेह सोवन वरसाया तो सिद्ध तणें आयां शरण,
काइ बात तणी न रहे कजी दीपचंद भणी डाही करें कहै मात कृपा करि पूजयजी ॥ २ ॥
जिनदत्तसूरिजी कही, रीति साह कीधी राणी । प्रोलि उघाडत समाकूकड गाइ लीध विकाणी विण व्याही ते दुही. तास घृत अंग लगाया आसति गुरु री इसी चयन दीपचन्दे पाया जिनदत बधाइ में कहै, हवौ मुक्त श्रावक प्रगड कूकडो गाइ घृत चौपड्यां सुं गोति तिणि कूकड चोपड ॥ ३ ॥
दोहा - पडिहारां थी चोपडा, किया दस गुरु उपगारि संवत बारविडोसरे, मा वदि सातमि बुधवारि ॥ ४ ॥
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इम कूकड चोपडा बद्ध गोत्र खरतर । जातिरा पडिहार मंडोवरा । गुणधर चोपडा गोत्र खरतर । जातिरा पंवार राजा हंसार ना, प्रधान कायथ माथुर तेजसी कहै हम्हारै धणी के वली डील सूडो नहीं जो बेटा होइ तौ तो तुम्हारे श्रावक हम्ह हवां । तिवारे गुरे नालेर पवार सांमवत जी ने मंत्री दीधा ते राणी नै दे खवाया, नवे मासे बेटा हुवा, वा गुरे 'गुणधर' नाम देई खरतर श्रावक कीया ।
भणशाली भणशाली बद्ध गोत्र खरतर । राय भणशाली १ खड़ भणशाली २ चंडालीया भणशाली ३ ए तीने भणशाली बद्ध गोत्र खरतर । भणसाली गोत्र थापना सं० १२०९ बैसाखी पूर्वी १५ दिने एक गुरु श्री जिनदत्तसूरिजी रो डील सूडौ न हुयो तब आपरा अठारै माणस गुरां ऊपरि उवारणे कीया । आठ बेटा आठ बेटा रीबहु १६ वली आप १७ आपरी अठारमी बहू १८ इम गुरु साव चेत हुया । तब जोगणी ६४ गुरे खीली । अठारे माणस तुरत समाधि करी अठारै कोडि द्रव्य घरे अखूट कीया इम राय भणसाली सोलंकी १ खड़ भणसाली भाटी गुरे खड रखाया तठा थी खड़ भणसाली गोत्र खरतर । चंडालिया भणसाली पवार रजपूत । ३।
ए पतिसाह अलावदी बंदि दीधी। तब देवसीसाह को म्हे तो हलालखोर छां जी । तठाथी सगेह सतेह चंडालिया कहता गोत्र हुंआ । अथवा ढेढां रै माथै लहणां हुँता ते न चै । तब ढेढां री कुंवारी परनता बनोला रे मिस घरमें तेडी रोक राखी । जान वाले डेढे द्रव्य देई
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लहणा चूकावी दीधा, लोके कह्या ए बडा चंडालिया । इम चंडालिया गोत्र थपाणा छे । १ कूकड़ चोपड़ा खरतर २ गुणधर चोपड़ा ख० । ३ राय भणशाली ख ४ खड़ भणचाली ख० । ५ चंडालिया भणसाली ख० । ६ कांकरिया खरतर माटी रजपूत ७ करमदीया खरतर काकलीया । ८ आकोला ख० । ९ श्रीपना ख० । १० मणहटा ख० । ११ सांउसखा ख० । १२ मांडीगोत्र मांहि काजलोत ख० । १३ रांकागोत्र माहेसेठ खरतरा । १४ सेठीया ख० । १५ काला गोत्र खरतर । १६ रांका बांका गोत्र पणक है छे । सेठ पदवी पातसाह दीधी १ श्रीजिनदत्तसूरिजी ना प्रतिबोध सं० १२०४ तूअर राजा खड़गसिंह भाई वांको घणा लोभ धी रांका गोत्र थपाणा ।
१७ बोथरा वच्छावत । फोफलीया बद्ध गोत्र खरतर १८ खूंथडा बद्ध गोत्र ख० । १९ कोदाल बोहरा ख० । ढेलडीया बोहरा ख० । २० वैदमांहे दोसी ख० । वैद्य मुंहता वर्द्धमान संघवी रा केडाइत माहे । २१ वैताला बद्ध गोत्र ख० । पतिसाह री बंदिथी छोडिया । २२ सोजतीया गोत्र ख० । कुल राजपूत ।
२३ सेवडिया ख० साप खाधा थी समाधि कीधा । २४ वरहड़िया गोत्र माहे दरड़ा वध गोत्र, गुरे खरतर माहू रा दरडा माहे मोहर आणी दरा मांहे । २५ माल्हू गोत्र ख० पडिहार बंदीखाना थी छोडाया ।
२६ ढीक गोत्र ख० सन्निपातिया थी भला कीथा २७ लूगावत माहे आरीया ख० गुरे कोढ गमायो २८ लूणीया आदू मूंधड़ा महेसरी सापखाधा समाधि थी ख० । २९ डांगरेचा वद्ध गोत्र ख० चोरांरी धाड मांहे राख्या |
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आंखे अंजन करी । ३० फलसा बद्ध गोत्र । ख० । दालिद्र गमावी द्रव्यवंत कीया । फलसा ऊघाड जीमाया गुरे । ३१ सांऊसाखा सीघू गोत्र ख० । ३२ रीहड ख० राजा चोहाण वीसलदे राहुजदार मारता राख्या । ३३ भाटीया गोत्र ख० पातिसाह पीरोज रा भंडार मांहे । ३४ सोनी गोत्र ख० पातिसाह मारता नै गुरे राख्या। चोर करी मारता राख्या) । ३५ मधवाणीसा मंदारीया वाला ख० । ३६ पंच कुदाल बोहरा ख० । ३७ संखबालेचा, कोचर संघवी रा केडायत ख० चौहाण-1३८ लोढा कुंभलमेरा ख० राठोड। ३९ चंडालीया, दसमी दिहाडी जे पूजे ते खरतर । ४० सीसोदीया नडूलाई वाला ख० दाणदीवाण राणा हमीर रा चोरीया ते मारता राख्या । ४१ दोसी बद्ध गोत्र खरतर । ४२ रतनपुरा बोहरा माहे कटारीया खरतर, चोहाण झांझण थी गोत्र । ४३ खाटहड़ ख० राठोड़ राजपूत । ४४ नवलखा सांभरि रा ख० । बहन नै नवलाख सू रूपीया दीया । ४५ छाजहड राठोड राजपूत । कबल १ कोड २ । कबल माहे दसमी दिरहाडी पूजे ते ख० । अने बेगड सर्वखरतर सं० १२४५ प्रतिबोध । ४६ प्राभेचा, दसमे दिरहाडी पूजे ते ख० । ४७ पीतलीया दसमि दिराडी पूजे ते खरतर। ४८ गुदेचा मुहता, दसमी दिरहाडी पूजे ते ख० । ४९ धाडीवाहा ख० डाभी राजपूत । कुंवारी धाडै आणी तठा थी धाडीवाहा । ५० डाकुलिया ख० । खेडलै पाटणि बंदि हुई तब डाकोतरा रूप करि नीकलिया तठा थी गोत्र डाकूलिया थपाण छै । गुरे छोडाया- ५१ डागा बद्ध गोत्र ख० पहली मूधडा महेसरी । डागा नै साप थी. उगारीया छै । ५२ राखेचा बद्ध गोत्र ख० कुवरी बोंदणी नै राखस लेई गया, गुरे राखी । ५३ बलाही बद्ध
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गोत्र ख० । खालडां रा विणज करतां रुपीया ढेढ दुकाल पडीयां खाय गया । पछै सुकाल फेरि हुआ ढेढां री बेटी बनो लारै मिस रोकी राखी, रुपीया लीया। ५४ सोनिगरा, दसमी दिहाडी पूजै सु ख० । ५५ झाबक ख० पडिहार रजपूत । ५६ मिहर । वीठोडा रा खरतर । ५७ संचंती कयसू वाला खरतर । ५८ सांउसखा । ५९ बुचा । ६० चंब । ६१ कक्कड । ६२ गादहिया । ६३ गोलवछा । ६४ पारिख । ६५ भटाकीया । ६६ ताबरिया । ६७ बूबकीया । ६८ चोरवेडिया । ६९ सहिलोत । तेरह गोत्र बापणा मांहे सर्व खरतर । ७० बापणा १ । ७१ नाहटा २। ७२ घुल्ल ३ । ७३ घोरवाड ४ । हुंडिया ५ । ७५ जागडा ६ । ७६ सोमलीया ७ । ७७ बाहंतीया ८। ७८ वसाह ९ । ७९ भांभू १० । ८० मीठडिया ११ । ८१ धतूरिया १२ । ८२ बाधमार १३ । ८३ मगदीया १४ ॥
वली ८४ मुंहणोत ते आदो खरतर हिवणां कुलगुरु खरतर छै ही । वली विशेष लेख वेहावटै जोवो ।
पोरवाड़ पोरवाड माहे पंचायणेचा पोरवाड विमल मन्त्रीसर रा केडायत सर्व खरतर । विमल रो रास दोय हजार छै। तिको विमल चौवीस देश रो राजा हुयौ । जिणी आबू तीरथ सोनारी मुहर पाथरी धरती लेई आवू ऊपरि जिणि वड वडा देवल कोडि कर्या । वली जिण रै वंस माहें शिवा सोमजी सारीखा हुया । जिणी सत्रुजा तीरथ रो संघ करायो। जिणि नै सवा लाख रुपया संघने लागा। संघवीना पचित्तर लाख रुपीया रा सेतुंजा ऊपरि देवल कराया। एक लाख रुपीयां री खरतरां घरां मांहे घर घर दीठ रुपीयो
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रुपीयो लाहणि दीधी । तिके गूजरोतमाहें अमदाबाद तठे हुया || सोमजी साह रो बेटौ संघवी रूपजी वो हुवो। जिणि सेजै रा वारे वार संघ कराया। एक ट्रंक श्री मरुदेवाजी रौ तठे पाखती गढ करायौ । 'हेक ट्रंक आयो खरतर हथि, हेक ट्रंक चौरासी गच्छ हथि । “इमगीत है तेनाथी समझिज्यो जी ।
वली रूपजी सोमजी उत संघवी उपाध्याय श्री भूवनकीर्तिजी पासि इग्यारै अंग सांभलिया । अबे ब्राह्मण ने सतावीस पाट माहे उपाध्याय पद न हुंता ते मोकला करी । बावीस सय मुहमदी खरची ।
सम्वत् १६९४ वर्ष मगसिर वदि ४ दिने अहमदाबाद माहें श्री शान्तिनाथ जी रा देहरा मांहे भुवनकीरतिजी नै उपाध्याय पद दीधा । भट्टारक श्रीपूज्य श्री जिनराजसूरिजी आप बैठा थकां पद दीधा सही । भट्टारक श्री जिनराजसूरिजी पहिली पद देवारी कही नैपछै पतली यया । तिणि बात ऊपरि पोरवाड़ रूपजी संघवीयें आपणा बोल ऊपरि किया ८५ ।
मुंहतीयाण गोत्र लहुड़ी स्राखा वाला सर्व खरतर " मुद्दतीयांण दोइनमै श्री जिनचन्द ।” पूरबरी धरती माहे हजारे ग्यांने छै ते सर्व खरतर गच्छ रा श्रावक छे । संग्राम सरीखा जिणि ८४ देवलो कराया । ८६ । श्रीमाल गोत्र एक सौ पांत्रीस . १३५ तिणि मांहे ऊगण्यासी गोत्र खरतर छे । एवंकारे उसवाल गोत्र ८४ । पोरवाड़ पंचायणेचा । मुँहतीया गोत्र सर्व । ८६| श्रीमाल गोत्र मांहे सर्व ७४ एवंकारे सर्व खरतर गच्छ गोत्र संख्या १६६ छै ।
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सवा लाख खरतर । जं०. यु० भ० जगगुरु पूज्य श्री पूज्य गुरु श्री जिनदतसूरिजी कीधा अनें अक लाख घर खरतर जं० यु० भ० पूज्य श्री पूज्य गुरु श्री जिनवल्लभसूरिजी ये गुरें कीधा । इस गुरु चेलां री आसति ॥ वली पूर्वी भ । श्री घणा पूज्य गुर श्रावक कीधा ते पार नथी, लिख्या जायै नथी ॥ तेइम
३६ सर्वे राजकुली अनेरी लहुडी राजकुली ना गुर खरतर छै । जगगुरु पूज्य प्रथम वृद्ध गच्छ छै । तेथी सर्वे श्रावक प्रथम थी खरतर छै। राजकुली थी प्राये सर्वे हुया छ । हिवणां विख्यात राठोड़ १ कछवाहा २ सीलोद्या ३ सोलंकी ४ वली जादव वंश भाटी ५ अनेरी राजकुली इत्यादिकना कुलगुर विख्यात । ए च्यार पांच वंस ना खर. तर परम्परा कुलगुरु । ए वार्ता अति प्रसिद्ध विख्यात छै॥ १३ श्रीमाल गौत्रसीधडा १ भागड़ा २ भादवीया ३ महेसवाल ४ मोठीया ५ मरदोला ६ महत्रुल ७ गलकट ८ बांहकट ९ कोद १० टाक ११ बहरा १२ मालवी १३ पल्हवड़ १४ हिडूया १५ सांभूया १६ मन्दोड़ १७ पूरवीया १८ दुसाझ १६ काठ २० चीतालिया २१ काला २२ वरहट्ट २३ ववरंग २४ मैसिबाल २५ मेहरा २६ धांधीया २७ दरडा २८ ढोर २९ वडीया ३० तुरकीय ३१ जूडगोत्र ३२ पापड़ ३३ .........३४ नाचण ३५ फाफू ३६ जूनीवाल ३७ घूबड़ ३८ खोसडीया ३९ खोवाड़ा ४० संगरिया ४१ झाड़चूर ४२ गभाणीया ४३ डोड़ा ४४ जाट ४५ पेटवाड़िया ४६ घेवरीया ४७ खारवाड़ ४८
