Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 47
________________ - ___ [जैनसिद्धान्तनहीं / अतः न उसकी आदि हो सकती है और न अन्त ही / इससे यह स्पष्ट है कि धर्म एकीकरण-विधायक शक्तिरूप ही होना चाहिए, नहीं कि भेदविधायक फेक्टर / उसका अकृत्रिम स्वाभाविक शुद्ध सत्य ही उसका सबसे बड़ा आकर्षण है / निःसन्देह, उसकी संस्था, धार्मिक भेदक भिन्नताओं को मिटा कर विश्ववन्धुत्त की स्थापना के लिए ही होती है। यही उसका लक्ष्य-बिन्दु होगा। इस दृष्टि से जब जैनधर्म की आलोचना करते हैं, तब मालूम होता है कि वह उसका उपदेश [ Preaching ] है, जिसने वीतरागत्व की पूर्ण सिद्धि से केवलज्ञान [ Omniscience ] को प्राप्त कर के पीछे उसको प्रकाशित किया है / असत्य का प्रवेश वहाँ सम्भवित है, जहाँ राग-द्वेष-मोह हैं / परन्तु जो इन दोषों के ऊपर उठा है और जिसने पूर्णपावित्र्यद्वारा पूर्ण विमल ज्ञान प्राप्त किया है, उसके तत्त्वप्रकाशन में असत्य का सम्भव कैसा ? भगवान् जिन ने ' उच्च' कहलाते हुए और 'नीच' कहलाते हुए-सबको समान रूप से उपदेश किया है। उस उपदेश का द्वार देश-जाति-कुल-सम्प्रदायसम्बन्धी किसी प्रकार के भेद विना, सब के लिए खुल्ला रहता है / इस हेतु से जैन धर्म को यदि जगद्गामी--विश्वव्यापी [Cosmopolitan] धर्म कहा जाय तो असंगति या अत्युक्ति न होगी। चोर, डाकू, शिकारी, कसाई वगैरह भयंकर नीच, पापी और बदमाश लोंगों ने जब जैन धर्म की मुख्य शिक्षाप्रेम और अनुकम्पा, दया और सेवा को सीखा और अपने जीवन में उन्हें उतारा, तब वे भी अपना आत्मोद्धार कर सके / जैन धर्म जिन का उपदेश है, और सब जिनों का धर्मोपदेश एकरूप ही होता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि उत्तरोत्तर जिन पूर्व-पूर्वजिनप्रकाशित धर्म को पुष्ट करते हैं। ऐसी उसकी विशद परम्परा है--

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