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स्वकथ्य
विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति, धनाद्धर्म ततः सुखम्।। विद्या मनुष्य को विनयशील बनाती है। विनय से वह योग्य हो जाता है। योग्यता से धन अर्जित होता है और धर्म की प्राप्ति होती है। विद्या, बुद्धि और विवेक के आधार पर मनुष्य को समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता है। शिक्षा के माध्यम से ही मनुष्य की बुद्धि और विवेक का विकास होता है। मनुष्य जीवनपर्यन्त शिक्षा की प्राप्ति विविध रूपों में करता है तथा अपने ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास के लिये शिक्षा का सहारा लेता
आज की शिक्षण-प्रणाली में व्यक्ति के विकास के साधनों का सर्वथा अभाव पाया जाता है। एक ओर हमारी प्राचीन शिक्षा जहाँ व्यक्तित्व के चरम विकास और निर्वाण की बातें करती है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक शिक्षा व्यक्ति को अर्थ और काम तक ही सीमित करने के प्रयास में संलग्न है। परिणामत: आज की शिक्षा व्यक्ति को पूर्ण संस्कृत एवं विकसित करने में असमर्थ-सी प्रतीत हो रही है। यद्यपि आज के इस कम्प्यूटर युग में मोक्ष या निर्वाण की बातें करना हास्यास्पद जान पड़ती हैं, फिर भी धर्म की बातें तो कर सकते हैं। शिक्षा में धर्म को तो स्थान दिया जा सकता है। धर्म, नैतिकता, सत्यनिष्ठा तथा आध्यात्मिकता से हीन वर्तमान शिक्षा राष्ट्र के प्रत्येक स्तर पर अस्थिरता एवं अशांति का कारण बन रही है। आज शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् अनेक युवकयुवतियाँ बेरोजगारी की शिकार बनती जा रही हैं। इन सब बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी शिक्षा का हमारे समाज के साथ कोई सामंजस्य नहीं हो पा रहा है। इन्हीं समस्यायों को दृष्टिगत कर मैनें श्रमण परम्परा की प्राचीन शिक्षण-प्रणाली को देखना उचित समझा।
भारतीय संस्कृति में तीन प्रकार की परम्पराएँ देखने को मिलती हैं- ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध। प्रस्तुत पुस्तक में जैन एवं बौद्ध दो परम्पराओं के शिक्षा सम्बन्धी सिद्धान्तों के तुलनात्मक विवेचन को प्रस्तुत किया गया है।
प्रथम अध्याय में शिक्षा-दर्शन का सामान्य परिचय देते हुये शिक्षा का शाब्दिक अर्थ, परिभाषा, शिक्षा का जीवन और दर्शन से सम्बन्ध, शिक्षा की समस्याएँ आदि
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