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वदलीया ४९ फोफलीया ५० भंसाड ५१ भंडारीया ५२ खोरगा ५३ नवल ५४ पाताणी ५५ रांकीयांण ५६ ऊंबरा ५७ कालेरा ५८ भालोटिया ५९ विसनाली ६० मारू महता ६१ सांझीयाण ६२ कोडीया ६३ लवाह ६४ लडातुयै ६५ फूसखाणं ६६ घोघडीया ६७ मोगा ६८ वोहरा ६९ वारावायडा ७० तांवी ७१ रांडीका ७२ निलवहेडाऊ ७३ बोहतु उलीया ७४ कटारीया ७५ सोरठीया ७६ खसेण ७७ जलकढ ७८ अंकवीया ७९ मरहठ ८० वाइसा ८१ ..........८२ भाडंगा ८३ चन्देरीया ८४ पंगला ८५ मूसल ८६ भांडीया ८७ गूजरा ८८ दक्षेणो ८९ सूद्धडा ९० अंगरीया ९१ चूचर ९२ भूचर ९३ पाचेलीया ९४ संधोरिया ९५ पांचोसीया ९६ ठकडीया ९७ सोहू ९८ माथुरीया ९९ गलहरा १०० चाबड़ा १ फलावधीया २ बूबया ३ चंडूवा ४ मोथा ५ निधूम ६ घूरीया ७ नादरवाला ८ ठाहुरीया ९ गडूहीयागदीया १० आकाशपड ११ चांडी १२ तांबो १३ रीहालीया १४ कुठारीया १५ ऊखला १६ चूगला १७ परसाण १८ हींगडा १९ गदोडीया २० कांगड २१ लडवा २२ कूकडीया २३ कठोतीया २४ सांडीया २५ पंपोलीया २६ नेबहडीया २७. बाहपुरीया २८ हेमाऊ २९ थालीया ३० चरड ३१ मुराडी ३२ मदडीया ३३ मसूरीया ३४ हाडीगहणा १३५ ___अथ रांका वांका गोत्र श्री जिनदत्तसूरिजी प्रतिबोध स० १२०४ ते रांका गोत्र सबै खरतर गच्छ झालरापाटण में तूअर राजा खडगसिंघ भाई वांका एकदा समै श्री जिनदत्तसूरिजी ने बाँदवा आव्यो देसना दीधी धर्मोपदेश सुणो
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बोल्यो महाराज म्हारा घर में निरधनता छे धन उपार्जना हुवै तौ श्रावक व्रत अंगीकार कमैं (तद गुरे कह्यौ धर्मना प्रसाद थी घर में ताहरै निधान प्रगटसी। उठी घरे आव्यों दिन ३ में चरु दोय द्रव्य रा मुहरां रा भर्या जमीन में लाधा। तिणस मैं गुरु आव्या आगै देखै तो वांको उदर बिल खोदै छे तरै गुरें पूछीयो किमू करें छे तरै कह्यो महाराज उंदरा बिल में मुहरां ले गया तिण वास्ते बिल जोउ छु । तरै गुरे को निधान घर में लाधां पृठी उंदरारा बिल खोदै छै सोनू बडो रांको,छै। तिण सू रांका गोत्र । सम्वत् १२०४ थयौ छै। पछे पातसाह ना मोदीखाना कीधा तठा थी पातसाहे सेठ पदवी दीधी । ए रांका गोत्रनी उत्पत्ति और गोत्रानी उत्पत्ति १६६ गोत्रनी और जूनीवारता जैसलमेर ना जुना वेहाठां थी केतली परम्परा श्री गीतारथा नी लिखी छे । जथ खरतर गच्छ श्रावकारी उत्पत्ति याद लिख्यते __ अथ रतनपुरा वौहरा मांहि हुँ कटारीया गोत्र नीकल्यौ तिणरी वंसावली याद-नख चवांण मनरंगदेव पुत्र धनपाल ते एकण दिन सिकार गयौ वन खंड उधान में, तिहां रात्र रह्या रातें सूतां सर्प डस्यौ सो अचेत पण हुऔ मृत्यु तुल्य । तिण समै खरतरगछनायक श्री जिनदत्त सूरिजी तिहां आवी नीकल्या । धनपाल नै अचेत देखी पाणी मन्त्री छांट्यौ तिवारै सावचेत थयै हाथ जोड अरज कीवी स्वामी नगर में पधारौ, हूं आपरौ श्रावक छु आप फुरमावौ वचन प्रमाण करु । इसो वचन सुणी लाभ जाणी घनपालरै धरे आया संवत् ११८२ धनपाल रा उपगार थी सर्व खरतर गच्छ श्रावक थया ।
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दोहा-संवत इग्यार व्यासी समें, विषधर नौ विष टाल ।
जीवाड्यौ धनपाल ने, सद्गुरु एहवो भाल ॥१॥ हिवै खरतर गच्छ रा श्रावक छै तिके आषाढ मुदि ११ दिने दादाजी जिनदत्तसूरिजी रा पगला तोला १। घडावी प्रतिष्ठा करावी पूनम पूनम पूजीजैतौ वंस वधै लक्ष्मी सौभागय यश वधै । हिवै रत्नपुरा गोत्र साखा तेहना नाम रत्नपुरा १ बलाही २ कटारीया ३ कोटेचा ४ सापद्रहा ५ सामरीया ६ नराण गोत्रा ७ भलाणीया ८ रामसेणाऔं ९ साखा कटारिया सहवाजरा उठ्या कैरुंवास, देवातडै, आसरलाइ में साख १२ इहां नख थयौ कटारिया में नख नीकल्यौ गौरी पातसाह रो मन्त्री पणौ कीधौ तिणथी मन्त्री कहाणा मांडवगढे मुंझांझणसी सिद्धाचल जी नी जात्र गया जदि बांणु लाख मालवा रौ मालवा रौ दांण इजारै थौ सो वरस १ री पैदास प्रभू जी ने चढाई । जद दूजां लोकां ईसकौ कर पातसाह सुं मालम करी जद मुंहता झांझणसी पेट में कटारी पैरी पेटी बांधनें पातसाह रै हजूर आगौ सर्व हकीगत कही आपका बोल बाला पीर के आगे कर आया तब पातसाह बहुत खुसी हुवा पेटी खोलो कटारी काढी प्राण-मुक्त हुवौ तिहां थी कटारीया गोत्र नख थयौ खरतर गच्छ श्रावक कटारीया गौत्र साखा मांडवगढ में छै ।
अथ डोसी गोत्र उत्पत्ति-प्रथम साख पमार कहीजे मांडवगढे धारानगरे श्री जिनदत्तसूरिजी प्रतिबोधत सं० ११४७ चैत्र सुदि ७ बुधे प्रथम सिद्धसेन पुत्र राजा भोज भोजराज पुत्र बंधराव पुत्र उदयादित्य पुत्र जगदेव पुत्र डारिष पुत्र पलरिषी धवल छराव गहिलडौ हंसराज वछराज कावौ माधौ गूगौ रिणिधवल रै केड रा सूरांणा डोसी
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गोत्र थया पलरा ब्रह्मेचा गोत्र थंया बैद डोसी कोसी गोत्र में ए कुलरीत छै ऊकरडी चाक अबोली नौतरै प्रथम टावर हुवां मजीठ देवै पछे देवै नही ए रीत है ।
बलाहियाँ री उत्पत्ति- गछ खरतर हरपाल भाई डाहा पुत्र सिषा भगा हरपाल | हरपाल बलायां सूं व्यापार कीनौ रातदिन व्यापार करतौ बाथीयां पड़तौ तिण सुं बलाही गोत्र नख थयौ । संवत् १६४९ वर्षे | आदु रतनपुरा चौहरा गोत्र था पछै हरपाल सुं बलाही गोत्र नख थयौ खेत्रपाल जेसलमेर रौ माताजी खीमज गोत्र जठै जायें परणें चांदणी पांचम रात्रीजोगौ ॥
( अभय जैन ग्रन्थालय प्रतिन- ७७६४) गाहा (चौसरा)
(४) अथ लुणीया गोत्र उत्पत्ति लिख्यतेः
सुबध भंडार मात सरसती । अवरल वाणी देह उकत्ती ॥ देवीदास दियण बहु दत्ती । कोड घणे कर करूं कीरती ॥ १ ॥ इण घरि आदि हुवा इधकारी । पूजे जे मुज पंच हजारी ॥ धर मुलतान देस छत्रधारी । करे राज सुविहाण करारी ||२|| तिण सागल परधान प्रतप्पे । जालम हाथी सहू को जप्पे ॥ एकां थापे एक उथपे । कवि जाचे ज्युं कुरि इद कपे ||३|| पुत्र जास लूणो प्रतिपालं । जात महेसरी वंस उजालं ॥ रैण दिवस रंग रमे रसाल । आठ पुहर सुख रहे अचालं ||४|| एक दिवस स्त्री पुत्र युता । सेझ रमें निद्रा भर सुत्ता ॥ सरके वेणि ढले सिरहुँता। हर कर सरप चढ्यो तिणपहुता ||५|| चढ़ कर विंदी ठोड़ चिटकायो । पन्नग डस्यो साह मृत पायो || जागे नही पित मात जगायो ।
जब आलम मिल जोवण आयो ॥६॥
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हाहाकार हुआ घर हाथी । सत कर चली सती हुय साथी ॥ मिल आये मानव मीण धारी ।
वेग हुवौ म करो काइ वारी ||७|| समे तेणे रिषराव चोमासे । आया जिनदत्तसूरि उलासे ॥ उछरंग सकल संघ उचारि । तिण सामेले कीध तयारी ||८|| जब आ खबर सुणी जिणदत्तं । मंत्री लूण पामीयो मृत्तं ॥ जाय कहो हाथी इण जप्पे । जो जीवाडां जैन धर्म प्ये ॥९॥ सुनि श्रावक मूक्यौ समझावी । धर चंपे पुहतो ओ धाई || तिहां लापे कज कीध तयारी ।
उन मानव मुख एह उचारी ॥ १०॥ कहै रिषि एम सुणो सह कोई । जो जीवाडं जैन धर्म होई । प्रजा हाथी सह को परफुलं । कहीं बात सह कीध कबूलं ॥ ११॥ पांच सात गया रिषि पासे । जीवाड़ो साह जैन भ्रम आसे । एह वयण सुणी रिष आये । पास हुँता सह लागा पाए ॥१२॥ तब पड़दा चिडु पास तणाया । पुरुष त्रिया मांचे पोढाया ॥ मंत्र पढे विष तेडे मुनिवर । कह्यो एम इण सरजीवत कर ||१३| फणधर चढे चूस विष फिरियो । घड़ी मांहि सास उस घिरीयो । बाजा फिर मंगलीक बजाया ।
कोड़ भांत कर उछरंग कराया ॥१४॥ व्याह जेम घर बांटी वधाई । धन-धन हाथी तुज्झ कमाई ॥ पुत्र लुणो अचल पद पायो ।
दिन दिन दीपो बड़ + घर दावो ॥१५२॥
॥ दुहा ॥
धीगडमल मुलताण धर, जिनदत्तसूरह जाय । श्रावक कीध महेसरी, दीया वंस दीखाय ॥ १६ ॥
+ तेज सवायो । देवायंस |
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संबत इग्यार बाणु समे. गुरु पुष जोग गहीर । वृसपत सातो वैशाख सुदि, श्रावक भ्रम सुं सीर ॥१७॥ लूणो ध्रम आदर लखो, जग लीधो जस वास । पाति तेम विरदाधिपति, दीपे देवीदास ॥१८॥
॥ छंद सारसी ॥ जिण वंस मानव जोति धारी हूवा सो दाखां हिवै। देणा ज दान दुझाल दाता कोन के आसति किवै ॥ महिपति मोटा जिके माने बुद्धि सागर संबला । दीपेह तिण धर तेज दिणयर चंद ज्यु चढती कला ॥१॥ सुन्दर क्षमा क्रमसी कहे मोजि मोकल भाखीये । मनोहारि मेहाद्रुजण मन्त्री देवक्रण मोजां दीयै ॥ सुजस लेणा सकल संघ में सांभ कामि सिद्धरा दी०। ॥२॥ हरचन्द वारा जेम हाले*ना हुवे निवला सबल, भामा ज जगड जेम भासे अचम्गला । दी० । ॥३॥ सरकरण सत्रां सूर साहे हुकम मोल हलावही । कर जेर के वीरेत कीधा पेश दे ग्रह +पावही ॥ मेवासियां मन माण भू क्या आवे ओलग अम्गला दी०। ॥४॥ बंधवा जोडं जुग्ग कोडं इला अंबर आखीये । आतम उलासं ऋषभदासं दान वीकम दाखीये ॥ विमलेस वठहथ अंके वारा नरा बिहुँ पख निर्मला दी०॥५॥ कवि राव मोठा करे कीरत गीत छंदह गावही । मन मेर कर ज्यु दीये मोजां बडे हेत वधावही ॥ मुरकीयां मोती कंठी माला कडा मुंदर संकला दी॥६॥ Xठाणुं । *भाखै । देसहि ।
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२१
आसीस षट के व्रत एम आखे तू तपे सलियर सुरज परवार पूते जेम पसरो भल बजो घर जस बजां वेदुआ तरबर वंस रव ज्युँ प्रभवति बाघो प्रधला || दी० ॥७॥
॥ कलश ॥
कला चढती क्रीत धीग दीपे पण धारी । साच वाख सूत्रवी साच सुं सबद धर सारी | ऋषभदास विमलेस आल नह मुखा उचारे । सुत लीलो मीरदार* मेहेल व्रण ओट उवारे । मांगणा मेह मेहरांण मन वाच साच विरदांव है | देवीदास सुजस दुनियां देखे कवि व्याह इसु सबद कहै ॥८॥
॥ इति लूणीया गोत्र उत्पत्ति सम्पूर्णम् ॥ (अभय जैन ग्रन्थालय प्रति नं० ७७६७)
(५) संखवाल गोत्र इतिवृत्त
अथ संखवाल गोत्र की उतपत चहुआग वंस, देवड़ा गोत्र, मूलवासी नाइलरा, तुरकाणी रे भैहुती जालोर आवी रहा । जालोर तुरक आव्या तिवाणां कांनड़दे देवगत थयौ । कानड़दे पुत्र लखमसीने तुरकां काढीयौ तिवाणां लखमसी संखवाली गाम मांहे आवी रह्या । तिहांश्रीरत्नप्रभुसूर आवी प्रतबोधी श्रावक कीधो लखमसी श्रावक थयो सम्वत ७१३ वर्षे माहा सुदि ५ गुरवारे संखवालीगांम हुँती संखवाल गोत्र थयो । देवी ३ थई । संखवाली १ साचोली २ अम्बका ३ अनै जालोर रो खेत्रपाल । इम ४ गोत्रीया थआ तणरी
*सीरदार वल
