SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ नहीं लगता । राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार सातवींआठवीं शताब्दी से ही ज्यादा हुआ है । आचार्य हरिभद्र का समय भी आठवीं शताब्दी का है । कुवलयमाला की प्रशस्ति में ग्रंथ कर्त्ता उद्योतनसूरि ने जो गुरु परम्परा दी है, उसके अनुसार भी मरु- गूर्जरा धरा में जैनमन्दिरों का विशेष रूप से निर्माण सातवी-आठवी शताब्दी से होने लगा था । वसन्तगढ की संवतोल्लेख वाली प्राचीन जैन धातु प्रतिमाएँ भी आठवी शताब्दी की हैं । v कुलगुरुओं और भाटों व भोजकों ने ओस वंश की स्थापना का समय वीये - बाईसे ( २२२ ) बतलाया है. वह भी कल्पित ही है । वास्तवमें औतिहासिक दृष्टि से श्रीमाल, ओसवाल, पोरवाड़ आदि जैन जातियों की स्थापना सातवी-आठवीं शती में होना संभव है । समय समय पर अनेक जैनाचार्यों ने जैनेतरों को प्रतिबोध देकर बहुत से गोत्रों की स्थापना की अनुश्रुति के अनुसार ओसवाल जाति के ही आगे चलकर १४४४ गोत्र हो गई थे । - ग्यारहवीं शताब्दी में चैत्यवास - (शिथिलाचार) का प्रबल विरोध करनेवाले विधिमार्गप्रवर्त्तक आचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्य जिनेश्वसूरि हुए, जिन्होंने सं० १०७० के लगभग पाटण के राजा दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों से शास्त्रार्थ करके सुविहित मार्ग' की प्रतिष्ठा की थी । वे कठोर मुनि आचार को पालन करने वाले 'खरे' अर्थात् सच्चे साधु थे । अतः उनकी परम्परा 'खरतर गच्छ' के नाम से प्रसिद्ध हुई । जिनेश्वरसूरिजी के पट्टधर 'संवेग रंगशाला' के रचयिता जिनचंद्रसूरि एवं उनके गुरुभ्राता नवाङ्गटीकाकार श्री अभयदेवसूरि हुए | * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004163
Book TitleJainacharya Pratibodhit Gotra evam Jatiyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherJinharisagarsuri Gyan Bhandar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy