Book Title: Jainacharya Pratibodhit Gotra evam Jatiyan
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Jinharisagarsuri Gyan Bhandar
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संबत इग्यार बाणु समे. गुरु पुष जोग गहीर । वृसपत सातो वैशाख सुदि, श्रावक भ्रम सुं सीर ॥१७॥ लूणो ध्रम आदर लखो, जग लीधो जस वास । पाति तेम विरदाधिपति, दीपे देवीदास ॥१८॥
॥ छंद सारसी ॥ जिण वंस मानव जोति धारी हूवा सो दाखां हिवै। देणा ज दान दुझाल दाता कोन के आसति किवै ॥ महिपति मोटा जिके माने बुद्धि सागर संबला । दीपेह तिण धर तेज दिणयर चंद ज्यु चढती कला ॥१॥ सुन्दर क्षमा क्रमसी कहे मोजि मोकल भाखीये । मनोहारि मेहाद्रुजण मन्त्री देवक्रण मोजां दीयै ॥ सुजस लेणा सकल संघ में सांभ कामि सिद्धरा दी०। ॥२॥ हरचन्द वारा जेम हाले*ना हुवे निवला सबल, भामा ज जगड जेम भासे अचम्गला । दी० । ॥३॥ सरकरण सत्रां सूर साहे हुकम मोल हलावही । कर जेर के वीरेत कीधा पेश दे ग्रह +पावही ॥ मेवासियां मन माण भू क्या आवे ओलग अम्गला दी०। ॥४॥ बंधवा जोडं जुग्ग कोडं इला अंबर आखीये । आतम उलासं ऋषभदासं दान वीकम दाखीये ॥ विमलेस वठहथ अंके वारा नरा बिहुँ पख निर्मला दी०॥५॥ कवि राव मोठा करे कीरत गीत छंदह गावही । मन मेर कर ज्यु दीये मोजां बडे हेत वधावही ॥ मुरकीयां मोती कंठी माला कडा मुंदर संकला दी॥६॥ Xठाणुं । *भाखै । देसहि ।
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