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पटावली री परम्परा माहे कोचर थयो तिणे कोचर कोरटै गाम माहे देहरौ करायौ अनै संखवाली गाम मांहे श्री आदीसरजी रो देहरौ करायौ कोचर भार्या कल्याणदे तणे आपरै धणी न खरतर कीधो । इनैश्री जिनेसरसूरि पासे देहरै री प्रतिष्ठा करावी तिवारै खरतर थयो स० १३१३ वरषे कोचर साह खरतर थयो ।
कोचर पुत्र ५ तण मधे लघु पुत्र रोलू भेलो हुतो तिण रोलू रा केड़ाइत खरतर । १ कानड़दे पुत्र लखमसी , १३ केल्हा पुत्र धन्नां २ लखमसीपुत्र सचीदास १४ धनापुत्र जसा ३ सचीदासपुत्र नरसंघ १५ जसापुत्र राइमल ४ नरसंघ्रपुत्र धना . १६ राइमल पुत्र केसव ५ धनापुत्र धनपाल १७ केसवपुत्र सिखरा ६ धनपालपुत्र राजसी १८ सिखरापुत्र नथमल ७ राजसीपुत्र अम्बवीर १९ नथमलपुत्र संघजी ८ अम्बवीरपुत्र कोचर २० संघजीपुत्र मलुकचन्द ९ कोचरपुत्र रोलु २१ मलुकचन्दपुत्र पेमजी १० रोलूपुत्र मूलू २२ पेमजी पुत्र ४ जेतसी, ११ मूलू पुत्र दीपमल नेतसी, हेमसी, भीमसी १२ दीपमलपुत्र केल्हा २३ जेतसीपुत्र जेसरूप
२४ जेसरूप पुत्र धनरूप, अमरचन्द स० १७२३ मार्गशीर्ष शु० १ शनि सा० संघजी पुत्र जन्म मूलनक्षत्रे
स. १७४९ माह कृ० ३ शनि सा० संघजी पुत्र मलुकचन्द गृहे पुत्रजन्म (प्रेमजी)
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स. १७५७ भा० सु० १० भौम सा० संघजी पु० मलूकचन्द गृहे पुत्र (नाम भूधरदास) जन्म
स. १६९७ (चैत्रादि) ज्येष्ठ वदि १० भूमवारे संखवाल नथमलगृहे पुत्रजन्म (झांझण जन्मनाम )
स० १७३४ साह सिंघराज कस्य ३८ वर्ष प्रवेश वै० सुदी १४ (६) भणशाली गोत्र-प्रतिबोध और थाहरूशाह वंशावली उ० जयचन्द्रजी गणि के पास प्राचीन संग्रह से प्राप्त
सम्बत् १०९१ श्री लौद्रवपुर पट्टण माहै यादवकुल भाट्टी गोत्र श्री सागर नामै रावल राज करै तेहनै श्रीमती नामै राणी है तेहनै ११ पुत्र हुवा । मृगीरै उपद्रव सू ८ मरण पाम्या । तिण अवसरै श्री खरतर गच्छ मांहे श्री वर्द्धमानसूरि आचार्य शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि विहार करता श्री लोद्रपुर आया । तिवारै सागर रावल श्रीमती राणी प्रमुख वांदण नै आया । वन्दना कर हाथ जोड़ राजा वीनती करी स्वामी माहरै ८ पुत्र मृगी रा उपद्रव मुं मरण पाम्या हिवै पुत्र हैं सो कृपा कर जीवता रहै तिम करौ । तिवारै श्री जिनेश्वरसूरि बोल्या, सुण राजा थारा पुत्र जीवंता रहै जिणमें म्हानै किसौ लाभ ? जो तीन पुत्र मांहि सुं १ ने राज दौ २ दौय पुत्र म्हारा श्रावक हुवै तो म्हे रिख्या करां, तिवारै कुलधर नै राज्य दीयौ श्रीधर नै १ राजधर नै २ श्री जिनेश्वरसूरि वासक्षेप को श्रावक कर्या तिवारै श्रीधर १ नै राजधर २ नं १ श्री पार्श्वनाथजीरा देहरा कराया श्री जिनेश्वरसूरिजी घणौ द्रव्य खरचायौ प्रतिष्ठा करी भण्डार री साल मांहे वासक्षेप को इण वास्तै भण्डसाली
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गोत्र हुवौ, तिवारै पछै श्रीधर रै ५ पाँच पुत्र हुवा खीमसी १ भीमसी २ जगसी ३ रूपसी ४ देवसी ५ तिणमैं खीमसीरी पीढी चाली बाकीरांरी पीढी आगे न चाली इण वास्तै खीमसी पुत्र कुलचंद ३ तत्पुत्र देव ४ तत्पुत्र धनपाल ५ तत्पुत्र साधारण ६, तत्पुत्र पुण्यपाल ७, तत्पुत्र सजू ८ तत्पुत्र देदू ६, तत्पुत्र गजमाल १० तत्पुत्र जयतौ ११, तत्पुत्र खेतसी १२, तत्पुत्र वस्तौ १३, तत्पुत्र पुंजी १४, तत्पुत्र आसकरण १५, तत्पुत्र यशोधवल १६, तत्पुत्र पुण्यसी १७, तत्पुत्र श्रीमल्ल १८, तत्पुत्र थाहरू १६. तिवारे थाहरू लोद्रवे जी रा देहरा पया देखनै जीर्णोद्धार करायौ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जी री मूरति युगल देह थापी श्री जिनराजसूरिजी प्रतिष्ठा करी, घणा पुस्तक लिखाया, श्री सिद्धाचलजी संघ काढ्यो, इण भांत धर्मरी घणी उन्नति करी, थाहरुसा पुत्र २ मेघराज १ हरराज २ पुत्र मूलचन्द, तत्पुत्र लालचंद, तत्पुत्र हरकिशन, तत्पुत्र जेठमल, १ लघुपुत्र जसरुप २ जेठमल पुत्र २ गोडीदास १ जीवराज २ गोड़ीदास पुत्र ऋषभदास इति थाहरु वंशावली ।
( जैन लेखसंग्रह भा० ३ जैसलमेर पृ० २८ से)
(७) श्रीमालवंशीय खरतर गोत्र नामावली
एतला गोत्र श्रीमालना वड़ा खरतर जाणिवा १ नागड़
६ सिंधुड़ २ पापड़ (भण्डारी भेद)
७ घबरिया ३ फोफलिया केपि
८ सड़िया ४ बुहरा केपि
९ सागियाण ५ खारड़
१० गलकटा
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२१ वह कटा
२० कूकड़ी १२ पारसाण (पक उड़िया
२१ मोगा पारसाण भेद)
२२ खोर १३ भाव्माणिया
२३ धूपड़ केपि २४ मांडिया
२४ फांफ केपि २. नाचिण
२५ तांबी केपि २६ माडगा
२६ डुंडा १७ काठ
२७ झाडचूर १८ विनालिया
२८ पाल्होड केपि १९ मउठिया केपि
एतला गोत्र श्रीमाल ना लहुड़ा खरतर १ महिमवाल १३ कादमिया २८ वाइस २ टाक
१४ भइसडिया २९ फोफलिया केपि माणिक टांक १५ चूचर ३० वुहरा केपि गंडीया १२ १६ काला ३१ मलंठिया केपि पटाकका भेद १७ उठाग ३२ फा केपि ३ बद्दलिया १८ गडहिया ३३ तांबी केपि ४ फूलखाण १० गधहिया ३४ पदरवंड ५ धांधिया २० खोर ३५ भालोठिया ६ कुंगडेकी २१ विसणालिया ३६ मद्दल
२२ मथुरिया ३७ बरट्ट ८ नीबहेठा २३ धृपड़केपि ३८ तुरकीय २ पिटवाड़िया २४ निभेडिया ३९ मालविया १० विहुलिया २, कटारिया ४० वापडा ११ भिंसवाली २६ साझ४१ चन्देरिया १२ मथुरिया २७ सांभउतिया ४२ मांदउठिया
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देवडे
काठ
श्रावक श्रीमाल गोत्र विवरण ।
बडे खरतर एते गोत्र ॥ अकदूदिए १ तांबी
मसूरिए ४८ कोडिए २ तुरकिए २६ . पारसाणि ४९ काले ३
पापड ५० कृकडीमारुमहते४ धूपड २८ पटोलिए ५१ कटारिए ५ नागड
पाताणिए नामचण ३० फाँफू खारड ७ बरटझाडचूर रांडी के ५४ खउसडिए ८ अल्ल ३१ रेपतिए ५५ गद्दहिए
जूनीवाल ३२ रयणाचरे ५६ गलकटे १० वहुरे ३३ सागियाणि ५७ गभाणिए ११ भण्डारी ३४ सांउसखे ५८ गिदउडिए १२ भोथे
सोनगरे ५९ घेवरिए १३ भुसन्ड ३६ सिंघउड ६० पेटवादिए १४ भांडिया ३७ सांभरीए ६१ चिनालिए १५ भाडगे
लखउटवाज ६२ चूचर
भालुंठिए ३९ बायडे ६३ जाठ
महते ४० रांकियाणि ६४ जडकढ़ मोगे
मादिलपुरिए ६५ झाउचूर मणिहंड
लटबाले ६६ वहकटे
मोसले ४३ भइसवाल ६७ डामरे
मांदउठिए ४४ ढोर ६८ डउँडे
मईले ४५ विहउलिए ६९ डू गरिए २३ पचउलिए ४६ धांधिए ७० तबल
मछुरिए ४७ महिमवाल ७१
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लठाहले ७२ टीटउलिए ७७ चीचड ८२ कुकडकिए ७३ डाहरिए ७८ मूसल ८३ फुसखाणे ७४ पल्हउड ७९ भइरवउज जूनीबाल ७५ वांके
महिम महिछइ टाक ७६ धर्मघोष ८१ विसनालिए ८४
बडे स्वरतर गछ के सर्षमहितियाण ओसवालगोत्र ४८ योघरा १ बहुरे १४ तिल्हरा २७ संखवाल २ भणसाली १५ वलाही पारिख
डागा १६ फोफलिया २९ चोपडा भूरा
फसलाजालउरे तातहड़ १८ मंत्री . ३० सेठिया
चम्म १९ . भडारी गदहिया ७
नवलखा सांऊसखा ८ ल्लिगा २१ कोठारी गोलवछा ९ रीहड २२ . कुहाड धाडीवाहा १० बापणा
लाढे नाहटा ११ . खुछडा
नखत लूणिया. १२ भूगकी
टाटिया गणधर १३ माल्ह २६ घीया
कटारीया
छाजड
पीपाडा श्री वर्द्धमानसूरिजी सम्वत् १०७३ में सूरि महाराजने पीपाड नगर के स्वामी गहलोत क्षत्रिय कर्मचन्द्रको धर्मोपदेश द्वारा प्रतिबोध देकर जैन श्रावक बनाया उससे गोत्र पीपाडा निकला।
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सचेतो
सम्वत् १०७६ में गुरु महाराज दिल्ली पधारे। वहाँ सोनिगरा चौहान राजा के पुत्र बोहित्य को सौंप ने काट खाया । उसे मृतक ज्ञात कर श्मशान ले जाने लगा तो मार्ग में वटवृक्ष के नीचे अवस्थित गुरु महाराजने कहायदि जैनधर्म स्वीकार करे तो यह जीवित हो सकता है।
राजा के स्वीकार करने पर गुरु महाराजने उस पर अपनी अमृत- स्राविनी दृष्टि डाली जिससे वह सचेत होकर उठ बैठा । बोहित्य राजपुत्र जैन बना। गुरु महाराज ने 'सचेती गोत्र' स्थापित किया ।
लोढा - अन्यदा गुरु महाराज ने लाढा महेश्वरियों को प्रतिबोध दिया, जिससे वे जैन होकर 'लोढा' गोत्रीय प्रसिद्ध हुए ।
श्रीपति तिलेरा, ढा
श्री जिनेश्वरसूरि -- सं० ११०१ में श्री जिनेश्वरसूरिजी महाराज गोढवाड़ के नाणा बेड़ा गांवमें पधारे वहां सोलंकी क्षत्रिय गोविन्दचन्द्र को धर्मोपदेश से प्रतिबोध देकर जैन बनाया, उनका श्रीपति गोत्र हुआ। गोविन्दचन्द्र के पुत्र तैल का बडा व्यापार करने से तिलेरा कहलाये । उनके वंशज वाढा तिलेरा आगे चल कर स० १६१५ में शरीर में हृष्ट-पुष्ट होने से ढढ्ढा (दृढा) कहलाने लगे ।
श्री श्रीमाल
जिनचन्द्रसूरि - दिल्लीश्वर पेढ पमार का भंडारी श्रीमल महत्तियाण जाति का शिवभक्त था। पेढपमार श्रीमल के
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समक्ष यदा कदा शिवादि देवों की हंसी उड़ाया करता था। श्रीमल्ल उत्तर देने में असमर्थ होने से मन मसोस कर रह जाता था। एक बार (संवेगरंगशाला कर्ता) श्री जिनचन्द्रसूरिजी के दिल्ली पधारने पर उनके उपदेशों के प्रभाव से पेढ पमार ने मांसभक्षण का त्याग कर दिया और देव गुरु धर्म का स्वरूप समझ कर श्रीमल्ल भी श्रावक हो गया। गुरुमहाराज ने श्री श्रीमाल गोत्र की स्थापना की।
महतियाण श्रीमल के घर में धनपाल को निवास कराया, वह भी श्रावक हो गया। बादशाह ने उसे महत्त्व दिया, गुरु महाराज ने महत्तियाण गोत्र स्थापना की।
पगारिया मेडत्वाल खेतसी अभयदेवमूरि-संवत् ११११ में श्री अभयदेव सूरि महाराज भिन्नमाल पधारे। धनाढ्य ब्राह्मण जाति शंकरदास गुरुमहाराज की देशना से प्रतिवोध पाये। उनके वंशजों की पगारिया, मेडतवाई और खेतसी नामक तीन शाखाएं चली।
घाडीवाह, कोठारी, टांटिया श्री जिनवल्लभसूरि-श्री जिनवल्लभसूरिजी विचरण करते हुए एक वार उजापुर पधारे। वहां का डीडा नामक खीची राजपूत धाड़ पडता था। सिद्धराज जयसिंह ने उसे पकड़ने के लिए योद्धा भेजे उसने राजा का खजाना ही लूट लिया। राजा ने क्रुद्ध होकर बीस हजार सेना भेजी। डीडाजी पच्चीस खीचियों के साथ श्री जिनवल्लभसूरिजी के शरण में गए। गुरु महाराज ने उसके मस्तक पर वासक्षेप डाला जिसके प्रभाव से वह विजयी हुआ और उनसे प्रति
