Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 49
________________ 48 [जैनसिद्धान्तमैं कहना चाहता हूँ वह यह है कि, जमाना अब यह आ गया है कि हमें धार्मिक संकुचितता को दूर कर एक-दूसरे के धर्म का आदर करना सीखना चाहिए। धार्मिक झगड़े हमने बहुत किए, और इससे हमारी, हमारे देश की कितनी दुर्गति हुई है यह आप सोच सकते हैं / अब इन साम्प्रदायिक या कौमी कलहों को मिटा कर हम सब को सच्चे बन्धुभाव के महान् सूत्र में आबद्ध होना चाहिए। साम्प्रदायिक भिन्नता हमारे पारस्परिक सौमनस्य और सुहृद्भाव में विघ्नरूप न बने इसका हमें पूर्ण खयाल रखना चाहिए। तभी हमारा सच्चा संगठन होगा और हमारी सामुदायिक शक्ति बढ़ेगी; और तभी हम अपने राष्ट्रीय ध्येय को सिद्ध कर सकेंगे। ____ "स्वधर्भ निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" का संकुचित अर्थ, जो कि सामुदायिक-शक्ति-संगठन का कट्टर दुश्मन है, छोड कर, 'स्वधर्म' का अर्थ आत्म-धर्म ( spiritual duties), और 'परधर्म' का अर्थ जड़-मोह अथवा विषय-दास्य करना चाहिए / यही वास्तविक अर्थ है / और इसी को दृष्टि-सम्मुख रख कर चलने में हमारी उन्नति है / सामान्य सावलौकिक धर्म है: " पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् / अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमलुब्धता॥" बस, इस विश्व-धर्म की उद्घोषणा को हम अपने हृदय पर अंकित करें ! और अपने जीवन में विश्वप्रेम के महान् आदर्श का विकास करते हुए आगे बढ़े ! ॐ शान्तिः ! ता. 15-4-37

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