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संघवी-नवलखा पल्लीवाल, फसला निनवाणा
सं० ११६४ में श्री जिनवल्लभसूरि सीरोही पधारे वोहरा सोनपाल निनवाणा के पुत्र को सर्पदंश हुआ । गुरु महाराज के विष उतारने पर वह जैन हो गया । उसने शत्रुजय का संघ निकाला । गुरु महाराज ने संघवी गोत्र प्रसिद्ध किया । इन्ही में से नवलखा, फसला, निनवाणा शाखाए निकली।
कांकरिया सं.११४२ में श्रीजिनवल्लभसूरि कंकरावता गाँव पधारे। वहां के राव भिमसिंह पड़िहार को राणा ने अपने सेवार्थ चित्तौड बुलाया उसके न जाने पर जब सेना आई तो राव ने गुरु महाराज की शरण ली । उनके उपदेश से उसने जैनधर्म स्वीकार किया । गुरु महाराज के कथन से सेना पर कंकर फेंके गए जिससे शत्रु के सारे शस्त्र कुंठित हो गए । राणा ने प्रसन्न हो कर भीमसी को सम्मानित किया। कंकरो के महात्म्य से 'कांकरिका' गोत्र स्थापित हुआ ।
श्री जिनदत्तसूरि विक्रमपुर में मरकोपद्रव होने से श्री जिनदत्तसूरिजी ने जैनों को रोग मुक्त कर दिया। इस प्रभाव से माहेश्वरी लोग भी जैन हो गए और कितने ही वैराग्य वासित होकर सूरिजी के पास दीक्षित हो गए । गुरुदेव ने इस प्रकार नाना नगरों में विचरते हुए एक लाख तीस हजार जैन बनाये । यहाँ कितने ही लोगो का परिचय दिया जाता है।
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