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३०
बोध पाकर पच्चीस खीचियों के साथ जैन हो गया । सूरिजी ने 'धाड़ीवाहा' गोत्र स्थापना की । सिद्धराज ने उसे अपना सेनापति बना लिया और ४८ गाँव दिये । डीडाजी के पुत्र से 'कोठारी' शाखा निकली उसकी छुट्टी पीढी में सांवलजी से 'टांटिया' शाखा प्रसिद्ध हुई ।
लालाणी, बांठिया, ब्रह्ममेचा मल्लावत हरखावत, साहजी
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सं० १९६७ में श्री जिनवल्लभसूरिजी रणथंभोर पधारे। उस समय वहाँ लालसिंह नामक पमार क्षत्रिय राजा था, जिसके सात पुत्रों में ब्रह्मदेव जलोदर रोगग्रस्त था । गुरु महाराज की कृपा से पुत्र निरोग हो गया और उपकृत राजाने जैन धर्म स्वीकर किया । उसके वंशज लालाणी कहलाये । बंठदेव योद्धा से बांठिया, ब्रह्मदेव से ब्रह्ममेचा, मल्ल से मल्लावत, हरखचंद से हरखावत हुए उदयसिंह के साहजी कहलायें ।
भणसाली, खरभणसाली, चंडालिया, कच्छवा रायभूरा पुगलिया
आभूदुर्ग में श्री जिनवल्लभसूरिजी पधारे वहाँ के सोलंकी राजा आनड़देव के संतान जीवित नहीं रहती थी । गुरुदेव के प्रताप आशीर्वाद से सात रानियों के सात पुत्र हुए । राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया । भाण्डशाला में सम्यक्त्व ग्रहण करने से भणशाली गोत्र प्रसिद्ध हुवा | श्री जिनदत्तसूरिजी के लिए जीवितव्य अर्पण करने वाले गुरु भक्त खर भणशाली कहलाये । चन्डालिया, कच्छावा, राय भूरा, पुगलिया आदि उसी भणशाली वंश की शाखाएं है
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संघवी-नवलखा पल्लीवाल, फसला निनवाणा
सं० ११६४ में श्री जिनवल्लभसूरि सीरोही पधारे वोहरा सोनपाल निनवाणा के पुत्र को सर्पदंश हुआ । गुरु महाराज के विष उतारने पर वह जैन हो गया । उसने शत्रुजय का संघ निकाला । गुरु महाराज ने संघवी गोत्र प्रसिद्ध किया । इन्ही में से नवलखा, फसला, निनवाणा शाखाए निकली।
कांकरिया सं.११४२ में श्रीजिनवल्लभसूरि कंकरावता गाँव पधारे। वहां के राव भिमसिंह पड़िहार को राणा ने अपने सेवार्थ चित्तौड बुलाया उसके न जाने पर जब सेना आई तो राव ने गुरु महाराज की शरण ली । उनके उपदेश से उसने जैनधर्म स्वीकार किया । गुरु महाराज के कथन से सेना पर कंकर फेंके गए जिससे शत्रु के सारे शस्त्र कुंठित हो गए । राणा ने प्रसन्न हो कर भीमसी को सम्मानित किया। कंकरो के महात्म्य से 'कांकरिका' गोत्र स्थापित हुआ ।
श्री जिनदत्तसूरि विक्रमपुर में मरकोपद्रव होने से श्री जिनदत्तसूरिजी ने जैनों को रोग मुक्त कर दिया। इस प्रभाव से माहेश्वरी लोग भी जैन हो गए और कितने ही वैराग्य वासित होकर सूरिजी के पास दीक्षित हो गए । गुरुदेव ने इस प्रकार नाना नगरों में विचरते हुए एक लाख तीस हजार जैन बनाये । यहाँ कितने ही लोगो का परिचय दिया जाता है।
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कूकड़ चोपडा, गणधर चोपडा, गाँधी, सांड
एक वार जिनदत्तसूरि मण्डोवर पधारे । वहाँ के पडिहार राजा नानुदे के चार पुत्र थे । एक दिन रात्रि में भोजन करते समय बडे राजकुमार के सांप का विष आ गया उसका सर्वाग विष व्याप्त हो गया । राजा के मंत्रतंत्र औषधि आदि नाना उपचार निष्फल होने पर कायस्थ मंत्री गुणधर ने जिनवल्लभ सूरि का नाम लिया । राजा ने कहा मैं उन महापुरुष से उपकृत हुँ मेरे सन्तान नहीं थी, मैंने गुरु कृपा से सन्तति पायी । मैंने प्रथम पुत्र को गुरु चरणों में समर्पण करने का संकल्प किया था । मन्त्री ने कहा आपने क्या प्रतिज्ञा पूर्ण की ? राजा ने कहा नहीं की, अब कोई उपाय बताओ ! मन्त्री ने कहा-वे तो स्वर्गवासी हो गए, पर उनके शिष्य जिनदत्तसूरि के पास जाकर क्षमा याचना करने पर वे इसे जीवतदान दे सकते हैं। राजा ने गुरुमहाराज के पास ले जाकर पुत्र को दिखाया । उन्होंने कुकड़ी गाय के माखनघृत को मन्त्रित कर राजकुमार के शरीरमें मालिश करवाया जिससे वह तत्काल निर्विष हो गया। राजा बहुत से कुटुम्बों के साथ जैन हो गया । कुकड़ी गाय का नवनीत चोपड़ने से राजा का गोत्र कुकड़ चोपड़ा हुआ मन्त्री गुणधर ने नवनीत चोपड़ा था, इस लिए उनका वंश 'गुणधर चोपड़ा' स्थापित किया। आगे चलकर गांधी गोत्र व्यवसाय से हुआ ।
राजपुत्र सांडा से सांड हुए । चीपड़ पुत्र से चीपडा हुए इसी प्रकार कोठारी, धूपिया, बुबकिया, बडेर जोगिया, हाकिम, दोषी आदि गोत्र उन्हीं में से प्रसिद्ध हुए ।
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बाफणा नाहटादि शाखा मालव देश के धार में क्षत्रिय पंवार पृथ्वीधर राजा के सोलहवें पट्ट पर जीवन और सच्चू राजकुमार हुए । वे किसी कारण धार छोड़कर मारवाड़ आये । जालोर के राजा के साथ युद्ध हुआ कनौज के जयचन्द (१) की सहायता मिली पर किसी की भी हार जीत नहीं होने से गुजरात में श्री जिनवल्लभसूरिजी को विनति की गई। उन्होंने जीवन-सच्चू के जैन होने पर उपाय बताना स्वीकार किया । बहुफण पार्श्वनाथ का विधि पूर्वक शत्रुञ्जयी मन्त्र भेजा जिसके प्रभावसे शत्रु सेना छिन्न-भिन्न हो गई कन्नौज पतिने उन्हें सम्मानित कर शक्ति-प्राप्त का कारण ज्ञात किया । दोनों भ्राता गुरु दर्शन के लिए चले ।
उनके स्वर्गवासी होने एवं प्रभावशाली श्री जिनदत्तसूरिजी की कीर्ति-गाथा ज्ञात कर उनके चरणों में कृतज्ञता ज्ञापन की । सूरिजी ने उन्हें प्रतिबोध देकर बहुफणा-बाफणा गौत्र प्रसिद्ध किया । सच्चु, जीवन के ३८ पुत्र हुए जिनमें साँवत वीर शिरोमणि था। उनके पुत्र जयपाल पृथ्वीराज के सेनापति हुए, छः बार काबुल के बादशाह पर विजय पायी । पृथ्वीराज ने संग्राम में नहीं हटने से "नाहटा" विरुद दिया रायजादा, भूआता, घोडबाड, मरोठीया, हुंडिया, जांगडा, थुल्ल, सोमलिया, सोमलिया, बांहतिया, वसाहा, मीढड़िया, धतूरिया, पटवा, बाघमार भाभू नाहऊसरा, धांवल, नानगाणी. मकेलवाल, साहला, दसोरा, कलरोही, खोखा सोनी, तोसालिया, भुंगरवाल, कोटेचा. संभूआता, कुचेरिया, जोटा, महाजनीया, दुगरेचा, मगदिया, कुबेरियां आदि बाफणा वंशकी कितनी ही शाखा प्रशाखाएँ आगे चल कर प्रसिद्ध हुई।
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चोरवेडिया पूर्व देश की चंदेरी नगरी में राजा खरहत्थ राज्य करता था जिसके अम्बदेव, निम्बदेव, मेसा और आस पाल नामक चार पुत्र थे। एक बार यवन सेना ने आकर देश को लूटा तो राजा ने अपने पुत्रों के साथ उसका पीछा किया और यवन सेना को हराकर लूट का धन लौटा लाये । जिसका जिसका धन था, उन्हें दे देने पर भी राजा के पास बहुत धन बच गया पर राजा और राजकुमार संग्राम में काफी घायल हो गए । बहुत उपाय करने पर भी उनके घाव नहीं मिटे ।
संयोगवश जैनाचार्य श्री जिनदत्तसूरिजीके वहां पधारने पर राजा ने आकर गद गद् स्वर से प्रार्थना की । कृपालु गुरुदेवने एक आज्ञाकारिणी देवी से कह कर उन्हें बिल्कुल निरोग कर दिया । गुरु महाराज के उपदेश से राजा सपरिवार अनेक क्षत्रियों के साथ जैन हुआ, यह सं० ११९२ की बात है । एक वार अम्बदेव ने चोरों को पकड़. कर उनके बेडी डालदी जिससे चोरवेड़िया कहलाये। उनसे सोनी, पीपलिया, फलोदिया, नाणी, धन्नाणी तेजाणी पोपाणी रामपुरिया, कक्कड़, मक्कड़, लुटकण, सीपाणी, भक्कड़, मोलाणी, देवसयाणी, कोबेरा, चगलाणी भट्टारकिया, सद्दाणी आदि शाखाएं क्रमश. हुई ।
भटनेर गांवमें न्याय करने से निंबदेवके वंशज भटनेरा चौधरी कहलाये।
सावणमुखा तीसरे पुत्र भैंसासाह के पांच पुत्रों में ज्येष्ठ कुँवर जी ज्योतिष, शकुनादि के बडे विद्वान थे । उन्हें चित्तौड़
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नरेश ने श्रावण भाद्रपद का भविष्य पूछा तो उन्होंने कहा सावण सूका, हरा भादवा होगा । बात मिलने पर सबने प्रशंसा की कौर उनका गोत्र सावणसुखा कहलाया ।
गोलछा-दूसरा पुत्र गोला और तीसरा वच्छराज था । जिनके वंशज 'गोलेच्छा कहलाये ।
पारख-भेसासाह के चतुर्थ पुत्र नाम पाशु था । आहड़ नरेश चंद्रसेन ने उसे रत्नादि की परीक्षा के लिए अपने पास रखा, उसके वंशज पारख कहलाये ।
पांचवें पुत्र गद्दाशाह के वंशज 'गद्दशाह' और आशपालके आशाणी कहलाये।
इस प्रकार राठौड़ खरहत्थ के वंशज और भी आगे चलकर बुच्चा, फाकरिया, घंटेलिया, कांकड़ा, सचोपा, साहिला, संखवालेचा, कुरकच्चिया, सिंधड़, कुंभटीया, ओस्तवाल, गुलगुलिया आदि पचास ५० गोत्र प्रसिद्ध हुए।
: आयरिया, लूणावत सं० १९९८ में श्री जिनदत्तसूरि सिन्धु देश पधारे हजार गाँवों का स्वामी अभयसिंह भाटी शिकार के लिए जा रहा था, उसने अशुभोदय से आहार के लिए जाते मुनिदर्शन को अशुभ मान कर अपशब्द कहे। राजा के अनुचर ने मुनि को कष्ट दिया उसके शरीर में रक्त-पुष्पी हो गई । राजा ने क्षमायाचना की मुनिने अपने गुरु महाराज श्री जिनदत्तसूरि को सिन्धु नदीतट पर बतलाया । राजाने जाकर गुरुवंदन किया। उपदेश श्रवण कर शिकार करना छोड़ा । राजाके कारण पूछने पर सूरिजी ने इसे
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शासनदेवी का चमत्कार बतलाया । तदनन्तर सिन्धु नदी का पानी वेग से बढता हुआ देखकर राजा ने बाढ़ से रक्षा करने की प्रार्थना की । सूरि महाराज ने धर्म का स्वरूप बता कर उसे समस्त भाटी राजपूतों के साथ जैनधर्म में दीक्षित किया गुरुदेव को राजाने :पानी आयरया है' कहा था। उन्होंने बाढ से रक्षा करके दस हजार भाटियों सहित प्रतिबोध पाये राजा का गोत्र आयरया प्रसिद्ध किया। राजा के सतरहवें पाट पर लूणा राजा हुआ जिसके वंशज लूणावत' कहलाये ।
