Book Title: Jain Siddhant Digdarshan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Bhogilal Dagdusha Jain

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Page 36
________________ - दिग्दर्शन ] . * 35 कस्यचिद् गुणकृद् दुग्धं दोषकार च कस्यचित् / एकस्यापि दशाभेदे, स्याद्वादोऽयं प्रकाशते // उपयोगो स एवार्थोऽनुपयोगो च काहींचत् / अवस्थाभेदमाश्रित्य, स्याद्वादोऽयं प्रकाशते / एकमेव भवेद वस्तु हानिकृल्लाभकारि च / अवस्थाभेदमाश्रित्य, स्याद्वादोऽयं प्रकाशते // [एतल्लेखक-विरचित] एक वस्तु में विरुद्ध धर्मों का अभ्युपगम यदि एक ही दृष्टि-बिन्दु (Stand-point) से किया जाय, तब तो जरूर वह दूषित कहा जायगा। परन्तु यदि जुदा जुदा दृष्टि--बिन्दु से भिन्न भिन्न तत्व एक वस्तु में घटित हो सकते हो, तो उन्हें क्यों न कबूल रक्खा जाय ? पुत्र जिसको पिता समझता है उसी व्यक्ति को उसका बाप पुत्र समझता है। यह क्यों घटित होता है ? बात यह है कि एक ही व्याक्त की इन दोनों बातों तरफ अपेक्षा एक नहीं है, किन्तु दोनों तरफ की अपेक्षाएँ अलग अलग हैं / यही कारण है कि उन्हें घटित माना जाता है / इसी तरह, एक ही वस्तु में सत् और असत्, एवं नित्य और अनित्य एक ही अपेक्षा से यदि माने जाते, तब तो जरूर वह मन्तव्य दूषित ठहरता / परन्तु जब सत् मानना एक दृष्टि से है और असत् मानना दूसरी दृष्टि से है, एवं नित्य मानना एक अपेक्षा से है और अनित्य मानना दूसरी अपेक्षा से है, तब इसमें क्या आपत्ति है ? वस्तु अनेकप्रदेशात्मक है, यानी उसकी अनेक स्थितियाँ हैं, अतः उसके निरूपण में एकांगी अपेक्षादृष्टि पर्याप्त नहीं होगी, भिन्न भिन्न दृष्टिओं से ही उसका ठीक ठीक निरूपण शक्य है। तब इस प्रकार, विविध-अपेक्षा-द्वारा वस्तु के विशाल निरूपण की-वस्तु के

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