Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 41
________________ - 40 [ जैनसिद्धान्तअर्थात्-जाति, देश, काल और समय से अनियन्त्रित ऐसे सार्वभौम अहिंसा आदि व्रत महाव्रत हैं / ___ यह सर्वविरत सन्तों के लिए है / गृहस्थों के लिए जैनशास्त्र ने अहिंसा की सीमा इस तरह अंकित की है कि-'निरपराधी स्थूल [ ' त्रस '-Mobile ] जीवों को जानबुझ कर न मारूँ ' / अब वाचक महाशय सोच सकते हैं कि इतनी संकुचित अहिंसा का अनुसरण गृहस्थाश्रम के व्यवहार में क्या कोई अडचन डाल सकता है ? अहिंसाविषयक इस संकोच को विचारपूर्वक देखा जाय तो मालूम होगा कि इसमें अपराधी को समुचित शिक्षा करना वर्जित नहीं हुआ और घर--मकान बांधना तथा कृषि-वाणिज्य आदि व्यवसाय निषिद्ध नहीं हुआ / अब आप देख सकते हैं कि चाहे राजा हो या पुलिस--अफसर हो, वेपारी हो या सैनिक हो, कृषक हो या हजाम हो, किसी के लिए भी जैनधर्म का अनुसरण अशक्य रह सकता है ? सब अपनी अपनी परिस्थिति में इस धर्म का उचित अनुसरण बराबर कर सकते हैं / अहिंसा की या दूसरी किसी बात की ऐसी कोई सख्ताई नहीं है जो जैनधर्म के अनुसरण में किसी व्यक्ति को अडचनरूप हो सके। एक विद्वान ने कहा है: "Ahimsa is perfectly consistent with social and temporal progress of the highest order, with the life of a king, a warrior, a merchant, a factoryowner and a tiller of the soil. Everybody in any and every station of life can practise Ahimsa iu such a degree and to such an extent as his

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