' भनशाली जैसलमेर के पास लौद्रवपुर में भाटी राजा घर राज्य करता था जिसके युवराज का नाम सागर था। एक वार सागर की माता को ब्रह्म राक्षस लग गया। अनेक उपाय करने पर भी जब रानी को उसने नहीं छोडा तो सं० ११९६ में श्री जिनदत्तसूरिजी को बुलाकर रानी का कष्ट दूर करने के लिए निवेदन किया । गुरुदेव ने ब्रह्मराक्षस को उसे छोड देने की आज्ञा दी । ब्रह्मराक्षस ने कहाराजा मेरा पूर्वभव का शत्रु है, मैंने इसे अहिंसामय उपदेश दिया था पर इस दुष्ट देवीभक्त ने न मानकर मुझे कुमौत मारा। मैं मरकर व्यन्तर जाति में ब्रह्म-राक्षस हुआ
और इस का कुटुंब नाश कर वैर का बदला लेने आया हुँ । गुरुदेव ने उसे जैनधर्म का उपदेश देकर वैर भाव त्याग कराया वह रानी के शरीर से निकल कर पूर्वी दरवाजे को उत्तर की और करके चला गया। राजाने गुरु महाराज से भांडशाला में धर्म श्रवण कर बारह व्रत स्वीकार किये जिससे भांडशाली-भनशाली गोत्र स्थापना हुई।
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रतनपुरा कटारियादि ४० गोत्र सोनगरा चौहान रत्नसिंह ने रत्नपुरी वसायी जिस के पांचवें पाट में राजा धनपाल हुआ सं० ११ में राजगद्दी बैठा । एकवार वह वक्र शिक्षित घोडे पर सवार होकर बहुत दूर चला गया। जब बाग ढीली छोडी तो घोडा रुका तालाब पर पानी पिलाकर घोडे को बांध कर वृक्ष के नीचे राजा सो गया । एक सांप आकर राजा को दंश गया जिससे वह मूर्छित हो गया। संयोगवश कृपालु गुरु महाराज जिनदत्तरिजी विचरते हुए वहां पहुंचे और राजा को विष व्याप्त देखकर करुणावश निर्विष कर दिया। राजा ने उठकर गुरुदेव को वंदन किया और अपने नगर में बडे महोत्सव से ले गया । राजा ने उन्हें धन देना चाहा तो गुरुदेव ने द्रव्य रखना आचार विरुद्ध बतला कर धर्मोपदेश दिया । राजा ने उन्हें अपने नगर में चौमासा कराया
और नवतत्त्वादि सीखकर जैन श्रावक हो गया । नगर के नाम से 'रतनपुरा' गोत्र स्थापित हुआ। इनसे आगे चल कर कटारिया, रामसेना, बलाइ, वोहरा, कोटेचा, सांभरिया, नराणंगोता, भलाणिया सापद्राह, मिनी आदि गोत्र निकले। जिन चौहान क्षत्रियों के साथ राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया था । उनसे बेडा, सोनगरा, हाडा, देवड़ा, काच, नाहर, मालडीचा, बालोत, बाधेटा, इवरा, रासकिया, साचोरा, दुदणेचा, माल्हण, कुदणेचा, पावेचा, विहल, सेंभटा, काबलेचा, खीची, चीवा, रापडिया, मेलवाल, बालीचा-ये कुल चौतीस गोत्र हुए ।
माल्हू रत्नपुर नरेश के माल्हदे नामक राठी महेश्वरी मंत्री
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था जिसका पुत्र अर्दोग रोग पीडित था। अब राजा को सर्पदंश से जीवित किया तभी मंत्री ने अपने पुत्र के अ॰ग रोग मिटाने की प्रार्थना की थी। पूज्य श्री ने कहा कि रत्नपुरीय राठी माहेश्वरी जैन बने तो निरोग हो सकता है । मंत्री स्वीकार करके पुत्र को सूरिजी के पास लाया । उन्होंने योगिनियों को आज्ञा दी तो ज्ञात हुआ कि विजा नामक वणिक को जकात चोरी के अपराध में मंत्री ने जेल में डाल दिया। उसकी सात पुत्रियां क्रोध से जलकर चाण्डाल व्यन्तरी हुई। सूरिजी ने उन्हें बुलाया। उनके पिता को धन लौटाकर कारागृह से मुक्त कराया। मंत्रिपुत्र नीरोग हुआ । मंत्री ने जैनधर्म स्वीकार किया उसका वंश 'माल्हू' प्रसिद्ध हुआ ।
बुचा, पारख, डागा आदि गोत्र राजा का भंडारी राठी महेश्वरी भाभू था जिससे बुचा-पारख हुए । मुंधडा महेश्वरियों से 'डागा' गोत्र निकाला । भोरा, रीहड, छोडिया, सेलोत मादि पचास गोत्र उन्हीं राठियों में से हुए जो रत्नपुर निवासी थे।
सेठियादि ६ शाखाएं ___ सौराष्ट्र-वल्लभी में काकू और पाता नाम के गौड क्षत्रिय रहते थे । वे नगर के बाहर तैल-नमक बेचकर किसी नरह उदरपूर्ति करते थे। एक बार जैनाचार्य श्री नेमिचन्द्रसूरि वल्लभी पधारे तो उन्होंने सुखी होने का उपाय पूछा। उन्होंने जैनधर्म स्वीकार करने के लिये कहा। उनके स्वीकार करने पर सूरिजी ने कहा-वल्लभी नगरी से तुम्हारा भाग्योदय होगा । यहां से पारकर देश जाने
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पर पांचवीं पीढ़ी में विस्तार होगा । वल्लभी नाश होने पर वे लोग पारकर के किसी गांव में जाकर कृपि कार्य करने लगे। पांचवीं पीढ़ी में रांका, बांका पुत्र हुए।
एक बार नेमिचंद्रसूरिके सातवें पट्ट बिराजित श्री जिनवल्लभसूरि वहां पधारे। सूरिजीने कहा-महीने के भीतर तुम्हें सर्पभय होनेका योग है, अतः खेती के काम में मत जाना । पर वे परीक्षार्थ खेती की रक्षा के लिए प्रतिदिन जाते थे, एक दिन संध्या समय खेत से आते समय उनके पैर के नीचे सांप की पूंछ आ गई। जब सांप ने उनका पीछा किया तो वे तालाब पार होकर चण्डिका के मन्दिरमें जा द्वार बन्द कर सो गये। प्रातःकाल उन्होंने साँप को मन्दिर के निकट घूमते देखा तो गुरुवचनों को स्मरण कर देवी की स्तुति करने लगे। देवी ने कहा-मैंने सद्गुरु के उपदेश से मांसादि त्याग किया है, तुम भी कृषिकार्य छोड कर जिनवल्लभसूरि गुरुके सच्चे श्रावक बनों! तुम्हें वर्णसिद्धि प्राप्त होगी, अब सांप नहीं है, तुम लोग घर चले जाओ।
सं० ११...५ में श्री जिनदत्तसूरिजी के पधारने पर रांका-बांका उनके व्याख्यान में जाने लगे। प्रतिबोध पाकर बाहर व्रतधारी श्रावक हुए, उनकी धनधान्य से वृद्धि होने लगी। एक योगी से रसकुम्पिका प्राप्त कर लोहे का प्रचुर स्वर्ण बना लिया। सिद्धपुर पत्तन के राजा सिद्धराज को छप्पन लाख दीनार भेंटकर बडे सेठ व छोटे सेठ की पदवी प्राप्त की। रांका बांका के वंशजों की काला, गोरा, बोंक सेठ, सेठिया, दकं छः शाखाएं हुई।
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राखेचा पुगलिया .. जैसलमेर के राव जैतसी भाटी का पुत्र केल्हण कुष्ट रोग से पीडित था। कुलदेवी के कथन से सिन्धु देश जाकर श्री जिनदत्तसूरिजी से अपनी दुखगाथा कही। सूरिजी ने उसके जैनधर्म स्वीकार करने पर जेसलमेर की ओर विहार किया। और पधारने पर तीन दिन तक राजकुमार को उनकी नजर के समक्ष रखा । उसका शरीर निरोग और स्वर्णाभ हो गया। सं० ११८७ में केल्हण को प्रतिबोध देकर 'राखेचा' गोत्र स्थापित किया। उसके वंशज पूगल में जाकर बसने से 'पूगलिया' कहलाये।
लूणिया सिन्धुदेश के मुलतान में मंधड़ा महेश्वरी मंत्री धींगड़मल्ल-जो हाथीशाह नाम से प्रसिद्ध था-के पुत्र राजमान्य लूणा को रात्रि में सोते समय साँप काट खाया। नाना उपचार करने पर भी जब वह निर्विष नहीं हुआ तो तत्र विराजित परम प्रभावक श्री जिनदत्तसूरिजी की महिमा सुनकर उनसे निवेदन किया। सूरिजी ने उसे जैनधर्म स्वीकार करने का उपदेश देकर निर्विष करना स्वीकार किया। लूणा को सूरिजी के समक्ष लाने पर सूरिजीने साँप को आकृष्ट किया। सांप ने मनुष्यवाणी में कहा-इसने पूर्वभव-ब्राह्मण के भव में जन्मेजयराजा के यज्ञ में होमने के लिए साँपों को बुलाया। मैं भी उसमें आया और यज्ञ स्तम्भ के नीचे शान्त्यर्थ रखी हुई शांतिनाथ जिन प्रतिमा को देखकर मुझे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। मैंने देखा मैं पूर्व जन्म में महातपस्वी मुनि था, पारणे के दिन भिक्षार्थनगर में जाने पर लोगों से तिरष्कृत होकर क्रोधावेश में पञ्चत्व
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प्राप्त कर सांप हुआ हुँ। मैंने सम्यक्त्व मूल व्रत स्वीकार करके समाधि प्राप्त की। मंत्रोच्चार पूर्वक होम करने पर मैं नागकुमार देव हुआ । यह यज्ञ करनेवाला शिवभूति ब्राह्मण गलित कोढ से मरकर प्रथम नरक में चौरासी हजार वर्षायु पूर्ण कर किसी वन में बन्दर हुआ। मुनिराज की धर्मदेशना सुनकर जाति-स्मृति पाकर सरल भाव से मर के मन्त्रि-पुत्र हुजा है । मैंने अवधिज्ञान में अपना वैरी ज्ञात कर बदला लेनेके लिए इसे काटा है । सूरिजी ने कहा-कृत कर्म से छुटकारा नहीं होता, यह अब श्रावक हो गया है अतः इसे निर्विष करो। देव ने उसका विष हरण कर स्वस्थ कर दिया । सं० ११९३ में मन्त्री सकुटुम्ब जैन हुआ, सूरिजी ने 'लूणिया' गोत्र की स्थापना की।
. दोसी सोनीगरा पीपलिया विक्रमपुर में सोनिगरा ठाकुर हीरसेन सन्तानरहित था । उसने क्षेत्रपाल के सवा लाख दीनारों की मनौती की, दैव योग से उसके पुत्र हो गया पर मानता पूर्ति करने में असमर्थ होने से क्षेत्रपाल उसके यहाँ उपद्रव करने लगा। संयोगवश श्री जिनदत्तसूरिजी विक्रमपुर पधारे, ठाकुर ने उनसे पुत्र का उपद्रव निवारणार्थ निवेदन किया।
. सूरिजीने कहा- जैन धर्म स्वीकार करने पर तुम्हारा पुत्र स्वस्थ हो. जायगा । उसने सहर्ष जैनधर्म स्वीकार किया । सूरिजी ने उसे स्वस्थ कर सं० ११९७ में दोसी सोनीगरा गोत्र की स्थापना की । हीरसेन, सोवनसिंह जैन हुए उसका पुत्र पीउला से 'पीपलिया' हुए ।
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बोरड .. अंबागढ़ में पमार क्षत्रिय वोरड़ राजा "शिव" के साक्षात् दर्शन करने को तीब्राभिलाषी था। पर कोई उसे दर्शन नहीं करा सका । उसने जब महा-प्रभावक श्री जिनदत्तसूरिजी का नाम सुना तो उनके पास जाकर "भगवान शिव के दर्शन कराने के लिए निवेदन किया।" सूरिजी ने कहा-यदि उनका वचन मानो तो मैं तुम्हें दर्शन करा सकता हुँ । राजा ने कहा-भगवान् रुद्र का वचन मुझे स्वीकार्य है। तदनन्तर राजा सूरिजी के साथ शिवालय में गया सूरिजी ने शिवलिंग के समक्ष राजा की एकाग्र दृष्टि करवायी। देखते ही देखते उसमेंसे धुंआ निकला
और त्रिशूलधारी शिव प्रकट हुए । शिव ने कहा-राजन् ! मांगो ! मांगो !! राजाने कहा भगवन् ! आप प्रसन्न हैं तो मोक्ष दीजिये ! शिवने कहा-वह तो मेरे पास नहीं है, अन्य इच्छा हो सो कहो, पूर्ण करूं! यदि शास्वत निर्वाण चाहते हो तो इन गुरु महाराज के वचनानुसार सेवनआचरण करो!
