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एक-एक जाति अनेक गोत्रों में विभक्त हो गई । उन गोत्रों के नामकरण के प्रधानतया तीन कारण थे१ स्थान विशेष २ आजीविका व्यापार विशेप और ३ प्रसिद्ध पुरखों-विशेष व्यक्तियों के नाम से गोत्र प्रसिद्ध होते रहे । आचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि ने जो धर्म क्रान्ति की, उससे जैनों के साथ साथ अनेकों अजैन भी प्रभावित हुए । उनके शुद्ध साध्वाचार और कल्याणकारी उपदेशो से हजारों व्यक्ति जैनधर्मकी छत्र छायामें आत्मकल्याण करने लगे। मांसभक्षण. शिकार पशुबलि, मद्य एवं अभक्ष्य भक्षण आदि हिंसक और पापप्रवृत्तियों का उन्होंने परित्याग कर दिया । उन सब का एक संगठन बना दिया गया । स्वधर्मीवात्सल्य की भावना पुराने और नये जैनों में कूट कूट कर भर दी गई। उससे रोटी बेटी व्यवहार आजीविका एवं धर्मपालन में बहुत सुविधा उपस्थित हो गई। पूज्य आचार्य श्रीअभयदेवसूरिजी रचित साधर्मी वात्सल्य कुलक में कहा गया है कि नवकार मंत्र का स्मरण करने वाले सभी जैन स्वधर्मी है उनके साथ सगे भाई से भी अधिक धात्सल्य रखते हुए धर्म में आगे बढ़ना चाहिए । श्री जिनदत्तसूरिजी ने उपदेश-रसायन में कहा है कि प्रावकोंको अपने पुत्र पुत्रीका विवाह स्वधर्मी लोगों के साथ ही करना चाहिए विधर्मियों के साथ करने से सम्यक्त्व में बाधा पहुँचती है। दादा श्री जिनकुशलसूरिजी ने भी चैत्यवंदन कुलक वृत्ति में स्वधर्मी-वात्सल्य की बहुत पुष्टि की है।
जिनदत्तसूरिजी ने विक्रमपुरादि में बहुत बड़ी संख्या में माहेश्वरी लोगों को जैनी बनाया। उनके प्रतिबोधित अनेक गोत्र है, जिनकी सूची आगे दी जा रही है। श्री
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