Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 11
________________ ___10 [जेनसिद्धान्तसुखिन एव जन्तून् सृजेद, विचित्रान् / कर्मवैचित्र्याद वैचित्र्यमिति चेत्, कृतमस्य प्रेक्षावता कर्माधिष्ठानेन, तदनधिष्ठानमात्रादेव अचेतनरपि कर्मणः प्रवृत्त्यनुपपत्तेस्तत्काथशरीरन्द्रियविषयानुत्पत्तौ दु:खानुत्पत्तेरपि सुकरत्वात् / " अर्थात्-' यह नियम है कि प्रेक्षावान की प्रवृत्ति या तो स्वार्थजनित होगी या कारुण्यजनित। परन्तु जगत्सर्जन में इन दोनों में से एक का भी योग सिद्ध नहीं होता / अत एव जगत्सृष्टि किसी प्रेक्षावान की की हुई सिद्ध नहीं हो सकती। जब भगवान ने समस्त ईप्सितों को प्राप्त कर लिया है, जब वह पूर्ण कृतकृत्य है, तब उसे जगत्सर्जन से और क्या अमिलपित प्राप्त करना बाकी है ? कुछ भी नहीं / कारुण्य भी जगत्सर्जन का प्रयोजक नहीं हो सकता। क्योंकि सृष्टि के पूर्व जी को इन्द्रिय, शरीर और विषय थे ही नहीं और अत एव दुःख का अभाव रखतः रिद्ध था, तब करुणा किस बात की हो सकती थी ? और यह भी बात है कि करणाप्रेरित ईश्वर जीवों को सुखी ही बनाये, विचित्र नहीं / यदि उनका वैचिश्य कर्म-वैचित्र्य-जनित माना जाय, तब तो प्रेक्षावान ईश्वर के लिए यही ठीक होगा कि वह कर्म का अधिष्ठाता होना ही छोड़ दे, कर्म-प्रेरण का काम ही न कर, जिसका फल यह होगा कि अचेतन कर्म की प्रवृत्ति ही न होगी, और अत एव शरीर, इन्द्रिय, विषयों की भी उत्पत्ति न होगी, और तब दुःखोत्पत्ति आप ही आप मिट जायगी।' और, इस विषय में अधिक पुष्टिकारक आधुनिक विज्ञान भी है, जो कि जगत्सृष्टि को प्राकृत नियम [ Law of cause and

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