शिव के अन्तर्धान हो जाने पर राजा बोरड़ ने गुरु महाराज के चरणों में वंदन कर मोक्ष का उपाय पूछा सूरिजीने नवतत्व, सम्यक्त्ववादि स्वरुप बताकर उसे मोक्ष दायक धर्म का उपदेश दिया। राजा ने सं १११५ में जैनधर्म स्वीकार किया उसका वंश बोरड़ प्रसिद्ध हुआ ।
पोकरणा हरसोर में सकतसिंह राठौड़ रहते थे, वे एकवार यात्रा के लिए पुष्करजी गये । वहां चार पुत्रों के साथ
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एक विधवा स्त्री गई हुई थी। वह पुत्रों को खाने पीने की वस्तु देकर पुष्कर में स्नान करने लगी। संयोगवश एक गाह आकर उसे अपने तंतु जाल में जकड़ कर गहरे जल में खींचने लगा। सकतसिंह उसे बचाने के लिए कूद पड़ा पर उसे भी ग्राहने फंसा लिया। इतने ही में श्री जिनदत्तसूरि के शिष्य देवगणि स्थंडिल भूमिसे आ रहे थे उन्होंने उपस्थित श्रावकों को प्रेरित कर दोनों को मृत्युमुखसे निकाल लिया। हजारों दर्शक आश्चर्य पूर्वक मुनिराज को वन्दन करने लगे। सकतसिंह ने उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए कुछ सेवा फरमाने के लिए निवेदन किया। गणिजीने कहा हमारे गुरुमहाराज कल अजमेर से यहाँ आ रहे हैं !
दूसरे दिन सूरिजी के पधारने पर राठौड़ सकतसिंह उनकी धर्म देशना से प्रतिबोध पाकर जैन हो गया। वह विधवा महेश्वरणी भी अपने पुत्रों के साथ जैन हो गयी। पुष्करजी के नाम से इनका गोत्र पोकरणा प्रसिद्ध हुआ ।
. कठोतिया, जायलनगर के निकटवर्ति कठोती ग्राम का अजमेरा ब्राह्मण भगन्दर रोग पीड़ित था । सं० ११७६ में श्री जिनदत्तसूरिजी के पधारने पर उसने अपना दुख सुनाया तो कृपालु गुरुदेव ने उसे निरोग करके जैन बनाया और कठोतिया गोत्र की स्थापना की ।
... आबेड़ा, खटोल मारवाड़ खाटू में चौहान बुधसिंह व अड़पायतसिंह रहते थे । गुरुदेव की कृपा से उसको लक्ष्मी प्राप्ति की
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वांछा पूर्ण हुई । सं० १२०१ में प्रतिबोध दे कर आबेड़ा गोत्र व बुधसिंह के पुत्र खाटड़ से खटोल या खटेड गोत्र निकला।
गडवाणी, भडगतिया अजमेर के निकट भाखरी गाँव में गडवा नामक राठोड़ को गुरुदेव ने जैन बनाया, उसकी धनवान होने की इच्छा पूर्ण हुई । गडवाणी और भडगतिया गोत्र प्रसिद्ध हुए।
रूणवाल सपादलक्ष देश के रूण ग्राम में सोढा क्षत्रियों के घरों में प्रधान ठाकुर वेगा के सन्तान सुख नहीं था । श्री जिनदत्तसूरिजी के पधारने पर उनसे प्रतिबोध पाकर जैन हो गया । गुरुदेव ने उसे उपसर्गहर स्तोत्र कल्प साधनार्थ दिया जिससे उसके चार भाग्यशाली पुत्र हुए। सं० १२१० में वेगा के वंशज रूण गाँव के नाम से 'रुणवाल' कहलाये।
बोहिथरा ___ जालोर के राजा सामंतसिंह देवडा-चौहान के दो रानियां थी। राजा के सगर, वीरम और कान्हड नामक तीन पुत्र और उमा नामक पुत्री थी । सामंतसिंह के पद पर वीरमदेव बैठा । सगर की माता देवलवाडा के राजा भीमसिंह की पुत्री थी। अन्य रानी द्वारा अपमान होने से वह पुत्र को लेकर अपने पीहर चली गई। भीमसिंह के पुत्र न होने से उसने दौहित्र सगर को राज्यगद्दी दी जिससे वह एक सौ चौबालीस गांवों का अधिपति हो गया । सगर बडा वीर था उसने मालव और गुजरात के शाह को जीत कर बाईस लाख दीनार दण्ड स्वरुप प्राप्त
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की । सगर के बोहित्थ गंगदत्त और जयसिंह नामक तीन पुत्र हुए । बोहित्थ राजा के बहुरंगदेवी रानी और श्रीकर्ण, जेसा, जय मल्ल, नाल्हा, भीमसिंह, पद्मसिंह, सोमा और पुण्य पाल आठ पुत्र ओर पदमा नामक एक पुत्री थी। सं० ११९७ में श्री जिनदत्तसूरिजी देवलवाडा पधारे । प्रतापी गुरुदेव का आगमन सुन राजा वन्दनार्थ गया । उनकी पीयूष-वाणी से प्रतिबोध पाकर श्रीकर्ण के सिवा सभी पुत्रों के साथ राजा जैन हो गया। गुरु महाराज ने उनका 'बोहिथरा' गोत्र स्थापित किया। चितौड-पति ने युद्ध में सहायतार्थ बुलाया । अपनी मृत्यु निकट ज्ञात कर राजा ने श्रीकर्ण को राज्य व इतर पुत्रों को धनादि दे दिया और स्वयं चतुर्विध आहार त्याग कर पंच परमेष्ठी के ध्यान पूर्वक रणक्षेत्र में मर के 'हनुमंत वीर' गामक व्यन्तर देव हुआ ।
सीसोदिया, दूगड़ सूगड़, खेताणी, कोठारी
संवत् १२१७ में श्री जिनचन्द्रसूरि विचरते हुए मेवाड़ के आघाट गांव में पधारे। वहां के खीची राजा सूरदेव के पुत्र दूगड़ सुगड़ राज्य करते थे। नगर के बाहर नाहरसिंह वीर को पुराने मंदिर को लोगों ने गिरा दिया। नाहरसिंह वीर गांववासियों के विविध प्रकार से कष्ट देने लगा। मंत्र-तंत्रादि नाना उपाय करने पर भी शांति नहीं होती थी। गुरु महाराज को वहां पधारे सुन कर दूगड़ सूगड ने उनके पास जाकर अपनी दुख गाथा सुनाई। गुरुदेव ने उन्हें धर्मोपदेश देकर जैनधर्म में दीक्षित किया और उपसर्गहर स्तोत्र का स्मरण देकर उपद्रव मिटाया। उस समय सीसोदिया वैरीसाल भी श्रावक हुआ जिसके वंसज सीसोदिया
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गोत्री कहलाये । दूगड सूगड के नाम से दूगड़ सूगड़ गोत्र प्रसिद्ध हुआ । खेता से खेताणी ओर कोठार का काम करने से कोठारी कहलाये।
__ आधरिया गोत्र सिंध देश का राजा गोशलसिंघ भाटी राजपूत था तथा उसका परिवार करीब १५०० घरका था, वि० सं० १२१४ में उन सब को नरमणि मंडित भालस्थ खोडिया क्षेत्रपाल सेवित खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रतिबोध देकर उसका महाजन वंश और आधरिया गोत्र स्थापित किया । गांग, पालावत, दुधेरिया, मोहोबालादि १६ गोत्र
मेवाड़ के मोहीपुर के राजानारायणसिंह पमार राज्य करता था । एकबार चौहानों ने मोहीपुरको घेर लिया । उनके साथ संग्राम करते शत्रु की शक्ति से चिन्तातुर हो गया। राजा के गंगा नामक पुत्रने कहा-महाप्रभावी जिमचन्द्रसूरिजी को मैंने देखा हैं, वे अपनी चिन्ता मिटा सकते है ! पिता ने कहा-उनके पास जावे कौन ? पुत्र ने कहा-मैं छनवेश से चला जाऊंगा । दूसरे दिन गंगा वेश बदल कर नगर से निकला । अजमेर के पास गुरु महाराज उसे मिले । गुरुदेव से एकान्त में अपनी कष्ट गाथा कही तो गुरुदेव ने उसे सकुटुम्ब जैन होने का उपदेश दिया । उनके स्वीकार करने पर गुरुदेव ने उपसर्गहर स्तोत्र स्मरण किया विजया, जयादेवीने प्रकट होकर एक विजयी अश्व प्रस्तुत किया जिस पर सवार होकर गंगा गया । देवी के प्रभाव से असंख्य सेना हो गई, जिसे
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देखकर चौहान लोग भग गये । नारायणसिंह ने साश्चर्य इस घटना को देखा, इतने ही में गंगा ने आकर पिता को नमस्कार कर सारा वृतान्त सुनाया जिससे उसे अपार हर्ष हुआ ।
राजा अपने सोलह पुत्रों के साथ गुरुदेव को वन्दना करने गया और उन्हें बड़े समारोह से अपने नगर में लाया । गुरु महाराज के उपदेशों से प्रतिबोध पाकर राजा जैन हो गया । उसके सोलह पुत्रों से गांग, पालावत दुधेरिया, गोढ, गिड़िया, बांभी गोढ़वाड, थराबता, खुरघा, पटवा, गोप, टोडरवाल, भाटिया, आलावत, मोहीवाल, और वीरावत गोत्र हुए ।
छाजेड
सं० १२१५ में श्री जिनचन्द्रसूरिजी सवीयाणागढ़ पधारे। वहाँ राठौड़ आस्थानके पुत्र धांधल, तत्पुत्र रामदेव का पुत्र काजल रहता था । काजल ने सूरिजी से कहागुरुदेव रसायन से स्वर्णसिद्धि की बात लोक में सुनते हैं, क्या वह सत्य है ? गुरुदेव ने कहा- हम लोग सावद्य क्रिया के त्यागी हैं अतः धर्म क्रिया के अतिरिक्त आचरणा वर्ज्य है ! काजलने कहा -- एक वार मुझे दिखाइये, धर्मवृद्धि ही होगी । सूरिजीने कहा- यदि तुम जैनधर्म स्वीकार करो तो मैं दिखा सकता हूँ। काजल अपने पिता से पूछ कर जैन श्रावक हो गया । सूरिजी ने दीवाली की रात्रि में लक्ष्मी मंत्र से अभिमंत्रित वासक्षेप देते हुए कहा- यह चूर्ण जिस पर डालोगे वही सोना हो जायगा ! यह प्रभाव केवल आज रात्रि भर के लिए है । काजल जैन मन्दिर, देवी के मन्दिर और अपने घर के छज्जों पर वासक्षेप डाल कर
