Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 9
________________ जैन सिद्धान्ततब तो यह कर्म का कर्तृत्व सिद्ध हुआ, ईश्वर का कतत्व नहीं रहा / यदि यह कहा जाय कि कर्म जड़ होने से जीव को फल देने में स्वयं समर्थ नहीं हो सकता, इस लिए यह ईश्वर का ही काम है कि वह जीव को उसके किए हुए कर्म का फल दे, तो यह तो ईश्वर पर बड़ी भारी उपाधि लाद दी जाती है ! यह तो सचमुच ईश्वर को बड़ी खटपट में डाल देना हुआ ! इसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध-नामधेय वैदिक दार्शनिक विद्वान वाचस्पतिमिश्र के उद्गागं को उपस्थित करूँ, इसके पहले, बड़ी से बड़ी मुश्किली हमारे सामने जो खड़ी होती है, उसकी ओर विचारक वर्ग का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि, वह ( ईश्वर ) जीवों को बुरा काम करने ही क्यों देता है ? उन्हें क्यों नहीं सुधार देता ? अथवा चुरा काम करने के पहले ही उन्हें क्यों नहीं रोकता ? दुल्यवी राजा लोग तो अल्पज्ञ और परिमित शक्तिवाले हैं; तिर भी उन्हें मालूम हो जाय कि अमुक शख्स खून या चारी करने जा रहा है, तो उसको वे पहले ही रोक देंगे / ऐसा नहीं होगा कि उसे चोरी या खून करने देंगे और पीछे से उसे सजा फरमायँगे / ईश्वर जब सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, तो उसका भी यही कर्तव्य होना चाहिए कि वह प्राणी को दुष्कर्म करने के पहले हीराक दे / अपनी दृष्टि समक्ष प्राणी को दुष्कर्म करने देना, दुष्कर्म करने को तत्पर हुए उसको न रोकना और पीछे उसको उसके को की सजा करना यह विचित्र बात नहीं है ? कोई अन्धा मनुष्य कुए में गिरने की हालत में है, तब उस वक्त निकटवती दुसरा मनुष्य देखता हुआ भी और क्षमता रखता हुआ भी उसे न बचा ले, तो उसको कैसा समझना चाहिए ? ईश्वर दुष्कर्म में पड़ते हुए प्राणियां को न रोक ले और उन्हें दुष्कर्म करने के आर पी उन्हें जो

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