Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 40
________________ दिग्दर्शन ]. 39 / ____ अर्थात्-प्रमाद से ( प्रमाद में केवल असावधानी ही नहीं ली जाती; क्रोध, लोभ, वैर-विरोध वगैरह ( Passions ) का भी समावेश है ) प्राणवियोग करना हिंसा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राणवियोग ही हिंसा है। दूसरे को शारीरिक या मानसिक क्लेश पहुँचाना भी हिंसा है / इतना ही नहीं, मनसा परापकार का विचारमात्र करना यह भी हिंसा में शामिल है। क्योंकि यह सब प्रमाद-सम्भूत है / अत एव विषय-- स्पष्टीकरण के लिए धर्माचार्यों ने हिंसा को मानसिक, वाचिक और शारीरिक इस प्रकार त्रिविध रूप से वर्णित किया है। मतलब कि प्राणव्यपरोपण या प्राणसंक्लेश की क्रिया हो या न हो, जहाँ प्रमत्तवृत्ति है वहाँ हिंसा है; और इसके विपरीत, जहाँ प्रमत्त योग नहीं है और भली वृत्ति है, जैसे कि डॉक्टर का ओपरेशन, वहाँ, तात्कालिक अधिक कष्टप्रद स्थिति होते हुए भी हिंसा नहीं है। ____ यह बराबर है कि अहिंसा का जितना ऊँचा आदर्श है उतना उसका पूर्णरूप से पालन करना शक्य नहीं / महान् सन्त के लिए भले ही वह शक्य हो, परन्तु सामान्य जगत् के लिए शक्य नहीं / इसीलिए जैन शास्त्रने अहिंसा आदि को महाव्रत और अणुव्रत में विभक्त कर के महाव्रत को साधु के और अणुव्रत को गृहस्थ के अधिकार में रक्खा है। महाव्रतों की महत्ता के सम्बन्ध में महर्षि पतञ्जलिने भी अपने योगसूत्र में [द्वितीय पाद में ] फरमाया है कि:... "जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् // 31 // "

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