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सो गया । प्रातः काल तीनों छाजे स्वर्णमय देख कर बड़ा प्रसन्न हुआ। सभी लोग इस चमत्कार को देख कर आनन्द मग्न हो गए । काजलने गुरुमहाराज से प्रतिबोध पाकर सम्यक्त्व मूल बारह व्रत स्वीकार किये। गुरु महाराज ने 'छाजहड़' गोत्र की स्थापना की ।
सालेचा-बोहरा .. संवत् १२१५ में गुरु महाराज श्री जिनचन्द्रसूरि जी ने सालमसिंह दइया क्षत्रिय को प्रतिबोध दिया। सियालकोट में वोहरगत करने से सालेचा बोहरा गोत्र प्रसिद्ध हुआ ।
श्रीमाल जाति गौतमस्वामी, रत्नप्रभसूरि आदि ने पहले श्रीमालपुर में जो श्रीमाल जाति प्रतिबोध की थी वे शंकराचार्य के दिग्विजय के समय कपोलादि वणिक जाति के शैव हो गये। मारवाड़ादि में श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने विचर कर पुनः श्रीमाल जाति बोधित की। हेमचन्द्राचार्य कुमारपाल प्रतिबोधक ने भी सोरठीया श्रीमालों को प्रतिबोध दिया।
उद्धरण छाजहड .. एक वार श्री जिनपतिसूरिजी ने अजमेर चातुर्मास में रामदेवादि के समक्ष प्रसंगवश खेड़ निवासी उद्धरणसाह मन्त्री की प्रशंसा की। रामदेव उद्धरण से जा कर मिला। उसने सेठ रामदेव को बहुत ही सम्मानित किया। उसने मन्त्रि-पत्नी को जिनालय जाते समय छाब भर के साडियाँ आदि ले जाते देखा तो आश्चर्य पूर्वक नौकर से इसका
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कारण शात किया कि स्वधर्मी बहिनों को मेट करने के लिए ये प्रतिदिन ले जाती हैं। रामदेव उद्धरण के घर का आचार देख कर प्रसन्न हुआ । एक बार उद्धरण ने नागपुर में मन्दिर निर्माण कराया था। प्रतिष्ठा के लिए बुलाये आचार्य के न पहुँचने पर मंत्रीपत्नी, जो खरतरों की पुत्री थी-के कथन से चैत्यवासियों के पास प्रतिष्ठा न कराके सकुटुम्ब मंत्री खरतरगच्छीय श्रावक हो गया ।
फोफलियां, बच्छावत, दसानी, मुकीम दादा श्री जिनदत्तसूरिजी ने पहले सगर राजा के पुत्र बोहित्थ को देवलवाडा में प्रतिबोध कर कर्ण राजा के अतिरिक्त सब कुटुम्ब को जैन बनाया था जिसका उल्लेख उपर आ चुका है। कर्ण राजा पिता का राज्य करता था, उसके रत्नदेवी रानी थी। एवं समरा, उद्धरण, हरिदास और वीरदास नामक चार पुत्र थे । एकवार मत्स्येन्द्रगढ और सराणा को युद्ध में जीत कर बहुत से धन के साथ आते हुए गौरीसाह की सेना से मार्ग में युद्ध छिड गया जिसमें राजा कर्ण वीरगति को प्राप्त हुआ। रानी अपने पुत्र के साथ खेडनगर आकर अपने पीहर में रहने लगी। चारों पुत्र कलाभ्यास करते थे। एकवार पद्मावती देवी ने उसे स्वप्न में आ कर कहा-कल तुम्हारे प्रबल पुण्योदय से श्री जिनेश्वसूरि जी महाराज. यहाँ पधारेगे, उनके समीप जाकर जैनधर्म स्वीकार करना, सब प्रकार का सुख होगा!
गुरु महाराज श्री जिनेश्वरसूरि के पास जैनधर्म का बोध पाकर चारों भ्राता जैन हो गए । व्यापार में उन्होंने प्रचुर धन कमाया। वे सर्वदा जिनेन्द्र पूजा में परायण थे। सूरिजी के उपदेश से शत्रुञ्जयादि के संघ निकाले, तीर्थ
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यात्रा की । मार्गवर्ती स्वधर्मियों में एक एक मुद्रिका व थाली भर के पुंगीफल वितरण किये। समधरादि फोफलिया नाम से प्रसिद्ध हुए। उसी वंश में तेजपाल, वील्हा, मांडण, ऊदा, नामदेव, जेसल, वत्सराज आदि पुरुष हुए । वत्सराज के वंशज वच्छावत कहलाए इसी प्रकार बोहित्थ वंश में दसाणी, जेगावत, बुंगराणी, मुकीम आदि शाखाएं विशाल वट वृक्ष की भांति निकली। इनके वंशजोंने बडे-बडे काम किये विशेष जानने के लिए कर्मचन्द्र मन्त्रिवंश प्रबन्ध द्रष्टव्य है।
बावेल, कोठारी संघवी जिनचन्द्रसूरि-कलिकाल केवली श्री जिनचन्द्रसूरि सं० १३७१ में बाबला (बाबेरा पुर में पधारे । वहां का चौहान राजा रणधीर गलित कुष्ट की व्याधि से पीडित था । नाना उपचार करने पर भी वह स्वस्थ न हुआ तो गुरु महाराज के शरण में आया । सूरिजी ने उसे चक्रेश्वरी देवी प्रदत्त औषधि का उपचार बतला कर सात दिन में स्वस्थ कर दिया । राजा ने सूरि महाराज के पास विधिवत् जैनधर्म स्वीकार किया। बावेला गांव से उसके वंशजों का बाबेल गोत्र प्रसिद्ध हुआ । कोठारी, संघवी आदि शाखाएं उसी गोत्र से निकली और भी सूरिजी ने अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोध दिया ।
डागा - श्री जिमकुशलसूरि-एक बार गोढवाड-नाडोल नगर में दादा श्री जिनकुशलसूरिजी महाराज पधारे । वहाँ के क्षत्रिय डूंगरसिंह चौहान राजा ने दिल्लीपादशाह के राज्या
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धिकारियों को पहले मारा था । अतः उस पर शाही सेना चढ़ाई करके आई । डूंगरसिंह गुरु महाराज के शरण में आया । सूरिजी ने सोये हुए बादशाह को शय्या सहित वीर के द्वारा अपने पास मंगाकर वचन ले लिया कि वह इसका किसी भी प्रकार से बिगाड नहीं करेगा । बादशाह को वापस स्वस्थान छोड दिया । गुरुदेव के उपकार से कृतज्ञ डूंगरसिंह सकुटुंब जैन श्रावक हो गया । डूंगरसिंह से 'डागा' गोत्र प्रसिद्ध हुआ । श्री जिनकुशलसूरिजी ने इस प्रकार और भी बहुतों को प्रतिबोध कर श्रावक किया । उनके द्वारा पचास हजार जैन बनाने की प्रसिद्धि है ।
गेलडा
एकबार आचार्य श्रीजिनहंससूरिजी महाराज खजवाणा पधारे। वहाँ के खीची गहलोत गिरधरसिंह के पास प्रचुर धन था पर दान और भोग में सारा धन उड़ाकर विपन्न हो गया । उसने सूरिजी के पास आकर अपनी दुखगाथा सुनायी । गुरु महाराज ने कहा- यदि तुम जैन बनो तो पुण्य प्रभाव से धनोपाय हो सकता है। वह सकुटुम्ब जैन श्रावक हो गया । गुरु महाराज ने उसे मंत्रित वासक्षेप दिया और ईंटों पर डालने सोना हो जायगा, बतलाया । गिरधरसिंह ने पाँच हजार ईटे वनवाकर उस पर वासक्षेप डालकर सोना बना दिया। रात्रि के समय सारी इंटें अपने घर में लाकर रखी, कुलाल को दुगुना दाम देकर राजी कर लिया । गिरधरसिंह ने धर्मकार्य में प्रचुर द्रव्य व्यय किया उसके पुत्र भद्र स्वभावी गेला से गैलड़ा गोत्र प्रसिद्ध हुआ ।
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परिशिष्ट - १
महत्तियाण जाति के गोत्रों सम्बन्धी विशेष विवरण
श्री जिनचन्द्रसूरि
जिणुन सवा पांचसह ५२५ घर क्षत्री प्रतिबोधी नइ जैनी श्रावक कीया। वासी पंचाब देश का प्रतिबोध्या, महम सहर मइ । कुरक्षेत्र का राजा मलसिंघ राजा मेघमल्ल तणो चंपकसेन | तिसका वजीर प्रधान था । महता मयाचंद १ महता चतुरभुज २ पचाधा खत्री था । जोही गोत्र खत्रीका था । सोइ इणुका थाप्या चोपड़ा गोत्री दोड़ सह घर का सीरदार था दोनुं भाई । श्रावक जाति महतीयाण थापना करी ॥ १ ॥
महता सुन्दरदास १ महता स्यामदास २ महता संकदास ३ महता सोनी ४ ए च्यारुं राजा प्रधान का मोदी था क्षत्री । वासी साहरणपुर का घर में नागदेवता की पूजा थी । सौ घर का सिरदार था च्यारु भाई । प्रतबोधीनइ श्रावक कीधा । जाति महतीयाण, गोत्र सपेला थाप्यो || २ ||
महता प्रधान मयाचंद चतुरभुजनइ काल मई गुलाम लीया, मोल च्चार - जइराम १ जदु २ जाटु ३ जेठा ४ जाति का जाट थे । वासी जैसलमेर का चौधरी था जाट | तिसका बेटा है च्यारुं । तिस च्यारुं का परिवार वीस घर था । तिणुकुं प्रातिबोधी जेनी श्रावक कीया । जाति महत्तले थापना जाटड़ा गोत्र थापना कीयो ॥ ३ ॥
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५३
महता रायचंद १ महंता रतन २ महता रीठमल ३ महता रूपचन्द ४ एवं खत्री थे, पचीस घर का सिरदार । वासी राजपुर का, उहां के महतो चौधरी थे। प्रतबोधी श्रावक जैनी किया । जाति महतीयाण थाप्या, गोत रोहदीया
थाप्यउ ||४||
महता करमचन्द १ कान्हचंद २ घर पचीस का सिरदार थे । वासी काण्योड़ के थे । उहां का कानुंगो थे । जाति क्षत्री, प्रतिबोधी श्रावक कीया - जइनी कीया जाति महतीयाण थाप्या । गोत कांडे थाप्यो ॥५॥
खत्री परिवार घर वीस नारनौल का वासी महता नेतसी गोत नान्हडे थाप्यो ॥६॥
खत्री परिवार घर १५ महम का वासी । महता मनजी गोत्र मुंडतडे थाप्यो ॥७॥
खत्री परिवार घर १५, माधरपुर का वासी महता माणिकचन्द, गोत मीनयानी थाप्यो ||८||
खत्री कान्हचंद परिवार - घर १० करनाल के वासी, गोत काण्यें ॥६॥
..........
