________________ दिग्दर्शन] 29 उपलब्ध होते हैं / यह क्या सूचित करता है ? यही कि जैन धर्म वेदरचनाकाल के पहले भी था / ब्रह्मसूत्र, जो वेदव्यासनिर्मित कहा जाता है, उसमें के " कस्मिन्नसम्भशत " वगैरह सूत्रों को महान् भाष्यकार महर्षि श्री शंकराचार्यजी ने जनदर्शनसम्मत 'अनेकान्तवाद 'आदि सिद्धान्तों के खंडन में योजित कर के अपने भाष्य में उन सिद्धान्तों के खंडन का श्यन्न किया है। वास्तविक खंडन उनसे हो सका है या नहीं यह तो आगे मालूम हो जायगा, परन्तु इससे इतना तो अवश्य मिद्ध होता है कि आदि शंकराचार्यजी के जमाने में भी. नहीं, नहीं, उनके पूर्व वेदव्यास के काल में भी जैनधर्म का प्रचार था। इन सब पर से. सुज्ञ पाठकों को, जैनधर्म कितना प्राचीन है इस पर विचार करने की दिशा बहुत सरल हो जायगी। इस हालत में भी यदि कोई जैन धर्म को बौद्धधर्मसम्भृत बताने का साहस करे तो वह कितना उपहालास्पद होगा ? जरूर एक समय था, जब कि बड़े बड़े विद्वाना में भी जाधर्मविषयक अनभिज्ञता फैली हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप, जैन धर्म को किसीने बौद्ध धर्म की शाखा और किसी ने वैदिक धर्म की शाखा कह डाला था और किसी ने उसे महावीर देव से सापुत्पादित बनला दिया था। परन्तु जन साहित्य ज्या ज्या प्रचार में आने लगा और शोधक विद्वानों का तत्सम्बन्धी अभ्यास भी ज्यों ज्यों बढ़ने लगा, त्यों त्यों उनके पूर्वोक्त भ्रम आप ही आप दूर होते गए / और अब तो इन भ्रमों के विदारण में बड़े बड़े पौर्वात्य एवं पाश्चात्य विद्वानों के आलेखन आम तौर पर जाहिर हैं ! इस ऐतिहासिक संशोधन के महान कार्य में जिन पाश्चात्य विद्वानों के यशस्वी नाम उल्लेख-योग्य हैं, उनमें डॉ. जेकोबी, डॉ. पेटोल्ड, डॉ. स्टीनकोनो, डॉ. हेलमाउथ, डॉ. हर्टल,