परिवार घर १०, वासी पाणीपथ का, गोत
पहाड़िये ॥१०॥
खत्री मयाराम परिवार घर.... गोत महथे थाप्यो ||११||
खत्री गिरधरदास परिवार घर २०, वासी घांघ का, गोत घं...... ॥ १२ ॥
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......घर २० करनाल का वासी गोत कपाणी ॥१३॥
खत्री मोहनदास घर २०, गोत मू......॥१४।। .......वनपाल परिवार घर १०, गोत सोनी थाप्यो ॥१५।। वासी सोवनपथ का। एवं सव गोत चौ० ८४ छइ । प्रतिबोधी जइनी कीया । सं० १३७६* कइ वर्ष मइ । - इनमें ८४ गोत्रों में से २४ के नाम हमने प्रतिमा लेख बादि के आधार से मणिधारी श्री जिनचंद्रसूरि ग्रन्थ में प्रकाशित किए हैं। . * यह समय कलिकाल केवली श्रीजिनचंद्रसूरि के समय का हैं जो जिनकुशलसूरि के गुरु थे। नाम साम्य के कारण ऐसा हुआ लगता है। पर प्राचीन शिलालेस्वादि में मणिधारी जिनचंद्रसूरि का नाम स्पष्ट है ।
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परिशिष्ट-२
कमाणी संघवी मांडवगढ में देवड़ा समरसंघ राज करै, तिणरा बेटा ७। तिणमें छोटो बेटौ करमसंघ, तिणनै कामडीयौ जैर हुवौ । तीण समै सं० १०२६ वैसाख सूद ९ नै श्री जिनवरधमानसूरिजी विचरता उठे आय नीकल्या, जद राजा समाचार सुण्या, जद् वांदणने गया नै कयौ-के मारौं छोटौ बेटो कमौ नाम, जीण नै जेहर हुवौ सो आप उपगार करौ । 'जद महाराज पाणी मंत्र नै छांटीयौ, जद सावचेत हुयो, नवकार मंत्र लीयो । - श्री सिद्धाचलजी रौ सं० १०२६ मिगसर सुद् ९ संघ काढीयौ, हजार ४१ रुपीया खरचीया। साहमीवछल कीयौ जद महाराज सिंघवी पदरी माला आरोपण करी, जिणसुं कमाणी संघवी' गोत्र थापना हुई । मेरू जेसलमेर नौ छै।
इणारी फली मालवा में घणी छै। ताल भोपाल कनै, फेर चंडी ग्रामे छै। मेवाड़ में, फेर जेपर में घर छै । ३ में दीली मैं छै सौ दादाजी रा पगला कराया नै आषाढ सुद १५ पूजे तौ धन दौलत परवार वधै० न्हीं तो न्हो वधे औ वरदान दीयौ छै, गछ खरतर गछ ना श्रावअ हुया। खयात जूनै दक्तर सुं उतारी छ, सवाई जैपुर में ।
अथ वछांवतां री वंशावली वछावत चउवाण छै । चउवाणरी चौवीस खांप छै,
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तिणमें वछावत देवड़ा चउवाण छै । आदि आबूगिर जालोर रा धणी छ, सावंतसी देवडौ । सांवतसी '१ सगतसी २ बोहिथजी ३ श्रावक हुवा, मद मांस छोडया, नवकार मंत्र लीयौ । राधणाजी ४ समरथजी ५ तेजसी ६ सेती उसवाले सगाई पताई कीवी । वीलौजी ७ कडवौ जी ८ ऊदोजी ९ नागदेजी १० जैशलजी ११ वछौजी १२ ।
वछाजी पुत्र करमसी १ वरसंघ २ रतौ. ३ डुंगर ४ वरसंग १३ पुत्र नगौजी १४ सांगोजी १५ करमचंदजी १६, १७ लखमीचन्द जी नुं जोहर कीयौ । तद धाय भागचन्द जी रा छोटा बेटा नुं हांचल चुंगण ने लै भागी तिण रा उदेपुर छै । बछाजीरा बडा बेटा करमसी, तीणां री अवलाद रीणी छ । . वछाजी रो दुजो बेटो वरसंघ जी, तीणांरी अवलाद बीकानेर सुं उदैपुर गया ।
वछाजी रौ तीजौ वेटो रतौजी, तिणरी अवलाद गांम कोदरु छै।
वछाजी रो चोथो बेटा डंगरसी, तिणरी अवलाद लूणसरै छै ।
वरसंघजी रे पुत्र ५, नगोजी उदैपुर छे।। १ अमरैजी रो परवार बीकानेर फलोधी छे० ।। २ भोजराज जी रौ परवार बीकानेर छ । ३ मेघाजी रो परवार काल्हणघास राणी गांम में छे । ४ डुंगरसीरो परवार जोधपुर देवीझर छ । संपूर्ण ।
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५७
भणसालीयाँ री उतपत्त लिख्यते
सोलंकी राजपूत नख । सं० २०११ असोज सुदि १० दिनै चालुक बंस श्रीवर्द्धमानसूरजी थाप्यो । रतनपाल पुण्यपाल नै, भणाव्या, पितानी वाचा भई, गुरे गोत्रजा आराधी, जीने पूछीयौ, परमेसरी कीयो- उस बाल वीसौ थापजो, जद राय भणसाली गोत्र थाप्यो ।
गोत्रजा पीलोज, वाहन सिंह, परणावी जालोर दीधौ, देवगुर भक्ति करे। बेटौ जायों परूसे दीयै सेर १० गोत्र गोह री करै । गोत्रज निमत नालेर १ कापडौ १ रूपौमासा ६ री सांकली चढावे, परण्यौ पीण हीजदिराडी दिन उलंघनही, गोत्रज पूजा ८ दिन ।
जगपाल के डेरा भणसाली गोत्र मारवाड़ में छै ।
भणसाली पुण्यपाल थी मुंहता विरुद राणाजी श्री हमीरसंघजी दीयौ, चितौड़मध्ये संपूर्ण ।
|| रतनपुरा बोरा मे सुं कटारीया गोत्र नीकल्यौ तिणरी वंशावली ॥
मनरंग देव । पुत्र धनपाल । एक दिन उद्यान वन खण्ड में रात्र पड़ गई, तीसे सीकार चढ्यौ हुँतौ सो तीहां वन में सरप डस्यौ सो मृत्यु पाम्यौ, अचेत रह्यो । तीसै श्रीजिनदत्तसूरिजी खरतर गच्छ नायक तिहां आवी नीकल्या । धनपाल नै अचेत देखी पाणी मंत्री छांटीयो, तीवारै सावचेत थयौ तीवारे हाथ जोड़ अरज कीधी-सामी नगर
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५८
में पधारो, हुं आपरो श्रावक छु, आप फुरमावौ सो वचन प्रमाण करूं । इसौ वचन सुणी लाभ जांणी धनपाल रे घरे आया । सं० १९८२ धनपाल रे उपगार थी सर्व चवाण नख भी खरतर गछै श्रावक थया कवित्त:
दूहा - इग्यारे व्यासी समै, विषधर नौ विपटाल । जीवाड्यौ धनपाल नै, सदगुर पहवौ भाल |
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खरतर गछ रा श्रावक छै तिके आषाढ़ सुद ११ दिने दादाजी श्री जिनदत्तसूरिजी रा पगला तोला १। घडावी, प्रतिष्ठा करावी पूनम पूनम्र पूजीजै तो वंस वधै, लखमी सौभाग जस वधै ॥
हिवै रतनपुरा गोत्रे साराई ९, तेहना नाम - रतनपुरा १ लाइ २ कटारिया ३ कोटेचा ४ सापप्रहा ५ सापूरीया ६ नराणा गोत्र ७ भलाणीया ८ रामसेणा
ए शाखा ।
कटारीया सहवाज रा उठया केरवासे देवातडे आसलाई में सापद्रही नख थयौ । कटारिया में सुं नख नीकल्यौ । गोरी पातसाह रौ मंत्रीपणौ कीयौ, तिणथी "मंत्री" कहाणा ।
मांडवगढे मुंहता झांझणसी सिद्धाचलजी री यात्रा गया जद बाणुं लाख मालवा रौ दांण ईज्यारै थौ सो बरस १ री पेदास प्रभुजी रे भेट कीवी, जद दुजा लोकां ईसको कर पातसाह सुं मालम करी, जद पातसा रीस कीवी । जद मुंतो झांझणसी कटारी पेरी पेटी बांधने पातसा रे हजूर आयौ, सर्व हकीगत कही आपका बोलबाला पीर के आगे कर आया, तब पातसाह बहोत कुसी हुया । पेटी खोल प्राण मुकीयो । तिहाँ थी ' कटारिया' नख थयो । खरतर गच्छ में हुया । भैरू खेत्रपाल जेशलमेर से छै ।
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चौपड़ा कुकड़ पडीहार नख । मंडोवर में प्रतिबोध्या श्रीजिनवल्लभसूरिजी प्रतिबोध्या सं० ११५१ में, गणधर चोपड़ा जालोर वाला, मोदी नख चउवांन दादाजी श्री जिनदत्तसूरिजी प्रतिबोध्या ॥१॥
सोनीगरा चवांण थी संचेती खरतर गच्छराज जीन धर्म सुं मीले। ___गोलेछा रा १८ गोत्र जातरा राठोड़ । लामसुखा १ गोलेछा २ पारख ३ चोरडीया ४ बुच्चा ५ चम्म ६ तालरीया ७ गदहीया ८ सिंदुरीया ९ कुंभटीया १० संचीया १२ चाहिल १३ घंटेलीया १४ काकरीया १५ सीधड़ १६ संखलेचा १७ कुकुचीया १८ । अठारे गोत्र गोलेछा रा खरतर गछे ॥
बाफणा २४ शाखा-कोटा १ खोरवाड़ २ भाभू ३ सोनी ४ मरोटी ५ समलीया ६ धांधल ७ दसोरा ८ भूधाता ९ नाहडा १० कलरोहिया ११ वसाह १२ धतूरिया १३ सांखला १४ तोसालीया १५ बुंगरवाल १६ मकलवाला १७ संभूआता १८ सांइडसरा १९ कोटेचा २० महाजनी २१ मूंगरेचा २२ हुंडीया २३ जाँगड़ा २४ । पछै नख पडीया १ कोटेचा, कोटडै वसीया जिणसुं कोटेचा कहीजै । कुचेरै वसीया जिणसुं केई बापणा कुचीया कहीजे । नख देवडा चवांण छै । खरतर गच्छै ।
संचेती .१ डोसी २ गुलेछा ३ लुणावत ४ लुणीया ५ संखलेचा ६ बोथरा ७ वछावत ८ बाफणा ९ श्रीमाल १० डागा ११ वलाही १२ भणशाली १३ राय खड भणशाली १४ गदहीया १५ लोढा १६ कांकरीया १७ नावरीया १८
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छाजेड १९ कोठारी २० बरढीया २१ रेहड २२ कमाणी २३ सिंधी २४ ।
इत्यादिसर्व खरतर गच्छ रा है । इणां री सर्वा री ख्यात जूने दफतर में छे इणा रे भाट नही छे । कुलगुर मातमा नहीं है । इणा रा नामा श्री जी मांहे छे । खरतर गछ वाला रे कुलदेवी नहीं छै ।
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परिशिष्ट-३
श्री जिनसमुद्रसूरि के महाराज अनूपसिंह और राठौड़ वंशावली सम्बन्धी काव्य में छाजहड गोत्र
सन्बन्धी प्राप्त पद्यकुमर स्वरुप देखी काजल सौं नेत्र रेखी,
छाजडे में सुविशेषी काजल दे नाम जू ॥ आणिकै सेठ को दीनौ लहिणौ सो दूर कीनौ,
दोहू को रह्यो अकीनो आवे. निज धामजू । बरहड़ीयां का गोत चाजडे ते छाजडोत,
ऐसो गोत छाजड को भयो तिण ठाम जू ।। वदत समुंद महाराज श्री अनूपसिंघ जो को,
काको करै काम वाको सरै काम जू ॥३८॥
काजल के वेर उद्धरण जू किये उद्धार,
सात बीस चैत्य खेड वीचि गुरु वेणजू । श्री जिनपत्तिसूरि प्रतिष्ठा करी पडूर, .
मांडयो विषवाद भूर वरढीयै तेणजू । जीतो खरतरे. सूर बेगड विरुद पडूर,
हास्यो गुरु बरदीयै कोले भये मेण जू । वेगड रू कोले भाई छाजड दोनु कहाई,
वृद्धवंत हो सदाई जोलू जिन जैन जू ॥३९।।
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६२
छाजड में घालि दीनौ ताहू पै छाजड भये,
असल बरढीया तें छाजड कुमार जू । पाटण पीरान मांझि सोतो सारो जग जाने,
कोले पल्लीवाल सोतो पाइली मुझार जू ॥ ताके पीछे खेड वीचि बेगड विरुद धर्यो,
सय मकसूद खरतरे सिरशर ज । कलशदंड चढाया वेगड विरुद पाया,
धराया ताते गच्छ चौरासीयें वेगड सिंगार ज ||४०॥
पहिला छाजड कोला वरढीया पल्लीवाल,
उवांका गुरु पल्लीवाल पल्ली शुभ थान जू 1 बीजा बेगड प्रसिद्ध खेड में हुया समृद्ध, सातवीस देहरा कराया
सुप्रधान ज़ ||
सोवन कलश दंड मंडप मंड अखण्ड,
पातसाही सनाथ मेदिनी मंडान जू । खेड पल्ली सोनगिरि गुजर जंगलधर,
गौरी गृह एते थान वेगडे दीवान जू ॥४१॥
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________________ :: प्राप्तिस्थान :: श्री जिनहरिसागरमूरि ज्ञान भंडार जिन-हरिविहार पालीताणा 36 4270 मुद्रक : हरिहर प्रिन्टीग प्रेस, 29/ सर्वोदय सोसायटी—पालीताणा Jain Education intemational For Personal & Private Use Only